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तमिलनाडु में द्रविड़ पार्टियों के आगे बौने हैं बीजेपी, कांग्रेस

तमिलनाडु में द्रविड़ पार्टियों के आगे बौने हैं बीजेपी, कांग्रेस

तमिलनाडु में राष्ट्रीय पार्टियों का कोई वजूद नहीं है और बीजेपी और कांग्रेस दोनों राष्ट्रीय पार्टियों की किस्मत द्रविड़ पार्टियों पर ही टिकी हुई हैं।

बीजेपी, ख़ास तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए, दक्षिण भारत सबसे कमज़ोर कड़ी साबित हो रही है। कई कोशिशों के बावजूद बीजेपी दक्षिण के 5 में से 4 राज्यों में अपना जनाधार नहीं बढ़ा पायी है और बीजेपी की स्थिति तमिलनाडु में ज़्यादा कमज़ोर है। देश के अन्य राज्यों की तुलना में तमिलनाडु में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता काफ़ी कम है। नरेंद्र मोदी का जितना विरोध तमिलनाडु में हुआ शायद ही उतना विरोध किसी अन्य राज्य में हुआ हो। यहाँ 'नरेंद्र मोदी गो बैक' के नारे भी लगे, जनसभाओं में काले झंडे दिखाये गये, खुलेआम विरोध प्रदर्शन भी हुए। 

तमिलनाडु और पॉन्डिचेरी में कुल 40 लोकसभा सीटें हैं। सीटों के मामले में भी तमिलनाडु दक्षिण का सबसे बड़ा राज्य है। ऐसे में यहाँ कमज़ोर होना बीजेपी को काफ़ी भारी पड़ सकता है।

वैसे तो बीजेपी 'अम्मा' यानी जयललिता की पार्टी एआईएडीएमके, अंबुमणि रामदास की पीएमके, फ़िल्मस्टार विजयकांत की डीएमके के साथ मिलकर तमिलनाडु में एनडीए गठबंधन बनाने में कामयाब रही है, लेकिन उसके विरोध में यूपीए गठबंधन काफ़ी मज़बूत दिख रहा है। तमिलनाडु के यूपीए गठबंधन में कांग्रेस के साथ स्टालिन के नेतृत्व वाला डीएमके शामिल है। 

राजनीति के जानकारों का कहना है कि इस बार तमिलनाडु में एनडीए पर सत्ता विरोधी लहर की मार पड़ रही है। एक तरफ़ जहाँ राज्य में लोग एआईएडीएमके की सरकार के कामकाज से नाराज़ हैं तो वहीं केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार से भी ग़ुस्सा हैं।

'अम्मा' के निधन और उसके कुछ दिनों बाद ही शशिकला के जेल जाने की वजह से एआईएडीएमके को एक मजबूत नेतृत्व नहीं मिल पाया है। एआईएडीएमके की पहचान ही जयललिता से ही थी। कई लोगों को इस बात से भी नाराज़गी है कि मुख्यमंत्री पलानिसामी और उपमुख्यमंत्री पन्नीरसेल्वम दोनों नरेंद्र मोदी के इशारों पर ही काम कर रहे हैं। मजबूत नेतृत्व की कमी की वजह से एआईएडीएमके के कैडर के बिखरने की संभावना ज़्यादा है।

फायदे में नज़र आ रही डीएमके

डीएमके में करुणानिधि के निधन से पहले ही उनके बेटे स्टालिन ने पार्टी की कमान अपने हाथ में ले ली थी। इस वजह से उनकी अपने पार्टी के कैडर पर पकड़ मजबूत है। सत्ता विरोधी लहर का सीधा फायदा भी डीएमके को मिलता नज़र आ रहा है, क्योंकि एआईएडीएमके का मजबूत विकल्प डीएमके ही है। चूँकि डीएमके यूपीए का हिस्सा है, इसलिए कांग्रेस तमिलनाडु में बीजेपी से काफ़ी बेहतर स्थिति में नज़र आ रही है। 

बड़ी बात यह है कि बीजेपी और कांग्रेस, दोनों राष्ट्रीय दलों को क्षेत्रीय पार्टियों ने तमिलनाडु में बौना बनाया हुआ है। कांग्रेस को जहाँ 8 सीटें मिली हैं वहीं बीजेपी को सिर्फ़ 5 सीटों से संतुष्ट होना पड़ा है।

दिनाकरन, हासन बदल सकते हैं गणित

वैसे तो इस बार भी तमिलनाडु में डीएमके और एआईएडीएमके के नेतृत्व वाले गठबंधनों के बीच सीधी लड़ाई है लेकिन दो लोग ऐसे हैं जो गणित में बदलाव ला सकते हैं। पहले बड़े किरदार हैं टीवीवी दिनाकरन और दूसरे कमल हासन। दिनाकरन, शशिकला के भतीजे हैं और जयललिता के निधन के बाद उन्हें एआईएडीएमके से निकाल दिया गया था।

दिनाकरन ने अपनी ख़ुद की पार्टी बना ली है और चुनाव मैदान में हैं। दिनाकरन की पार्टी क्या एआईएडीएमके के वोट काटेगी या फिर सत्ता विरोधी वोटों में सेंधमारी करेगी, इस सवाल का जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है। ऐसा ही हाल फ़िल्म स्टार कमल हासन की पार्टी का है। उनकी पार्टी भी पहली बार चुनावी मैदान में है और उनके साथ कौन है, यह आकलन करना मुश्किल है।

ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि पिछले कई चुनावों से तमिलनाडु में लोगों का रुझान गठबंधन की तरफ़ ही रहा है और हर बार तमिलनाडु के मतदाताओं ने स्पष्ट बहुमत दिया है। पिछले लोकसभा चुनाव में, यानी 2014 में, तमिलनाडु के मतदाताओं ने 39 सीटों में से 37 सीटें जयललिता की एआईएडीएमके की झोली में डाली थीं। 2009 में मतदाताओं ने डीएमके के नेतृत्व वाले गठबंधन को 39 में से 27 सीटें दी थीं। 2004 में सभी 39 सीटों पर डीएमके के नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन की जीत हुई थी। इस बार यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या यही पैटर्न बरक़रार रहता है। 

मतदान से ठीक दो दिन पहले डीएमके की नेता कनिमोझी और विपक्ष के दूसरे बड़े नेताओं के घर पर आयकर विभाग के छापों से राजनीतिक घमासान अपने चरम पर पहुँच गया है।

विपक्षी नेता आरोप लगा रहे हैं कि हार की हताशा में ही नरेंद्र मोदी तमिलनाडु में अपने विरोधियों के मकानों पर छापेमारी करवा रहे हैं। बहरहाल, 18 अप्रैल को तमिलनाडु की सभी 39 सीटों पर मतदान होगा। तीन दशक बाद यह ऐसा पहला चुनाव है जहाँ करूणानिधि और जयललिता नहीं हैं। 

पिछले 30 सालों से तमिलनाडु में लड़ाई सीधे  करूणानिधि और जयललिता के बीच रही है। इन दो दिग्गज नेताओं के निधन के बाद अब लड़ाई इनकी विरासत को हासिल करने की है। इन दोनों नेताओं का प्रभाव कुछ इस तरह का रहा है कि इनके निधन के बाद भी तमिलनाडु में राष्ट्रीय पार्टियों का कोई वजूद नहीं है और उन्हें द्रविड़ पार्टियों पर भी निर्भर होना पड़ रहा है। बीजेपी और कांग्रेस दोनों राष्ट्रीय पार्टियों की किस्मत द्रविड़ पार्टियों पर ही टिकी हुई हैं।

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