ड्रग तस्करी के आरोपी को भी लंबे समय तक जेल में नहीं रखा जा सकता है:सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक अहम फैसला देते हुए कहा है कि ड्रग तस्करी के आरोपी को भी लंबे समय तक जेल में नहीं रखा जा सकता है। कोर्ट ने यह कहा है कि लंबे समय तक जेल अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार की दी हुई गारंटी यानी जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा के खिलाफ है।
सुप्रीम कोर्ट नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट, 1985 के एक केस में जमानत याचिका पर विचार कर रहा था। कोर्ट ने कहा कि लंबे समय तक जेल की स्थिति सशर्त स्वतंत्रता अधिनियम की धारा 37 के तहत कानूनी प्रतिबंध को खत्म कर देगी।
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस दीपांकर दत्ता की बेंच ने जमानत याचिका सुनवाई की। इस केस में ड्रग तस्करी के आरोपी वयक्ति के पास से 247 किलोग्राम गांजा बरामद किया गया था। इस मामले में कोर्ट ने कहा कि आरोपी पूर्व में ही साढ़े तीन साल से अधिक समय जेल में बिता चुका है। साथ ही मामले की सुनवाई पूरी होने में समय लगेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लंबे समय तक जेल आम तौर पर संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत सबसे कीमती मौलिक अधिकार के खिलाफ है। ऐसे हालत में शर्तों के साथ मिली स्वतंत्रता को एनडीपीएस एक्ट की धारा 37 (1) (बी) (ii) के तहत बनाए गए कानूनी प्रतिबंध को ओवरराइड करना चाहिए। हालांकि, याचिकाकर्ता के उड़ीसा का निवासी नहीं होने और यहीं से उसकी गिरफ्तारी होने के कारण सुप्रीम कोर्ट ने शर्त लगाई कि उसे ट्रायल कोर्ट के समक्ष दो स्थानीय जमानतदार पेश करके के बाद जमानत बांड भरने पर जमानत पर रिहा किया जाएगा।
शाब्दिक व्याख्या जमानत देना असंभव बना देगी
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों मो. मुस्लिम बनाम राज्य मामले में टिप्पणी करते हुए कहा था कि धारा 37 के तहत कठोर शर्तों की एक स्पष्ट और शाब्दिक व्याख्या जमानत देना असंभव बना देगी। जस्टिस एस रवींद्र भट्ट और जस्टिस दीपांकर दत्ता की बेंच ने कहा था कि धारा 37 के तहत शर्तों की एक स्पष्ट और शाब्दिक व्याख्या असरदायक तरीके से जमानत देने को पूरी तरह से बाहर कर देगी।जिसके कारण दंडात्मक हिरासत और अस्वीकृत निवारक हिरासत भी होगी। सुप्रीम कोर्ट मे यह टिप्पणी एक विचाराधीन बंदी को बेल पर रिहा करते हुए की थी। इसे सात साल पहले एनडीपीएस एक्ट के तहत, कथित तौर पर प्रतिबंधित पदार्थ की तस्करी में संलिप्तता के लिए गिरफ्तार किया गया था।
एनडीपीएस एक्ट की धारा 37 के तहत, कोर्ट किसी आरोपी को सिर्फ तभी जमानत दे सकता है जब वह इस बात से संतुष्ट हो जाए कि यह मानने के लिए उचित आधार हैं कि वे इस तरह के जुर्म के लिए दोषी नहीं हैं। साथ ही आरोपी के रिहा होने के बाद कोई अपराध करने की संभावना भी नहीं है।
गैरजरूरी देरी जमानत का आधार हो सकती है
सुप्रीम कोर्ट ने मो. मुस्लिम बनाम राज्य मामले में कहा था कि धारा 37 के तहत लागू की गई ऐसी विशेष शर्तों पर संवैधानिक मापदंडों के भीतर विचार करने का एक ही तरीका यह है कि कोर्ट रिकॉर्ड पर सामग्री को पहली नजर देखने पर संतुष्ट हो कि आरोपी अपराधी नहीं है।कोर्ट मे कहा था कि किसी भी अन्य व्याख्या का परिणाम यह हो सकता है कि एनडीपीएस एक्ट की धारा 37 के तहत अधिनियमित अपराधों के आरोपी को जमानत देने से पूरी तरह इनकार कर दिया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एनडीपीएस एक्ट 1985 की धारा 37 की कठोरता के बावजूद, मुकदमे में गैर जरुरी देरी किसी आरोपी को जमानत देने का आधार हो सकती है।