अमेरिका को तो ‘हरा’ दिया, इन संकटों से कैसे जीतेंगे तालिबान?
अमेरिकी फौजें अफ़ग़ानिस्तान से लौटीं तो तालिबान ने अपनी जीत की घोषणा की, लेकिन क्या इसके बाद तालिबान की मुश्किलें अब कम हो गई हैं? तालिबान ने जितनी आसानी से अफ़ग़ानिस्तान पर कब्जा कर लिया क्या वे उसे उतनी ही आसानी से चला भी पाएँगे? वे सरकार चलाने के लिए पैसे कहां से लाएँगे? करोड़ों अफ़ग़ानों के सामने भूख का संकट आने वाला है। अफ़ग़ानों के विरोध को वे कैसे झेलेंगे? कट्टर और दकियानूसी सोच वाले तालिबान दुनिया के सामने उदार छवि कैसे पेश कर पाएँगे?
क्या तालिबान ऐसी चुनौतियों का सामना कर पाएँगे जिनसे निपटने में उनका कुछ भी अनुभव नहीं है? विशेषज्ञता की तो बात ही दूर। तालिबान आधिकारिक तौर पर अब सत्ता में है। उसके सामने बड़ी-बड़ी चुनौतियाँ हैं। सबसे पहले तो तालिबान के अस्तित्व को ही चुनौती मिल रही है। तालिबान के प्रति हर रोज़ लोगों की नाराज़गी बढ़ती जा रही है। पंजशिर घाटी में उस विरोध की झलक तालिबान को मिल चुकी है। तालिबान के पहले के रवैये को देखते हुए भी लोगों में अविश्वास है।
तालिबान के कब्जे के बाद देश में फैली अव्यवस्था के बीच बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारी दफ़्तर नहीं जा रहे हैं। ऐसी समस्याएँ तात्कालिक तौर पर बिजली जैसी बुनियादी सेवाओं में देखने को मिल रही हैं। ये सेवाएँ ख़तरे में हैं क्योंकि कई कर्मचारी काम पर नहीं लौटे हैं। उनको सैलरी मिलने का ठिकाना भी नहीं है। जाहिर है तालिबान के पास पैसे नहीं होंगे। अमेरिका ने अफ़ग़ान सरकार के 9.5 बिलियन डॉलर रिजर्व को फ्रीज कर दिया है। फ्रीज किये जाने का मतलब है कि उस फंड को अब अगले आदेश तक न तो निकाला जा सकता है और न ही कहीं निवेश किया जा सकता है। अमेरिका ने ऐसा इसलिए किया है कि उस पैसे तक तालिबान नहीं पहुँच पाए। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी अफ़ग़ानिस्तान को आपातकालीन निधि तक पहुँचने से रोक दिया है।
राजनीतिक उथल-पुथल से गुजर रहे अफ़ग़ानिस्तान में आर्थिक स्थिति बेकाबू है। करोड़ों अफ़ग़ानों के सामने भूखे रहने जैसा मानवीय संकट है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने मंगलवार को ही एक बयान में कहा है कि आज अफ़ग़ानिस्तान की लगभग आधी आबादी - 18 मिलियन यानी 1.8 करोड़ लोगों को जीवित रहने के लिए मानवीय सहायता की ज़रूरत है।
गुटेरेस ने कहा, 'तीन में से एक अफ़ग़ान को नहीं पता कि उनका अगला भोजन कहाँ से आएगा। अगले साल 5 वर्ष से कम आयु के सभी बच्चों में से आधे से अधिक के गंभीर रूप से कुपोषित होने की आशंका है। लोग हर दिन बुनियादी चीजों और सेवाओं तक पहुँच खो रहे हैं।'
अफ़ग़ानिस्तान में भूख का संकट इतना बड़ा और इतना निकट होने वाला है कि इसपर तत्काल क़दम उठाए जाने की ज़रूरत है।
अफ़ग़ानिस्तान के लिए संयुक्त राष्ट्र के मानवीय समन्वयक रमिज़ अलकबरोव ने कहा कि सितंबर के अंत में खाद्य भंडार समाप्त होने की आशंका है। स्थितियाँ जल्द ही बहुत ख़राब हो जाएँगी। उन्होंने कहा, 'क़ीमतें आसमान पर हैं। कोई वेतन नहीं है। किसी भी समय, लाखों लोग हताशा में पहुँच जाएँगे। काबुल में हम एक शहरी मानवीय तबाही के कगार पर हो सकते हैं।'
अफ़ग़ानिस्तान में जिस तरह के हालात बन रहे हैं उसका कुछ हद तक अंदाज़ा तो तालिबान को भी पहले से रहा होगा। तभी उसने अफ़ग़ानिस्तान को लेकर जबसे अमेरिका के साथ वार्ता की है तभी से वह दुनिया के सामने उदार छवि पेश करने की कोशिश कर रहा है। लेकिन सवाल है कि तालिबान के लिए उदार छवि पेश करना क्या एक बड़ी चुनौती से कम होगा? ऐसा इसलिए कि तालिबान का अस्तित्व ही कट्टरता व दकियानूसी सोच पर टिका है, वह महिलाओं की आज़ादी का पक्षधर नहीं है। यदि वह इस तरह का बदलाव करेगा तो संभव है कि उसे अंदरुनी तौर पर ही विरोध का सामना करना पड़े।
तालिबान के साथ एक दिक्कत यह भी है कि अफ़ग़ानिस्तान में कई लोग 1990 के दशक में इसके शासन को याद करते हैं। इसने महिलाओं को शिक्षा जैसे बुनियादी अधिकारों से वंचित कर दिया था और कोड़े मारने व सामूहिक फांसी जैसे दंड को प्रोत्साहित किया था।
हालाँकि तालिबान ने 15 अगस्त को काबुल पर कब्जे के बाद यह घोषणा की थी कि वह अफ़ग़ान लोगों की स्वतंत्रता का समर्थक है और महिलाओं को भी पूरी आज़ादी देगा, उसके व्यवहार के शुरुआती संकेत उत्साहजनक नहीं लगते। 15 अगस्त को काबुल पर कब्जा करने के बाद से ही उन्होंने विरोधों पर नकेल कसी है, समाचार मीडिया को हिंसक रूप से दबाया है और विरोधियों को कुचला है।
और यह भी कि जब वे महिलाओं के अधिकारों का सम्मान करने का वचन दे रहे थे, उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं को चेतावनी दी कि उनके लिए घर पर रहना सबसे सुरक्षित होगा। ऐसी ख़बरें भी लगातार आती रही हैं कि तालिबान लड़ाके उनसे दुर्व्यवहार करते रहे हैं।
तालिबान की इन सभी समस्याओं का समाधान तो उदार छवि पेश करना ही होगा। उसके सामने अभी तो सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह ऐसी सरकार बनाए जिसे अफ़ग़ान तो मानें ही, विदेशी सरकारें भी पहचानें। लेकिन क्या यह इतना आसान है? क्या सिर्फ़ पाकिस्तान, चीन, ईरान जैसे देशों के बूते तालिबान यह सब कर सकता है। ऐसा लगता तो नहीं है। तालिबान भी यह जानता है कि इन देशों से मान्यता भी मिल जाए तो उसकी नैया पार नहीं लगने वाली। भारत से बातचीत करने के लिए तालिबान की ओर से बार-बार संकेत यह बताता है कि उसे भारत का साथ चाहिए और अंतरराष्ट्रीय सहयोग भी।
तालिबान को पता है कि भारत और इसकी साख उसे अंतरराष्ट्रीय सहयोग दिलाने में मदद कर सकते हैं। पाकिस्तान और चीन ऐसे सहयोग नहीं दिला सकते। ऐसा इसलिए कि भारत पश्चिमी देशों को विश्वास में ले सकता है। लेकिन यह तालिबान पर भी निर्भर करता है कि वह इन चुनौतियों से निपटने को कितना तत्पर रहता है। इसी से यह भी तय होगा कि तालिबान दुनिया को अधिक समावेशी दृष्टिकोण के साथ जोड़ेंगे या फिर वे बीते दिनों की राह पर लौट आएंगे?