जब कोरोना संकट से देश त्रस्त था मोदी ग़ायब थे: द इकोनॉमिस्ट
कोरोना संकट को लेकर प्रधानमंत्री मोदी के रवैये की विज्ञान की पत्रिका लांसेट के बाद अब प्रतिष्ठित 'द इकोनॉमिस्ट' ने तीखी आलोचना की है। इसने लिखा है कि जब कोरोना की दूसरी लहर से देश त्रस्त था तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ग़ायब थे। द इकोनॉमिस्ट में प्रकाशित तीखे लेख में कहा गया है कि प्रधानमंत्री को लाइमलाइट पसंद है, लेकिन तभी जब चीजें ठीक चल रही हों। इसने साफ़-साफ़ लिखा है कि जब हालात अच्छे नहीं होते हैं तो प्रधानमंत्री नहीं दिखते हैं। ऐसा ही एक लेख आउटलुक मैगज़ीन में भी हाल में छपा था जिसका शीर्षक था 'भारत सरकार लापता।' हालाँकि कई लोगों ने इस पर सवाल उठाए थे कि इस मैगज़ीन ने प्रधानमंत्री का नाम क्यों नहीं लिया।
लेकिन ऐसे लोगों की 'द इकोनॉमिस्ट' मैगज़ीन के इस लेख को लेकर ऐसी कोई शिकायत नहीं होगी क्योंकि इसमें साफ़-साफ़ प्रधानमंत्री के नाम का कई जगहों पर उल्लेख किया गया है।
द इकोनॉमिस्ट ने अपने लेख के पहले वाक्य में ही नरेंद्र मोदी का नाम लेकर लिखा है कि उनकी डाढ़ी और बाल सफेद हुए हैं और लंबे भी। इसने लिखा है, "इन बदलावों को चूकने का कोई सवाल ही नहीं है क्योंकि प्रधानमंत्री के चेहरे से बचने का कोई रास्ता नहीं था। वह टेलीविजन पर रिबन काट रहे थे, भीड़ का अभिवादन कर रहे थे और विदेशी नेताओं से मिल रहे थे; सब्सिडी वाली रसोई गैस या हिंदू पवित्र स्थलों की तीर्थयात्राओं के लिए जयजयकार करने वाले पोस्टरों पर थे; और यहाँ तक कि हाल के महीनों में टीकाकरण प्रमाणपत्रों पर 'साथ मिलकर भारत कोविड को हराएगा' शब्दों के आगे टकटकी लगाए दिखते थे।"
इसके बाद मैगज़ीन ने लिखा है कि फिर जब कोरोना से मरने वालों की संख्या बेतहाशा बढ़ने लगी तो हर जगह दिखने वाले प्रधानमंत्री ग़ायब होने लगे, हफ़्तों तक वह मुश्किल से ही कहीं दिखे होंगे। बता दें कि यह वह समय था जब देश में अस्पताल बेड, ऑक्सीजन और दवाओं की कमी होने लगी थी। श्मशानों और कब्रिस्तानों में भी जगह कम पड़ने लगी थी। फिर गंगा किनारे पानी में तैरती हज़ारों लाशों और रेतों में दफन हज़ारों लाशों की ख़बरें आ रही थीं।
लेख में 'द इकोनॉमिस्ट' ने लिखा है, "प्रधानमंत्री के नहीं दिखने में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। उथल-पुथल के अन्य क्षणों में उन्होंने इसी तरह आगे बढ़ने के बजाय पीछे हटना पसंद किया। जब 2002 में गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद मुसलिम विरोधी दंगों ने गुजरात को चपेट में लिया तो मोदी 'उच्च स्तरीय' सम्मेलनों में विलुप्त हो गए। प्रधानमंत्री के रूप में मोदी महीनों तक नहीं दिखे जब 'गोरक्षा' के नाम पर लिंचिंग भीड़ ने हिंसा की। जब 2019 में नए नागरिकता क़ानूनों के ख़िलाफ़ देशव्यापी विरोध शुरू हुआ, जब कुछ महीने बाद दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे और जब नए कृषि क़ानूनों को लेकर पिछली शरद ऋतु में फिर से बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए तो प्रधानमंत्री कहीं नहीं दिखे।"
हालाँकि पत्रिका लिखती है कि अब ज़ूम कॉल के माध्यम से अधिकारियों, पैनलों से 'बातचीत' शुरू की गई है। ताउते तूफ़ान से तबाही का जायजा लेने अपने गृह राज्य गुजरात में ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी हेलीकॉप्टर से गए।
द इकोनॉमिस्ट ने लिखा है, "वास्तव में बुरी ख़बरों से दूर रहने की प्रवृत्ति न केवल श्री मोदी का, बल्कि उनकी सरकार का भी ट्रेडमार्क बन गया है। प्रधानमंत्री ने स्वयं कभी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की है, और आम तौर पर 'सेवादार' पत्रकारों को साक्षात्कार देते हैं। उनसे कमतर मंत्री भी समय के साथ संसद में भी कम सुलभ और पूछताछ के लिए कम उत्तरदायी हो गए हैं: कोविड ने संसद सत्रों को छोटा करने और समिति की बैठकों को रद्द करने का एक बहाना दे दिया है।"
पत्रिका ने केंद्र के सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट का भी ज़िक्र किया है और लिखा है कि कई लोगों ने सरकार की इसलिए आलोचना की है कि ऐसे संकट के समय भी सरकार 2.6 बिलियन डॉलर के प्रोजेक्ट को बनाने पर अड़ी है। लेख में एक छात्र संगठन द्वारा गृह मंत्री अमित शाह के लापता होने की रिपोर्ट दर्ज कराने का ज़िक्र भी है। कोरोना टीका विदेश भेजने को लेकर लगाए गए पोस्टर का भी उल्लेख किया गया है।
बता दें कि इससे पहले मेडिकल जर्नल लांसेट ने कोरोना से निपटने के प्रधानमंत्री मोदी के प्रयासों को लेकर तीखा आलोचनात्मक संपादकीय छापा था। पत्रिका ने लिखा था कि प्रधानमंत्री मोदी की सरकार कोरोना महामारी से निपटने से ज़्यादा आलोचनाओं को दबाने में लगी हुई दिखी। पत्रिका ने साफ़ तौर पर उस मामले का ज़िक्र किया जिसमें कोरोना की स्थिति से निपटने के लिए कई लोगों ने ट्विटर पर प्रधानमंत्री मोदी की आलोचना की थी जिसे सरकार ने ट्विटर से हटवा दिया था।
पत्रिका ने लिखा था, 'कई बार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार महामारी को नियंत्रित करने की कोशिश करने की तुलना में ट्विटर पर आलोचना को हटाने के लिए अधिक इरादे प्रकट करती दिखी है।'
कुंभ मेले और पाँच राज्यों में चुनाव के दौरान प्रचार रैलियों में कोरोना प्रोटोकॉल की धज्जियाँ उड़ाए जाने का ज़िक्र किया था। पत्रिका ने लिखा था, 'सुपरस्प्रेडर घटनाओं के जोखिमों के बारे में चेतावनी के बावजूद सरकार ने धार्मिक उत्सवों को आगे बढ़ने की अनुमति दी, जिसमें देश भर के लाखों लोग शामिल हुए। इसके साथ-साथ विशाल राजनीतिक रैलियाँ हुईं जिसमें कोरोना को नियंत्रित करने के उपायों की पालना नहीं हुई।'