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पुस्तक समीक्षा: ‘इतिहास को न तो मिटा और न ही ठीक कर सकते हैं’

पुस्तक समीक्षा: ‘इतिहास को न तो मिटा और न ही ठीक कर सकते हैं’

क्या इतिहास को मिटाया जा सकता है, या झुठलाया जा सकता है? क्या ठीक इसे ठीक किया जा सकता है? पढ़िए "दी इंडियंस: हिस्ट्रीज़ ऑफ़ ए सिविलाइज़ेशन” पुस्तक की समीक्षा में। 

पेंगुइन से 1987 में प्रकाशित राजमोहन गांधी की पुस्तक अंडरस्टैंडिंग मुस्लिम माइंड के पहले संस्करण की प्रारंभिक पंक्तियाँ कहती हैं: “भारत और पकिस्तान के बीच कोई भी परमाणु टकराहट यदि हुई (ईश्वर न करे ऐसा हो) तो वो इतिहास के कारण ही होगी”। यह एक वाक्य हमें इतिहास की अनिवार्यता,महत्ता और उसकी संवेदनशीलता को दर्शाता है। इसके साथ ही यह हमें इतिहास के दुरुपयोग और भयावहता के प्रति सचेत भी करता है। इतिहास से 'लगाव' इतिहासकारों से ज़्यादा सत्ता में बैठे लोगों को होता है। तभी तो भारत में हर सत्ता परिवर्तन के साथ इतिहास को 'सही' लिखने पर ज़ोर दिया जाता है। एक पक्ष का इतिहास को 'ठीक' करना दूसरे पक्ष के लिए इतिहास का 'डिस्टॉर्शन' माना जाता है।

अभी हाल ही में एक किताब प्रकाशित हुई है। किताब का नाम है "दी इंडियंस: हिस्ट्रीज़ ऑफ़ ए सिविलाइज़ेशन”। किताब को अलेफ़ पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है। किताब अंग्रेज़ी में है। यह एक सम्पादित पुस्तक है जिसका संपादन तीन लोगों ने मिलकर किया है। एक संपादक गणेश नारायण देवी हैं। गणेश देवी एक साहित्यिक आलोचक और सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भाषा विज्ञान, नृविज्ञान और साहित्य आलोचना पर कई महत्वपूर्ण शोधपत्र और पुस्तकें लिखी हैं। वह वडोदरा में भाषा अनुसन्धान एवं प्रकाशन केंद्र और गुजरात के तेजगढ़ में आदिवासी अकादमी के संस्थापक हैं जो आदिवासी शिक्षा पर काम करता है।

2010 में देवी ने पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया की अध्यक्षता की, जिसने 780 जीवित भारतीय भाषाओं पर शोध किया और उनका  दस्तावेजीकरण किया। वर्तमान में वो बेंगलुरु स्थित नेशनल सेंटर फ़ॉर बायोलॉजिकल साइंसेज में प्रोफ़ेसर हैं। 

दूसरे संपादक टोनी जोसेफ़ हैं। टोनी जोसेफ़ एक पत्रकार के रूप में देश के कई बड़े समाचार घरानों के महत्वपूर्ण समाचारपत्रों में उच्च पदों पर काम किया है। इसके अलावा वो प्राचीन भारतीय इतिहास विषय पर भी लिखते रहे हैं। "अर्ली इंडियंस: दी स्टोरी ऑफ़ आवर एनसिस्टर्स एंड वेयर वी केम फ्रॉम" जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक के लेखक भी हैं। 

तीसरे संपादक रवि कोरिसेट्टर हैं। रवि एक पुरातत्त्वविद् हैं। वर्तमान में वो बेंगलुरु स्थित नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडीज़ में सहायक प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत हैं। इसके अलावा वो कई महत्वपूर्ण पुस्तकों के लेखक भी हैं। देश-विदेश के लगभग एक सौ विद्वानों/लेखकों के योगदान से यह किताब तैयार की गई है। यह भारतीय इतिहास के 12000 वर्षों का दस्तावेज है। यह अंतिम हिमयुग से लेकर इक्कीसवीं सदी तक के कालखंड का इतिहास है। 

यह किताब सात खण्डों में विभाजित है। पहले भाग में सम्मिलित अध्याय दक्षिण एशिया में मानव उत्पत्ति, प्रारंभिक भारतीय आबादी, उनके प्रवासन और जलवायु के माध्यम से मानव विकास को वर्णित करता है। 

दूसरा भाग पौधों और जानवरों के अनुकूलन और अन्य कारकों के माध्यम से इस क्षेत्र में विभिन्न सभ्यताओं के उद्भव और अंततः इन सभ्यताओं के पतन की शुरुआत कैसे हुई, इसपर केंद्रित है।

तीसरा भाग उन भाषाओं और दर्शनों की चर्चा करता है जो प्राचीन भारत को परिभाषित करते हैं - जैसे, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, संस्कृत, इंडो-ईरानी भाषाएँ और पाली साहित्य, आदि।

चौथा भाग विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों- उत्तर, दक्षिण, पूर्वोत्तर, दक्कन, पूर्व और पश्चिम भारत के समाज और संस्कृति का विस्तृत अध्ययन है।

पाँचवाँ भाग उपनिवेशवाद के आगमन और देश की अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभाव पर प्रकाश डालता है।

छठा भाग आदिवासी आंदोलनों, अंबेडकरवादी राजनीति, गांधीवादी प्रतिरोध और अन्य घटनाओं पर प्रकाश डालता है जो स्वतंत्र गणराज्य की आधारशिला कही जा सकती है। और, अंत में, सातवां भाग समकालीन भारत पर नज़र डालता है - संविधान की कार्यप्रणाली और शहरीकरण, उदारीकरण, और आधुनिक भारतीय अनुभवों के अन्य पहलू, इस खंड का विषयवस्तु है।

कुल मिलाकर, पुस्तक के निबंध भारतीय इतिहास और समाज पर उल्लेखनीय अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। 

6 अगस्त को दिल्ली के प्रेस क्लब में इस पुस्तक के विमोचन के अवसर पर इस परियोजना की आवश्यकता और उद्देश्य के बारे में बताते हुए गणेश देवी कहते हैं कि "भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने पिछले 12000 साल के भारतीय अतीत की समीक्षा करने के लिए एक समिति का गठन किया था, और उस समिति में केवल उत्तर भारत के लोग शामिल थे- दक्षिण भारत से कोई नहीं था, पूर्वोत्तर से कोई नहीं था, एक भी महिला उसमें नहीं है, कोई ईसाई नहीं, न ही किसी मुसलमान को उसमें सम्मिलित किया गया, कोई दलित नहीं, कोई आदिवासी नहीं।  फिर तो ऐसी समिति के उद्देश्य के बारे में संदेह होना स्वाभाविक ही है कि यह एनसीईआरटी की किताबों के माध्यम से बच्चों पर क्या थोप सकती है और यह भारत की आने वाली पीढ़ियों के लिए कैसे विनाशकारी हो सकती है। भारत का बारह हज़ार साल का इतिहास कई लड़ाइयों, संघर्षों, त्रासदियों और हिंसक जूनून के कई क्षणों से भरा पड़ा है, फिर भी इसके केंद्र में हमारा सारा अतीत हमें सहिष्णु, दयालु, मानवीय, आत्म संयमित होना सिखाता है। इस ग़ैर शैक्षणिक कारण से भी पिछले 12000 साल और उससे भी पहले के भारतीय इतिहास को देखना आवश्यक था।

मैं यह नहीं कह रहा कि इतिहास के बारे में केवल मेरा ही नज़रिया सही है। मुझे एक विकल्प तैयार करने में दिलचस्पी है जो उन लोगों के लिए उपलब्ध हो जो अधिक वैज्ञानिक और अधिक तर्कसंगत इतिहास चुनना चाहते हों। इसलिए समय रहते इस तरह के कार्यों का बौद्धिक जगत द्वारा जनतांत्रिक तरीक़ेसे प्रतिकार किया जाना बेहद ज़रूरी है। नहीं तो यह बेकाबू हो जाएगा।"

गणेश देवी की शंकाएं निर्मूल नहीं हैं। जैसा कि खुद एनसीईआरटी की तरफ़ से बताया गया है कि 182 किताबों में कुल मिलाकर 1,334 बदलाव किये गए हैं। जिनमें मुग़ल कालीन और दिल्ली सल्तनत के बारे में दिए गए कई जगहों से टेक्स्ट को हटाया जाना शामिल है। इसके साथ ही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या में शामिल कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों के नाम को भी हटाया गया है। इस बदलाव या पाठ को हटाने का कारण टेक्स्ट के दुहराव और छात्रों पर से अनावश्यक बोझ को कम करना बताया गया है। इनका ये तर्क सहज ही गले से नहीं उतरता है।

जिस तरह से मौजूदा सरकार भारत की विविधता को लेकर शत्रुतापूर्ण रवैया अपनाये हुए है वो विविधता के स्थान पर एकरूपता को थोपना चाह रही है। यह किताब एक तरह से देखा जाए तो सरकार के इस क़दम का भी प्रतिकार कर रही है।

चाहे बात धार्मिक विविधता की हो या सांस्कृतिक विविधता की हो, या भाषाई विविधता की हो, या भौगोलिक विविधता की हो, इस किताब में तमाम तरह की विविधताओं से भयभीत होने के बजाए उसके प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया गया है। बल्कि इस किताब में दिए गए लेखों को पढ़ते समय पाठकों को ये एहसास होगा कि ये विविधताएँ हमारी कमज़ोरी नहीं बल्कि हमारी ताक़त हैं। विविधताएं साम्प्रदायिकता और बहुसंख्यकवाद के विस्तार और प्रसार में सबसे बड़ी बाधा हैं। यही कारण है कि ऐसी शक्तियां विविधताओं से घबराती हैं।

किताब में एक सौ लेखकों के निबंध हैं। इनमें राजमोहन गांधी के दो लेखों को शामिल किया गया है। एक "दी मॉडर्न साउथ" शीर्षक से है, और दूसरा "दी 1947 पार्टीशन ऑफ़ इंडिया" शीर्षक से है। एक लेख सूफ़ीवाद के ऊपर भी है। इसके लेखक प्रख्यात अमेरिकी इतिहासकार रिचर्ड एम ईटन हैं। शिवाजी इतिहासकारों से ज़्यादा राजनेताओं के ‘शोध’ का विषय रहे हैं। एक लेख इस विषय पर भी है, जो हमारी समझ को विकसित करने में और भ्रांतियों को दूर करने में मददगार साबित होगी। वैसे तो किताब बहुत ही अच्छी तरह से शोध करके लिखा गया है। लगभग हर एक महत्वपूर्ण विषय पर लेख इसमें है। निबंध बहुत अधिक लम्बे नहीं हैं। यह शिक्षक, विद्वान, छात्र, और शोधार्थी के अलावा आम जनता के लिए भी उपयोगी है। लेखकों में अच्छी ख़ासी संख्या युवाओं की है जो कि इस किताब की एक और ख़ूबी है। किताब वैसे तो अपने आप में पूर्ण है। सभी महत्वपूर्ण मुद्दों को छूती है। लेकिन अगर तटीय भारत पर और अधिक निबंध होते तो और अच्छा होता। इसके अलावा जलमार्गों के इतिहास पर सामग्री नहीं के बराबर है। मानव सभ्यता को स्थल मार्ग की अपेक्षा जल मार्गों ने अधिक प्रभावित किया है।

  

इतिहास को न तो हम मिटा सकते हैं, न झुठला सकते हैं और न ही ठीक कर सकते हैं। बल्कि हम इससे सबक़ ले सकते हैं। इतिहास अपने होने का ख़ुद ही साक्ष्य प्रस्तूत करता है। गणेश देवी ठीक ही कहते हैं कि- "इतिहास मुर्गे जैसा है। उसे कितना भी टोकरी में ढँक दीजिए, समय आने पर वह बाँग देगा ही। सवाल उठाएगा ही।"

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