तालिबान पर दुनिया भरोसा कैसे करे?
इसलामी शरीया क़ानून वैसे तो सऊदी अरब सहित दुनिया के और भी अनेक देशों में लागू है। ऐसे लगभग सभी देशों से भारत व दुनिया के अन्य देशों के बेहतर रिश्ते हैं। यहाँ तक कि उनसे व्यावसायिक रिश्ते भी हैं। उन देशों के धर्म व शरीया क़ानूनों की स्वीकार्यता के चलते दुनिया ऐसे किसी देश पर न तो कोई आपत्ति जताती है और न ही उनके आपसी संबंधों पर कोई फ़र्क़ पड़ता है।
परन्तु तालिबान, उनकी तर्ज़-ए-सियासत, उनके द्वारा इसलामी शरीया क़ानूनों का हिमायती बनने का ढोंग और शरीया के ही नाम पर दर्शाई जा रही क्रूरता, इसलाम के नाम पर दुनिया के मुसलिम देशों से समर्थन जुटाए जाने के लिये अपनाया जाने वाला दोहरापन, अफ़ग़ानिस्तान में ही महिलाओं सहित एक बड़े शांतिप्रिय व प्रगतिशील वर्ग द्वारा किया जा रहा उनका विरोध और यहाँ तक कि स्वयं कट्टरपंथी तालिबानी सर्वोच्च नेताओं के मध्य सत्ता की खींच तान को लेकर काबुल के राष्ट्रपति भवन में कथित तौर पर हुई मार-पीट तथा उनसे सहमति न रखने वालों, महिलाओं व पत्रकारों पर ढाए जाने वाले ज़ुल्म इस बात के पुख़्ता सुबूत हैं कि उपद्रवी, अतिवादी, पूर्वाग्रही तथा कट्टरपंथी सोच रखने वाले ये लोग कम से कम अफ़ग़ानिस्तान पर शासन करने योग्य तो हरगिज़ नहीं हैं।
तालिबान द्वारा विगत 15 अगस्त को दहशत फैलाकर व हथियारों के बल पर काबुल के सत्ता केंद्र पर क़ब्ज़ा जमाया गया और उनकी दहशत के चलते ही किसी बड़ी अनहोनी को टालने की ग़रज़ से राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी को आनन फ़ानन में देश छोड़कर भागना भी पड़ा। राष्ट्रपति ग़नी के अनुसार यदि वह देश छोड़कर न भागते तो ख़ूनी हिंसा हो सकती थी। इसी को टालने के लिये वह काबुल छोड़ कर भाग निकले। ज़ाहिर है जिस संभावित ख़ूनी हिंसा का वह ज़िक्र कर रहे थे उसकी पूरी संभावना तालिबानी लड़ाकों की तरफ़ से ही थी।
कोई भी सभ्य समाज इसे न तो सत्ता परिवर्तन मान सकता है और न ही इसे जनभागीदारी की सरकार कहा जा सकता है। ख़ासकर तब जबकि दुनिया के 'मोस्ट वांटेड' आतंकी सत्ता पर क़ाबिज़ हों। हालाँकि तालिबान द्वारा इसे आज़ादी के तौर पर पेश किया जा रहा है। जबकि इसमें आज़ादी जैसा कोई मसला था ही नहीं।
फ़रवरी 2020 में अफ़ग़ानिस्तान में हुए चुनावों में राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी लगभग 51 प्रतिशत मत प्राप्त कर अफ़ग़ानी जनता द्वारा दूसरी बार राष्ट्रपति चुने गए थे। यानी वहाँ अफ़ग़ानी जनता द्वारा निर्वाचित सरकार ही कार्यरत थी और उसी की देखरेख में अफ़ग़ानिस्तान में अनेक विकास परियोजनायें चल रही थीं। रहा सवाल अमेरिकी फ़ौजों की अफ़ग़ानिस्तान से वापसी का तो इसमें भी तालिबान की सशस्त्र मुहिम की कोई भूमिका नहीं थी।
क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने सत्ता में आते ही स्वयं 31 अगस्त 2021 तक सभी अमेरिकी सैनिकों के अफ़ग़ानिस्तान छोड़ देने की समय सीमा निर्धारित कर दी थी, लिहाज़ा तालिबान द्वारा 'आज़ादी' हासिल करने जैसा प्रोपेगंडा करना दुनिया की आँखों में धूल झोंकने जैसा ही है।
तालिबानी नेता यह भी भली भांति जानते हैं कि यदि वे चुनाव के रास्ते से अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता हासिल करना चाहें तो यह उनके लिए टेढ़ी खीर साबित होगी। क्योंकि वहाँ की शांतिप्रिय आम जनता ख़ासकर उदारवादी वर्ग व महिलायें तालिबान के वहशीपन तथा धर्म के नाम पर अपनाई जाने वाली अधर्मिता, उनके क्रूर बर्ताव तथा संकीर्ण मानसिकता से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं।
अफ़ग़ानिस्तान से आने वाली तसवीरों में जिस तरह महंगे से महंगे व अति आधुनिक हथियारों से लैस तालिबानी लड़ाके राष्ट्रपति भवन से लेकर वहाँ की सड़कों तक जिस अंदाज़ में घूमते दिखाई देते हैं उसे देखकर तो यह समझना ही मुश्किल है कि कौन तालिबानी लड़ाका है और कौन सुरक्षाकर्मी। ज़ाहिर है इस तरह की तसवीर किसी अराजक व असभ्य देश की ही हो सकती है। एक मशहूर कहावत है 'लुच्चे सबसे ऊँचे' इसी कहावत के तहत आज हाथों में हथियार धारण कर तथा शरीया क़ानून लागू करने का भय फैलाकर तालिबान ने दुनिया को यह दिखने का प्रयास किया है कि वे ही देश की आवाज़ हैं और पूरा देश उनके साथ है। परन्तु दरअसल अफ़ग़ानिस्तान में दिखाई देने वाला तालिबानी वर्चस्व महज़ एक धोखा और छलावा के सिवा और कुछ भी नहीं।
सही मायने में अफ़ग़ानिस्तान में दिखाई दे रहे घटनाक्रम का न तो इसलाम से कोई वास्ता है और न ही इसमें दुनिया के मुसलमानों के हितों जैसी कोई बात है। यह शुद्ध रूप से सत्ता व साम्राज्यवाद का खेल है।
यह खेल चंद कट्टरपंथियों द्वारा अफ़ग़ानिस्तान के जाहिल व बेरोज़गार लोगों को 'धर्म की अफ़ीम' खिलाकर धर्म और शरीया के नाम पर खेला जा रहा है। इसलाम की उत्पति के समय से ही ऐसी शक्तियाँ सक्रिय हो चुकी थीं जो धर्म और सत्ता का घालमेल कर आम लोगों को धोखे में रखकर मुफ़्त में स्वयं सत्ता का भरपूर आनंद लेती रही हैं।
इसी सोच के तमाम आक्रांता भी थे जिनके मुंह पर तो इसलाम और मुसलमान होता था मगर उनके कृत्य ग़ैर इसलामी तो क्या बल्कि ग़ैर इंसानी हुआ करते थे। जिस तरह दुनिया में उन अनेक लुटेरे आक्रांताओं ने इसलाम का नाम बदनाम किया है। ठीक उसी तरह यह तालिबानी भी अपनी क्रूरता का परिचय देकर पूरी दुनिया में इसलाम और मुसलमानों को बदनाम व रुस्वा कर रहे हैं।
दुनिया के मुसलमानों से कथित तालिबानी प्रेम इनकी चीन नीति से भी स्पष्ट है जिसके अंतर्गत चीन के वीगर मुसलमानों के साथ बड़े पैमाने पर होने वाली ज़्यादतियों के बावजूद इन्होंने उस मसले पर ख़ामोश रहने का निर्णय लिया है। पाकिस्तान द्वारा तालिबानों को कथित तौर पर दिया जाने वाला नैतिक व सामरिक समर्थन भी 'हम तो डूबे हैं सनम तुमको भी ले डूबेंगे' नीति पर आधारित लगता है।
पाकिस्तान से लेकर अफ़ग़ानिस्तान तक बच्चे बच्चे को यह पता चल चुका है कि तालिबान की वापसी में पाकिस्तान की अहम भूमिका है। जबकि इससे पहले अफ़ग़ानिस्तान के विकास में तथा उसे पुनः खड़ा करने में भारत जो भूमिका अदा कर रहा था, उसे पाकिस्तान पचा नहीं पा रहा था।
कुल मिलाकर अफ़ग़ानिस्तान की मौजूदा राजनैतिक स्थिति में जबकि सत्ता क्रूर व अपराधी मानसिकता के लोगों के हाथों में हो और स्वयं अफ़ग़ानी नागरिकों को ही तालिबान पर भरोसा न हो तो दुनिया आख़िर इनपर कैसे भरोसा करे?