देश भर के सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश के लिए होने वाली परीक्षा राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (नेशनल एंट्रेंस कम इलिजिबिलिटी टेस्ट यानी नीट) को लेकर विवाद जारी है। तमिलनाडु ने विधानसभा में एक विधेयक पारित कर राज्य में नीट को ख़त्म करने का फ़ैसला किया है। इस पर राष्ट्रपति की मंजूरी की ज़रूरत होगी। सरकार के मुताबिक़ नीट परीक्षा ख़त्म करना सामाजिक न्याय के लिए ज़रूरी है, क्योंकि यह अमीरों के पक्ष में है।
दरअसल, तमिलनाडु के सेलम के मेटूर (कोझियार) निवासी 19 वर्ष के छात्र एम धनुष ने नीट में ख़राब प्रदर्शन के डर से आत्महत्या कर ली। उसने 2019 में 12वीं की परीक्षा उत्तीर्ण की थी और इस साल तीसरी बार नीट की परीक्षा देने जा रहा था। इसके बाद से ही राज्य में हंगामा मचा था। विपक्षी दल अन्नाद्रमुक नीट परीक्षा को लेकर सवाल उठा रहा था। अन्नाद्रमुक नेता और तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एडप्पादी के पलानीसामी ने आरोप लगाया था कि नीट परीक्षा को लेकर द्रमुक सरकार का कोई रुख नहीं है और इस परीक्षा को लेकर छात्र व अभिभावक दोनों ही भ्रमित हैं। पलानीसामी ने छात्र की आत्महत्या के लिए भी द्रमुक सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया था। इसके बाद राज्य की स्टालिन सरकार ने नीट के ख़िलाफ़ विधानसभा में प्रस्ताव पेश किया।
तमिनलाडु सरकार ने नीट ख़त्म करने के लिए कई तर्क दिए हैं। सरकार का कहना है कि सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए इंटरमीडिएट परीक्षा के अंकों के आधार पर मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश दिया जाएगा। सरकार का कहना है कि इस परीक्षा की प्रणाली साफ़ सुथरी नहीं है, और इससे अमीर और इलीट तबक़े को लाभ मिलता है। राज्य सरकार ने विधेयक में कहा है कि संपन्न तबक़े के विद्यार्थी इस परीक्षा के माध्यम से मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश पाते हैं और वे स्नातकोत्तर की पढ़ाई करने के लिए विदेश चले जाते हैं, जिससे राज्य को नुक़सान उठाना पड़ता है। राज्य सरकार ने कहा है कि इसकी वजह से राज्य में काम करने वाले डॉक्टरों की कमी हो गई है।
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय, जिसे अब शिक्षा मंत्रालय के रूप में जाना जाता है, ने नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) का गठन किया है। एनटीए ही नीट की परीक्षा कराता है, जो 13 भाषाओं- अंग्रेज़ी, हिंदी, असमी, बंगाली, गुजराती, कन्नड़, मलयालम, मराठी, ओडिया, पंजाबी, तमिल, तेलुगु और उर्दू में होती है। नीट (यूजी) के परिणामों का इस्तेमाल एमबीबीएस, बीडीएस, बीएएमएस, बीएसएमएस, बीयूएमएस, बीएचएमएस में प्रवेश के साथ नेशनल मेडिकल कमीशन (एनएमसी) ऐक्ट, 2019 की धारा 14 के मुताबिक़ मंजूरी प्राप्त मेडिकल, डेंटल, आयुष और अन्य कॉलेजों व डीम्ड यूनिवर्सिटी में प्रवेश के लिए होता है।
इसके पहले नीट में आरक्षण कोटा को लेकर लंबा बवाल चला। राज्यों के मेडिकल कॉलेजों में 15 प्रतिशत सीटें केंद्रीय कोटे में रखी जाती हैं। केंद्र सरकार अपने मेडिकल कॉलेजों में ओबीसी, एससी, एसटी को आरक्षण देती थी, लेकिन राज्यों से ली गई 15 प्रतिशत सीटों पर ओबीसी के लिए आरक्षण का प्रावधान नहीं था। इसे लेकर तमाम विपक्षी दल आंदोलित हुए।
खासकर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन इस मसले पर ज़्यादा मुखर हुए और उन्होंने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर ओबीसी रिजर्वेशन लागू किए जाने की मांग की।
आख़िरकार केंद्र सरकार ने जुलाई, 2021 में ऑल इंडिया कोटा में ओबीसी को 27 प्रतिशत और आर्थिक रूप से कमजोर (ईडब्ल्यूएस) तबक़े के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान कर दिया। केंद्र ने कहा कि इस साल से हर साल एमबीबीएस में 1,500 ओबीसी छात्रों, पोस्ट ग्रेजुएशन में हर साल 2,500 ओबीसी छात्रों, एमबीबीएस में 550 ईडब्ल्यूएस छात्रों व पोस्टग्रेजुएशन में क़रीब 1,000 ईडब्ल्यूएस छात्रों को हर साल फ़ायदा होगा। हालाँकि उच्चतम न्यायालय ने 6 सितंबर, 2021 को इस कोटे को चुनौती देने वाली याचिका स्वीकार ली है और केंद्र सरकार को नोटिस भेजा है। इस कोटे का भविष्य अब उच्चतम न्यायालय की शरण में है।
इस समय देश में कुल 558 मेडिकल कॉलेज हैं, जिनमें से 289 मेडिकल कॉलेज सरकारी हैं, जबकि 269 मेडिकल कॉलेज प्राइवेट हैं। एमबीबीएस में पढ़ाई के लिए सरकारी मेडिकल कॉलेजों में लगातार फीस बढ़ रही है, लेकिन प्राइवेट मेडिकल कॉलेज जितनी फीस लेते हैं, वह निम्न मध्य वर्ग और इससे नीचे के लोगों की पहुँच से बाहर है। ऊँची फीस की वजह से निम्न मध्य वर्ग या इससे नीचे के परिवारों के विद्यार्थियों को निजी मेडिकल कॉलेजों में पढ़ पाने की कोई गुंज़ाइश नहीं रहती है।
अगर निजी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश पाने वाले विद्यार्थियों की गुणवत्ता देखें तो टाइम्स ऑफ़ इंडिया के एक विश्लेषण के मुताबिक़ 2018 में सरकारी मेडिकल कॉलेजों में 720 में से 448 नंबर तक पाने वाले अभ्यर्थियों का एडमिशन हुआ, जबकि प्राइवेट नियंत्रण वाले मेडिकल कॉलेजों में महज 306 अंक पाने वाले अभ्यर्थियों को भी प्रवेश मिल गया। दिलचस्प है कि सरकारी कॉलेजों में अनुसूचित जाति के उन्हीं अभ्यर्थियों को प्रवेश मिल सका था, जिन्होंने 398 अंक से ज़्यादा हासिल किए थे। यानी अगर आपके पास पैसे हैं तो अनुसूचित जाति से कम नंबर पाकर भी आप निजी कॉलेजो से डॉक्टर बन सकते हैं।
सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि सरकार की निजीकरण की नीति के कारण पिछले 10 साल में एमबीबीएस की सरकारी व प्राइवेट सीटें बराबर हो चुकी हैं।
सरकारों की इस बेईमानी के ख़िलाफ़ किसी तरफ़ से भी आवाज़ नहीं उठ रही है कि निजी मेडिकल कॉलेज में ख़राब मेरिट के विद्यार्थी एडमिशन पा रहे हैं और एक तरह से वे पैसे के दम पर एमबीबीएस की डिग्रियाँ खरीद रहे हैं। वे लोग भी प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की गुणवत्ता पर खामोशी ओढ़े हुए हैं, जिन्हें लगता है कि आरक्षण होने की वजह से परीक्षा में कम नंबर पाने वाले विद्यार्थियों का एडमिशन होता है और इससे डॉक्टरों की गुणवत्ता पर असर पड़ता है।
नीट परीक्षा के ख़िलाफ़ तमिलनाडु ने विद्रोह कर दिया है। हालाँकि इस विधेयक का भविष्य केंद्र सरकार के हाथ में है। 2017 में राज्य की अन्नाद्रमुक सरकार ने भी इस तरह का विधेयक पारित किया था, जिसे राष्ट्रपति की मंजूरी नहीं मिली। इसे देखते हुए स्टालिन सरकार के इस विधेयक का भविष्य भी अधर में नज़र आता है।
बहरहाल, तमिलनाडु सरकार ने इस विधेयक के पक्ष में तो तर्क रखे हैं, उससे एक नई बहस जन्म लेगी कि क्या केंद्रीय स्तर पर परीक्षा कराने की वजह से समाज के वंचित तबक़ों के विद्यार्थियों को नुक़सान हो रहा है? क्या इस परीक्षा से सिर्फ़ इलीट और धनाढ्य लोगों के बच्चों को फायदा हो रहा है? सरकारी मेडिकल कॉलेज ग़रीब परिवारों या कहें कि देश की 90 प्रतिशत आबादी का सहारा होते हैं। मध्य वर्ग और इससे नीचे का तबक़ा इन्हीं सरकारी मेडिकल कॉलेजों के सहारे अपने बच्चों को डॉक्टर बनाने का सपना देखता है। सरकारी मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस की सीटें अब कुल सीटों की आधी ही रह गई हैं और आधी सीटें निजी हाथों में जा चुकी हैं। अगर नीट परीक्षा से समाज के वंचित तबक़े को नुक़सान हो रहा है तो यह सिर्फ़ तमिलनाडु ही नहीं, देश के हर राज्य की समस्या है। खासकर यह वंचित तबक़ों पर बड़ा आघात और यह उनके बचे खुचे सपनों की हत्या करने वाली परीक्षा है।