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तीस्ता सीतलवाड़ः नामी पूर्व जजों, वकीलों, शिक्षाविदों ने सुप्रीम कोर्ट को पत्र लिखा

तीस्ता सीतलवाड़ः नामी पूर्व जजों, वकीलों, शिक्षाविदों ने सुप्रीम कोर्ट को पत्र लिखा

तीस्ता सीतलवाड़ और पूर्व आईपीएस आर.बी. श्रीकुमार की गिरफ्तारी की निन्दा करते हुए 304 पूर्व जजों, वकीलों, शिक्षाविदों, नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं ने चीफ जस्टिस को पत्र लिखा है। जस्टिस मदन भी लोकुर ने भी आशुतोष से बात करते हुए सत्य हिन्दी के कार्यक्रम में कहा था कि इस गिरफ्तारी पर सुप्रीम कोर्ट को फौरन स्पष्टीकरण देना चाहिए। 

तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ्तारी की निन्दा करते हुए 300 से अधिक वकीलों, शिक्षाविदों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने संयुक्त रूप से देश के चीफ जस्टिस एन.वी. रमना को पत्र लिखकर सुप्रीम कोर्ट से इस मामले में स्पष्टीकरण मांगा है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस मदन बी. लोकुर ने भी इस मामले में एक लेख लिखकर भी सुप्रीम कोर्ट से स्पष्टीकरण देने को कहा था।

चीफ जस्टिस रमना इस समय विदेश में हैं, यूरोप और अमेरिका का दौरा कर रहे हैं, और इस सप्ताह के अंत तक या अगले सप्ताह किसी समय यहां वापस आने की उम्मीद है।

सुप्रीम कोर्ट ने 24 जून को गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को 2002 के दंगों पर एक विशेष जांच दल (एसआईटी) की क्लीन चिट का समर्थन किया था, जिसमें जकिया जाफरी की याचिका खारिज कर दी गई थी। जकिया जाफरी ने इस मामले में एक बड़ी साजिश का आरोप लगाया था। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने फैसला सुनाया था कि गुजरात में असंतुष्ट अधिकारियों (तत्कालीन डीजीपी आरबी श्रीकुमार, पूर्व आईपीएस संजीव भट्ट) के साथ एक्टिविस्ट तीस्ता सीतलवाड़ ने साजिश रची थी।ऐसे सभी लोगों को कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए और उन पर कार्रवाई होना चाहिए।

... अगर मैं गलत नहीं हूं, तो क्या मैं विद्वान न्यायाधीशों से तुरंत एक स्पष्टीकरण जारी करने की अपील कर सकता हूं कि यह न तो उनका सुझाव था और न ही उनका इरादा था कि तीस्ता को गिरफ्तार किया जाए? विद्वान न्यायाधीशों को भी तत्काल प्रभाव से तीस्ता की बिना शर्त रिहाई का निर्देश देना चाहिए और उसकी गिरफ्तारी और निरंतर नजरबंदी को रद्द करना चाहिए।


- जस्टिस (रिटायर्ड) मदन बी लोकुर, सत्य हिन्दी पर

इस फैसले के आने के एक दिन बाद, गुजरात पुलिस ने सामाजिक कार्यकर्ता सीतलवाड़ और पूर्व आईपीएस अधिकारी आरबी श्रीकुमार को गिरफ्तार कर लिया और कहा कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक कार्रवाई की है। तीनों ने दंगों के दौरान गुजरात सरकार की भूमिका पर सवाल उठाया था। संजीव भट्ट पहले से ही जेल में हैं।

तीस्ता सीतलवाड़ पर लगाई गईं धाराओं में से कोई भी 'आतंकवादी' अपराध नहीं है, तो उन्हें गिरफ्तार करने के लिए आतंकवाद विरोधी दस्ते को क्यों भेजा गया?


- जस्टिस (रिटायर्ड) मदन बी लोकुर, सत्य हिन्दी पर

इस पत्र में 304 हस्ताक्षरकर्ताओं ने कहा है कि सीतलवाड़ और श्रीकुमार को इसलिए जेल भेजा गया क्योंकि उन्होंने फरवरी 2002 में गुजरात में मारे गए 2,000 से अधिक लोगों के लिए अदालत का सहारा लिया था।

पत्र में कहा गया कि हम यह मानने से इनकार करते हैं कि हमारा सुप्रीम कोर्ट वास्तव में किसी प्रतिशोध को मंजूरी देने का इरादा रखता है जिसे वर्तमान सरकार ने आगे बढ़ाने के लिए चुना है। आपातकाल के दौरान भी, सुप्रीम कोर्ट ने अपील करके कानूनी प्रक्रियाओं का उपयोग करने वालों को कैद नहीं किया था।

"अदालत एडीएम कोर्ट जबलपुर में बेशक नागरिक के लिए खड़े होने में विफल रही, लेकिन अदालत ने कभी ऐसे लोगों को इसलिए दंडित नहीं किया कि उन लोगों ने अदालत में नागरिकों के लिए लड़ने का फैसला किया था। इमरजेंसी के समय में 1975-77 के दौरान पारित विवादास्पद एडीएम जबलपुर के फैसले में कहा गया था कि किसी व्यक्ति को गैरकानूनी रूप से हिरासत में नहीं रखने का अधिकार निलंबित किया जा सकता है।

पत्र में कहा गया है, हम इस बात से चिंतित हैं कि राज्य पुलिस सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आधार पर गिरफ्तारी को सही ठहराती है। हम सुप्रीम कोर्ट उन जजों से आग्रह करते हैं कि वो इस तथ्य को स्पष्ट करे कि क्या उन लोगों का ऐसा इरादा या सुझाव था कि इस मामले में तीस्ता को गिरफ्तार किया जाए। अगर नहीं था तो उन्हें खुद तीस्ता सीतलवाड़ की रिहाई का आदेश देना चाहिए। बता दें कि पत्र भेजे जान से पहले जस्टिस मदन बी लोकुर ने सत्य हिन्दी पर आशुतोष के कार्यक्रम में भी यही बात कही है।

इस पर हस्ताक्षर करने वालों में वरिष्ठ अधिवक्ता अंजना प्रकाश, के.एस. चौहान, आनंद ग्रोवर, इंदिरा जयसिंह और संजय हेगड़े, जस्टिस अमर सरन (रिटायर्ड), पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता, इतिहासकार रामचंद्र गुहा, लेखक तुषार गांधी; मानवाधिकार अधिकार कार्यकर्ता कविता कृष्णन और आरजेडी के राज्यसभा सदस्य मनोज कुमार झा समेत कई लोग हैं।

पत्र में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि 24 जून के फैसले के बाद, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अदालत की टिप्पणियों पर एक मीडिया साक्षात्कार में टिप्पणी करने का विकल्प चुना और गुजरात पुलिस ने तुरंत सीतलवाड़ और श्रीकुमार को गिरफ्तार कर लिया।

फैसले के उस पैराग्राफ का हवाला देते हुए, जिसमें "प्रक्रिया के इस तरह के दुरुपयोग में शामिल" लोगों को "कठोर कार्रवाई" की आवश्यकता की बात की गई थी, पत्र में कहा गया है कि यह कोई कानूनी नतीजा नहीं था। क्योंकि यह एक स्थापित कानून है कि कोई भी प्रतिकूल कार्रवाई किसी व्यक्ति के खिलाफ उचित नोटिस दिए जाने के बाद ही शुरू हो सकती है। लेकिन उधर कोर्ट का फैसला आया और इधर गिरफ्तारी शुरू हो गई। 

अदालत ने इस कार्रवाई में न तो किसी को झूठी गवाही का नोटिस जारी किया है और न ही अवमानना ​​का नोटिस जारी किया है। वास्तव में, अदालत ने कोई विशेष नोटिस तक जारी नहीं किया है, और न ही किसी भी प्रतिकूल परिणाम की चेतावनी दी है।

इस पूरे घटनाक्रम ने अदालत में कानून के अभ्यास और देश में कानून के शासन के लिए गलत संदेश भेजा है। ऐसा लगता है कि एक याचिकाकर्ता या एक गवाह, जो अदालतों में इंसाफ के लिए पहुंचता है, वो अपनी जिन्दगी एक जोखिम में डालता है।


-300 से अधिक पूर्व जजों, वकीलों, शिक्षाविदों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के पत्र का अंश

पत्र में कहा गया है कि अदालत ने इस कार्यवाही में न तो किसी को झूठी गवाही का नोटिस जारी किया है और न ही अवमानना ​​का नोटिस जारी किया है। वास्तव में, अदालत ने कोई विशेष नोटिस जारी ही नहीं किया है, न ही किसी भी प्रतिकूल परिणाम की चेतावनी दी है। फिर गुजरात पुलिस ने किस आधार पर गिरफ्तारी कर ली। पत्र में याद दिलाया गया है कि सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही इस मामले में एसआईटी गठित करने का आदेश दिया और एसआईटी के कामकाज की निगरानी के लिए एक एमीकस क्यूरी को भी नियुक्त किया था।

पत्र में कहा गया कि एसआईटी रिपोर्ट और एमीकस क्यूरी की रिपोर्ट आने के बाद अदालत ने वो रिपोर्ट 2013 में उस मैजिस्ट्रेट के पास भेज दी जो गुजरात दंगों के मामले को देख रहा था। उसके बाद वो रिपोर्ट अपील प्रक्रिया में भटकती रही। जकिया जाफरी लड़ती रहीं। इसके बाद 24 जून का फैसला आ गया। 25 जून को गुजरात पुलिस ने तीस्ता को गिरफ्तार कर लिया। उसके अगले दिन आरबी श्रीकुमार की गिरफ्तारी हुई। पत्र इस लाइन के साथ समाप्त होता है-

अगर इस मामले में कानून का नुकसान किया गया है तो वो इसके लिए अदालतों में बीता समय है न कि याचिकाकर्ता या उनकी मदद कर रहे लोग उसके जिम्मेदार हैं।

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