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नागरिकता क़ानून: जामिया के छात्रों के समर्थन में मुंबई में भी प्रदर्शन

नागरिकता क़ानून: जामिया के छात्रों के समर्थन में मुंबई में भी प्रदर्शन

दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में रविवार को हुए हिंसक प्रदर्शन की लपटें मुंबई तक पहुंच गई हैं।

दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में रविवार को हुए हिंसक प्रदर्शन की लपटें मुंबई तक पहुंच गई हैं। सोमवार को नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज (TISS) के छात्र-छात्राओं ने विरोध प्रदर्शन किया। छात्रों ने क्लास और फ़ील्ड वर्क का बहिष्कार करने का फ़ैसला किया है। मुंबई में छात्र संघ चुनावों पर वर्षों तक पाबंदी रही थी, लिहाजा यहां दिल्ली या देश के अन्य बड़े शहरों जैसी छात्र संघ की राजनीति देखने को नहीं मिलती। लेकिन अब जब TISS में जामिया के छात्रों के समर्थन में स्वर उठने लगे हैं तो इस प्रकरण के अन्य महाविद्यालयों तक फ़ैलने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। 

TISS के विद्यार्थियों का कहना है कि उनका प्रदर्शन विद्यार्थियों पर हुए हमले के ख़िलाफ़ है। उन्होंने कहा कि जामिया मिल्लिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी और नॉर्थ ईस्ट की कुछ यूनिवर्सिटी के छात्रों पर पुलिस ने बर्बरतापूर्वक कार्रवाई की है जिसके ख़िलाफ़ वे अपनी आवाज़ बुलंद करेंगे। छात्र पुलिस कार्रवाई की जांच की माँग कर रहे हैं तथा दोषी पुलिस कर्मियों व अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की माँग भी कर रहे हैं।

लेकिन सवाल बार-बार यही उठता है कि विगत पांच सालों में यह सरकार किसी ना किसी बहाने छात्रों से टकराव की मुद्रा में क्यों खड़ी दिखाई देती है।

स्कॉलरशिप को लेकर रोहित वेमुला की आत्महत्या का मामला हो या जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार का प्रकरण, सरकार का हर जगह छात्रों से टकराव हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय हो या जाधवपुर विश्वविद्यालय या फिर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, सभी जगह छात्र-छात्राओं पर बड़े पैमाने पर पुलिस बल का प्रयोग किया गया। इन सारे प्रकरणों की तह में जाएँ तो आज तक सरकार अपना पक्ष अदालत में भी साबित नहीं कर सकी है कि छात्र दोषी हैं! 

अब नागरिकता संशोधन क़ानून के नाम पर जो स्थिति पूर्वोत्तर भारत की हुई है उसने करीब 4 दशक पूर्व के जख्म फिर से ताजा कर दिए हैं। 1979 और 1985 के बीच असम के छात्रों की अगुवाई में चले असमी राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान 1951 में तैयार की गई पहली एनआरसी को अपडेट करने की मांग उठी थी। छात्र आंदोलन के साथ ही हिंसक अलगाववादी आंदोलन भी हुआ जिसमें हजारों लोग मारे गए थे और घुसपैठियों के ख़िलाफ़ पूरा असम जलने लगा था। 1985 में असम आंदोलन के छात्र नेताओं ने राज्य विधानसभा का चुनाव जीता था और राज्य में सरकार बना ली थी। उसी साल इन लोगों ने प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के साथ ‘असम समझौता’ किया था। 

इस समझौते में तय हुआ था कि 24 मार्च 1971 की आधी रात तक (इस दिन पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में नागरिकों पर हमला करना शुरू किया था) असम आने वाले लोगों को ही भारत का नागरिक माना जाएगा। एनआरसी का मक़सद 1971 के बाद आए ‘घुसपैठियों’ को राज्य के मूल नागरिकों से अलग करना था। 

बाद में एनआरसी का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और कई पड़ावों से होता हुआ आगे बढ़ा। दिसंबर 2014 में सीजेआई रंजन गोगोई ने आदेश दिया कि एनआरसी को अपडेट कर एक साल के अंदर कोर्ट में पेश किया जाए और एनआरसी पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद जो कुछ हुआ वह आज हम देख रहे हैं। एनआरसी को अपडेट करने के बजाय उसमें संशोधन की बातें हुई। संसद में बिल पास कर दिया गया और असम तथा पूर्वोत्तर के छात्रों के साथ-साथ देश की राजधानी और अन्य शहरों में इस क़ानून के ख़िलाफ़ प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। लेकिन यहां यह समझने की ज़रूरत है कि नागरिकता संशोधन क़ानून के आधार क्षेत्र पूर्वोत्तर या असम की स्थिति देश के बाक़ी हिस्सों से पूरी तरह अलग है। 

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