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बीजेपी की कश्मीर नीति साम्राज्यवादी हिंसा के तुष्टिकरण तक सीमित! 

बीजेपी की कश्मीर नीति साम्राज्यवादी हिंसा के तुष्टिकरण तक सीमित! 

बीजेपी की कश्मीर नीति किसके हित में है? कश्मीरी पंडितों के? मुसलमानों के? क्या वह कभी भी किसी के हित में रही? ताक़तवर दमनतंत्र के बावजूद कश्मीर में सामान्य जीवन क़ायम क्यों नहीं किया जा सका है?

‘चलिए हुकुम!’, पृथ्वीराज पर बनी फ़िल्म देखकर गृह मंत्री ने अपनी पत्नी को कहा। आम तौर पर कठोर मुख गृह मंत्री की यह विनोदपूर्ण छेड़ देखकर हिंदी के मीडियावाले निहाल हो गए। जिस समय गृह मंत्री इतिहास को हिंदू दिशा में मोड़नेवाली यह फ़िल्म देख रहे थे और उत्तर प्रदेश के सारे मंत्री और शासक दल के विधायक भी इतिहास को परास्त करनेवाली इस फ़िल्म का आनंद ले रहे थे, कश्मीर में पंडित परिवार किसी तरह अपनी जान बचाने के लिए बड़ी संख्या में पलायन कर रहे थे। इस हिंदुत्ववादी इतिहास के बंधक पंडित इस राष्ट्रवादी राजनीति के लिए अपनी बलि देने को अब और तैयार नहीं।

अनुच्छेद 370 को हटाया जाना

क्या पंडितों के पलायन का यह दृश्य हिंदी मीडिया ने दिखलाया जैसे वह पृथ्वीराज के पराक्रम का प्रचार करने में लगा है? जहाँ तक पता है, उसने हिंदी या हिंदू जनता को इस सूचना से बचा लिया है क्योंकि यह उस हिंदू शासन की अजेय वीरता के आख्यान में छेद कर देगी जो 5 अगस्त , 2019 से गाया जा रहा है जिस दिन अनुच्छेद 370 को समाप्त कर दिया गया था और जम्मू कश्मीर को तोड़कर उसका दर्जा राज्य से घटाकर केंद्र शासित प्रदेश का कर दिया गया था।

उस दिन और उसके बाद से हिंदू जनता में कश्मीर विजय के साम्राज्यवादी सुख का जो नशा रोज़ रोज़ डाला गया है, उसने उसकी चेतना हर ली है। वह यह देख पाने में असमर्थ है कि इस मूर्खतापूर्ण क़दम ने भारत के लिए एक स्थायी ख़तरा पैदा कर दिया है।

कश्मीरी मुसलमान भी हुए शिकार 

लेकिन इस पर हम कभी और बात करेंगे। अभी कश्मीरी पंडितों की त्रासदी से हमारा ध्यान नहीं हटना चाहिए। पिछले दिनों कश्मीर में लगातार पंडितों को चिह्नित करके उनकी हत्या की गई है। पंडितों के अलावा दूसरे राज्यों के हिंदुओं की भी। इनका संदेश स्पष्ट है: कश्मीर इन समुदायों के लिए नहीं है। वे यहाँ सुरक्षित नहीं हैं। यह ठीक है कि हत्या मात्र उनकी नहीं हुई है। ख़ुद कश्मीरी मुसलमान बड़ी संख्या में मारे जा रहे हैं। अगर तुलना करेंगे तो हिंसा के शिकार मुसलमानों की संख्या हिंदुओं के मुक़ाबले कम नहीं। बल्कि कहीं ज़्यादा है। फिर भी यह देखना मुश्किल नहीं कि हिंदू, जो कश्मीर में अल्पसंख्यक हैं, इस हिंसा के कारण अधिक असुरक्षित महसूस करेंगे।

दहशतगर्दी कश्मीर के लिए नई बात नहीं। लेकिन दहशतगर्दी का यह दौर और यह रूप बिलकुल नया है। यह इस हिंदुत्ववादी सरकार के इस अहंकारपूर्ण दावे के बाद शुरू हुआ कि कश्मीर को आख़िरी तौर पर फ़तह कर लिया गया है। उसे भारत में निर्णायक तौर पर मिला लिया गया है। कश्मीर अब भारतवासियों के उपभोग के लिए खोल दिया गया है। वे वहाँ ज़मीन ले सकते हैं। उद्योगपति कश्मीर के पर्यावरण के मालिक हो सकते हैं। कश्मीर के हिंदूकरण का अभियान शुरू हो गया है, यह संदेश अलग-अलग तरीक़े से हिंदीभाषी जनता को दिया जाता रहा।

यह कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि कश्मीर के साथ जो किया गया वह शेष भारत में हिंदू वोट को भारतीय जनता पार्टी के लिए सुरक्षित करने के उद्देश्य से। उसमें न तो जम्मू के हिंदुओं के हित का उद्देश्य था और न कश्मीरी पंडितों के प्रति कोई सदाशयता थी। लेकिन हिंदू जनता को समझाया गया कि कश्मीरी मुसलमानों को क़ाबू कर लिया गया है। आतंकवाद की अंतिम घड़ी आ गई है। यही नोटबंदी के वक़्त भी कहा गया था। कि इससे कश्मीर में पत्थरबाज़ी बंद हो जाएगी।

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कश्मीरी पंडितों का पलायन  

कश्मीरी पंडित इस कहानी के अनिवार्य पात्र बनाए गए। पिछली सदी के आख़िरी दशक में दहशतगर्दी की हिंसा के कारण कश्मीरी पंडित बड़ी संख्या में अपने वतन से भागने को मजबूर हुए। उस वक़्त केंद्र में बीजेपी समर्थित सरकार थी। उसकी निगरानी में यह पलायन हुआ। उस समय बीजेपी के लिए कश्मीरी पंडितों के साथ की जा रही हिंसा या उनका पलायन कितना महत्त्वपूर्ण मुद्दा था? वह मंडल आयोग की रिपोर्ट या राम जन्मभूमि जितना बड़ा मुद्दा तो नहीं ही था। बीजेपी के प्रिय जगमोहन कश्मीरी पंडितों के पलायन के वक़्त जम्मू कश्मीर के राज्यपाल थे। उनकी भूमिका क्या थी, यह सब जानते हैं।

भारतीय जनता पार्टी ने 2014 और 2019 में संसदीय चुनाव में पूर्ण बहुमत के साथ जीत हासिल करने के बाद अपने मतदाताओं को विश्वास दिलाया कि कश्मीर विजय में विलंब नहीं है। इस विजय का एक अर्थ था कश्मीरी पंडितों की वापसी।

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वह तभी सम्भव था जब कश्मीर में परस्पर विश्वास का वातावरण बनाया जाता। बीजेपी सरकार ने रास्ता कश्मीरी मुसलमानों के दमन का अपनाया। उन राजनेताओं को गिरफ़्तार करके और उन राजनीतिक दलों को निष्क्रिय करके जो कश्मीर को भारत का ही हिस्सा मानकर काम करते रहे थे, उसने कश्मीरी जनता को बतलाया कि वह किसी का लिहाज़ नहीं करती। मीडिया के मुँह पर पट्टी बाँध दी गई। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया। उसके अलावा समाज के प्रतिष्ठित लोगों को भी जेल में डाल दिया गया। ऐसे नियम बनाए गए जिनके सहारे किसी की नौकरी उसे राज्य के लिए ख़तरा बतलाकर ख़त्म की जा सकती थी। किसी को भी गिरफ़्तार किया जा सकता था। मुठभेड़ के नाम पर सैन्यबल के द्वारा की गई हत्या को जायज़ ठहराया जा सकता था।

जिस वक़्त पूरे देश में इंटरनेट के ज़रिए पढ़ाई और दूसरे कारोबार हो रहे थे, कश्मीर में इंटरनेट या तो बंद कर दिया गया था या उसकी गति इतनी धीमी कर दी गई थी कि उसपर पढ़ाई करना मुमकिन नहीं था।

इसके साथ ही कश्मीरियों को अपमानित करनेवाला अभियान भारतीय मीडिया में चलता रहा। कश्मीरी मुसलमानों को यह अहसास दिलाया गया कि वे ग़ुलाम हैं, उनकी ज़िंदगी बीजेपी सरकार के रहमोकरम पर है। इसके किसी भी प्रकार के विरोध की क़ीमत बहुत ज़्यादा है।

हम सबने कश्मीरी मुसलमानों पर इस हिंदू जीत का जश्न मनाया।

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और अब कश्मीरी पंडित कश्मीर से भाग रहे हैं क्योंकि सम्राट पृथ्वीराज की उत्तराधिकारी यह सरकार उन्हें सुरक्षा नहीं दे सकती। तो वह वही कर रही है जो उसने मुसलमानों के साथ किया है। वह उनकी कॉलोनी में बिजली के तार की दीवार बना रही है, उनकी कॉलोनी पर ताले लगा रही है ताकि वे निकल न सकें। यह हमने हाल में दिल्ली की जहाँगीर पुरी में देखा है। गलियों के फाटक पर पुलिस के ताले।

लेकिन बीजेपी समर्थक उन्हें कह सकते हैं कि पंडित चूँकि हिंदू हैं, और इसके लिए वे इस सरकार का शुक्रिया अदा करें कि इन सारी रुकावटों के बाद भी उन्हें निकलने दिया गया, उन्हें न तो गिरफ़्तार किया गया है, न मारा गया है। अगर वे मुसलमान होते तो उनका क्या हश्र होता, इसके लिए किसी कल्पना की ज़रूरत नहीं।

बावजूद हिंदी मीडिया की सारी इच्छा और कोशिश के अब यह तथ्य छिपाया नहीं जा सकता कि 2019 की कश्मीर विजय के बाद कश्मीर को लेकर जो दावे किए गए थे, वे दावे ही रह गए। बावजूद दुनिया के सबसे ताक़तवर दमनतंत्र के कश्मीर में सामान्य जीवन नहीं क़ायम किया जा सका है।

कश्मीरी पंडितों में जो समझदार हैं, वे पहले ही कह रहे थे कि जो बर्ताव कश्मीर के साथ और उसके मुसलमानों के साथ किया जा रहा है, वह किसी भी तरह कश्मीरी पंडितों के लिए शांति नहीं हासिल कर सकता। वे यह भी कह रहे थे कि बीजेपी के लिए कश्मीर एक ऐसी गाय है जो शेष भारत में उसे हिंदू वोट देती रहेगी। बीजेपी की कश्मीर नीति कभी भी किसी के हित के लिए नहीं थी, न हो सकती है। वह हिंदुओं में दबी हुई साम्राज्यवादी हिंसा को तुष्ट करने तक सीमित है। उसे यह बताने में ही उसकी उपयोगिता है कि आजतक वह जो जीत नहीं सके थे, वह उनके कदमों में है।

कश्मीर में चुनौती बहुत साफ़ थी और है। क्या भारत के साथ जीवन आकर्षक है, इस प्रश्न का उत्तर दिया जाना। इस सरकार ने कश्मीरियों की छाती पर अपना बूट रखकर कहा कि यही तुम्हारा जीवन है।

यह हिंदी के ही लेखक प्रेमचंद ने तक़रीबन सौ साल पहले कहा था कि कोई भी क़ौम अपना अपमान देर तक बर्दाश्त नहीं कर सकती। हम अपने दिल पर हाथ रखकर पूछें कि बीजेपी ने हिंदुओं के मन में कश्मीरियों को अपने अधीन करने के अलावा और क्या भाव भरा है? उसने शेष भारत के सामने पंडितों को क्यों मुसलमानों के ख़िलाफ़ खड़ा कर दिया? ऐसा करनेवाली “कश्मीर फ़ाइल्स” फ़िल्म को क्यों उसने राष्ट्रीय फ़िल्म के रूप में प्रचारित किया?

क्या इस फ़िल्म की बॉक्स ऑफ़िस पर रिकॉर्ड तोड़ सफलता ही बीजेपी सरकार की कश्मीर नीति की सफलता है? सच्चाई हम सबके सामने है। सच यही है कि जो निज़ाम नफ़रत और हिंसा पर टिका हो, वह किसी का भला नहीं कर सकता। मुसलमानों के साथ अब पंडित इस हिंसा-नीति को झेल रहे हैं। वही गति हम सबकी होनी है।

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