द कश्मीर फाइल्स : कश्मीरी पंडितों के दर्द को राजनीतिक रूप से बेचने की कोशिश
‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म देखकर थिएटर से निकलते दर्शक सिर्फ ग़मज़दा नहीं दिखते, उनमें गुस्सा भी नज़र आता है और नफ़रत की भावना भी। यह नफ़रत सिर्फ हिंसा और हिंसा फैलाने वालों के खिलाफ हो तो मकसद बड़ा हो जाता है।
लेकिन, एक दर्शक के तौर पर ऐसा महसूस होता है जैसे हम धर्म विशेष के खिलाफ नफ़रत की भावना लेकर थिएटर से निकल रहे हों। फिल्म के निर्माता निर्देशक विवेक अग्निहोत्री और पल्लवी जोशी हैं। अन्य कलाकारों में अनुपम खेर, मिथुन चक्रवर्ती, दर्शन कुमार, पल्लवी जोशी, भाषा सुंबली और चिन्मय मंडलेकर शामिल हैं।
आम तौर पर फिल्में समाज को शांति, सौहार्द्र, भाईचारा बढ़ाने और नफरत मिटाने का संदेश देती है। लेकिन, इस फिल्म को देखकर ऐसा संदेश मिलता नज़र नहीं आता। रालिव, त्सालिव या गालिव के गिर्द संदेश देने की कोशिश की गयी है जिसका मतलब होता है मुसलमान बनो या मरो या कश्मीर छोड़ो।
आतंकियो ने कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ने के लिए इसी नारे का इस्तेमाल किया था। खुलेआम मस्जिद से कश्मीर पंडितों के लिए कश्मीर छोड़ने या फिर जान गंवाने की चेतावनी जारी की जाती दिखायी गयी है। यहां तक कि मुस्लिम महिलाओं को भी कश्मीरी पंडित महिलाओं के हिस्से का अनाज उन्हें नहीं देने और उन्हें खदेड़ने पर आमादा दिखाया गया है।
जेएनयू कैंपस, लाल झंडे का आतंकियों से संबंध बताती है फिल्म!
(जे)एएनयू कैंपस, लाल झंडे और आतंकियों को देश का दुश्मन दिखाया गया है। इनमें परस्पर सांठ-गांठ को स्थापित किया गया है। 2016 में जेएनयू में लगे नारों को भी जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के पलायन/नरसंहार से जोड़ा गया है। ऐसा लगता है मानो अदालत से फैसला आने से पहले ही जेएनयू कैम्पस में छात्रसंघ की सियासत करने वालों को फिल्म ने देशद्रोही करार दिया हो।
फिल्म की एक और खासियत दिखती है कि इसमें न्याय होता नहीं दिखता, न्याय का इंतज़ार दिखाया जाता है। संदेश दिया जाता है कि न्याय का इंतज़ार अभी बाकी है। फिल्म के चश्मदीद मास्टर साहब यानी पुष्कर नाथ पंडित की भूमिका निभा रहे अनुपम खेर के मुंह से यह बात कहवायी गयी है कि न्याय तब होगा जब अपनी मातृभूमि छोड़ चुके कश्मीरी पंडित दोबारा अपनी सरजमीं पर वापस होंगे।
विस्थापित कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास का सवाल 32 साल से लंबित है। केंद्र में इस दौरान यूपीए-एनडीए सबकी सरकारें आ चुकी हैं लेकिन कश्मीरी पंडितों का इंतज़ार कभी खत्म नहीं हुआ। ऐसा क्यों है?-इस पर यह फिल्म कतई रोशनी डालती नहीं दिखती है। फिल्म में इस बात को भी दिखाने की जरूरत नहीं समझी गयी है कि कश्मीरी पंडितों के लिए आवाज़ उठाते हुए जान देने वाले सैकड़ों मुस्लिम भी थे जिन्हें आतंकियों ने मौत के घाट उतार दिया गया था।
पुष्कर नाथ पंडित का पोता कृष्णा छात्रसंघ का चुनाव लड़ता है जिसके पिता, पत्नी और भाई को आतंकियों ने मार दिया था। पोते की परवरिश भूखे पेट रहकर दादा जी अपने पेंशन की राशि से करते हैं। लेकिन, उन्हें तब बहुत सदमा पहुंचता है जब उन्हें यह पता चलता है कि उनका पोता कृष्णा कॉलेज कैम्पस में आज़ादी के नारे लगा रहा है। इस वजह से कृष्णा पर देशद्रोह के आरोप हैं।
फिल्म में स्पष्ट तौर पर यह दर्शाने की कोशिश नज़र आती है कि ढोल बजाकर संघवाद-पूंजीवाद से आज़ादी मांगने वालों के संबंध कश्मीर में इंसानियत के दुश्मन बन चुके आतंकवादियों और पाकिस्तान समर्थकों से है।
मुख्यमंत्री खुद को हिन्दुस्तान से अलग समझते दिखते हैं!
पुष्कर नाथ पंडित की अंतिम इच्छा थी कि उनकी अस्थियों को उनके चार मित्रों की मौजूदगी में उस घर में बिखेरा जाए, जहां से वे निर्वासित हुए थे। इस अंतिम इच्छा को पूरा करने के क्रम में उन चार मित्रों से कृष्णा की मुलाकात होती है। इनमें आईएएस ब्रह्मदत्त भी होते हैं जिनकी भूमिका मिथुन चक्रवर्ती ने निभायी है। यह बात भी उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री उन्हें हिन्दुस्तान का एजेंट बताकर नौकरी से निलंबित कर देते हैं। यह बहुत खतरनाक बात है कि जम्मू-कश्मीर के एक मुख्यमंत्री का डायलॉग कुछ इस तरह दिखाया गया है मानो वह खुद को हिन्दुस्तान से अलग समझता हो।
जब मुख्यमंत्री का इस्तीफा होता है और राष्ट्रपति शासन लागू होता है तो उन्हीं आईएएस अफसर ब्रह्मदत्त को राज्यपाल का सलाहकार बना दिया जाता है। अन्य तीन लोगों में पद्म सम्मान हासिल करने वाले पुलिस अफसर हरी नारायण की भूमिका में पुनीत इस्सर, डॉक्टर महेश कुमार की भूमिका में प्रकाश वेलावड़ी और पत्रकार विष्णु राम की भूमिका में अतुल श्रीवास्तव नज़र आते हैं।
एक दृश्य में मीडिया पर गंभीर टिप्पणी की गयी है। पद्म सम्मान विजेता पुलिस अफसर तोहमत लगाते हैं कि अगर मीडिया का सच सामने आ गया तो लोग मीडियाकर्मियों को घसीटकर मारेंगे। जवाब में पत्रकार कहता है कि पद्म सम्मान उस पुलिस अफसर को इसलिए मिला है कि वे अपनी ज़ुबान चुप रख सकें।
छात्र संघ नेता का 10 मिनट तक लंबा भाषण
फिल्म में एक समय आता है जब कृष्णा (दर्शन कुमार) को पता चल जाता है कि कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार की कहानी दुनिया से साजिश के तहत छिपायी गयी है।
राजनीतिक कारणों से कश्मीर से बाहर भारत सरकार ने भी कभी कश्मीरी पंडितों की पीड़ा को नहीं समझा। सच सामने नहीं आने के कारण देशवासियों का भी उचित सहयोग और समर्थन कश्मीरी पंडितों को नहीं मिला।
कृष्णा छात्र संघ चुनाव के दौरान अपने 10 मिनट से ज्यादा चले लंबे भाषण में कश्मीर की महत्ता को बताता है, कश्मीरियों को ज्ञानियों यानी पंडितों की ज़मीन बताता है और कहता है कि नाजियों ने जिस तरह से यहूदियों का कत्लेआम किया उससे भीषण रूप में मुसलमानों ने कश्मीर पंडितों का कत्लेआम किया। कश्मीरी पंडितों को जबरन मुसलमान बनाया गया। पूरा भाषण मानो सोशल मीडिया पर किसी की प्रचार सामग्री महसूस होती है।
एएनयू कैम्पस, लाल झंडे और ‘हमें चाहिए आज़ादी’ के नारे कुछ ऐसे फिल्माए गये हैं मानो वे आतंकवाद के समर्थक और पोषक हैं। कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम करने वाले आतंकी बिट्टा (चिन्मय मंडलेकर) के साथ प्रोफेसर की भूमिका निभाने वाली पल्लवी जोशी का संबंध और नाजायज रिश्ता भी स्थापित करने की कोशिश की गयी है। प्रोफेसर बनीं पल्लवी जोशी क्रांतिकारी गीत गाकर और जोशीले भाषण देकर छात्रों को देश के खिलाफ भड़काती हुई दिखाई गयी हैं।
नरसंहार का फिल्मांकन ख़ून खौलाने वाला
आतंकियों के हाथों कश्मीरियों का नरसंहार इस रूप में दिखाए गये हैं जिसे देखकर दर्शकों का ख़ून खौल उठे। पुष्कर नाथ की बहू को उनके बेटे के सामने निर्वस्त्र करने और आरी मशीन से काट दिए जाने के दृश्य फिल्माए गये हैं। एक साथ 24 स्त्री-पुरुष-बच्चे को इस तरह बारी-बारी से गोली मारते दिखाया गया है मानो वे अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हों। इनमें पुष्करनाथ का पोता और कृष्णा का भाई शिवा भी है। यह सब करते हुए आतंकी खुलेआम मजहबी नारे लगाते भी दिखाए गये हैं।
एक दृश्य में मौलवी छात्रों को सिखाते दिखाए गये हैं कि जब दिल्ली से अगले दिन नेता आएं और वे पूछें कि क्या चाहिए तो उन्हें बताना है कि मस्जिद चाहिए। शिवा को भी यही सिखाया जाता है। वह अपने दादाजी को बताता है कि उसे स्कूल जाने की इच्छा नहीं है। वह बताता है कि वहां उसने लिखा देखा है- रालिव, त्सालिव या गालिव अर्थात मुसलमान बनो या मरो या कश्मीर छोड़ो।
पूरी फिल्म देखने के बाद कश्मीरी पंडितों का दर्द तो सामने आता है लेकिन ऐसा लगता है मानो उनके दर्द को राजनीतिक रूप से बेचने की कोशिश की गयी है।
मस्जिद और धार्मिक नारे का उपयोग, कम्युनिस्टों और जेएनयू छात्रों के खिलाफ नफरत, मुस्लिम नेतृत्व को नकारने जैसी प्रस्थापना तो दिखती है लेकिन कश्मीरी पंडितों से हमदर्दी या उन्हें सहयोग करने वालों का कहीं जिक्र है। यह फिल्म उस पूरी राजनीति पर भी चुप है जिसे कश्मीरी पंडितों के कत्लेआम और विस्थापन से फायदा हुआ।