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चीन से दोस्ती खोलती है तालिबान की असली पोल!

चीन से दोस्ती खोलती है तालिबान की असली पोल!

तालिबान ने जब अफ़ग़ानिस्तान पर कब्जा जमाया तो उसको समर्थन व मान्यता देने की सबसे पहले बात कहने वालों में से चीन भी एक था। अब तालिबान ने चीन से दोस्ती का इजहार कर तालिबान ने अपना असली चेहरा दिखा दिया है।  चीन खनिज संपदा के बदले निवेश करने की बातें कर रहा है। इसीलिए इसलाम की सबसे ख़ालिस हुकूमत को इसलाम का सबसे बड़ा दुश्मन भी सबसे बड़ा दोस्त नज़र आने लगा है। क्योंकि यदि इतिहास के पन्ने पलटें तो मजहबों, ख़ासकर इसलाम का सोवियत रूस और माओवादी चीन की कम्युनिस्ट हुकूमतों से बड़ा दुश्मन न आज तक हुआ है और न शायद होगा।

अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान सरकार की बातें सुनकर अंदाज़ा होता है कि राजनीति में पाखंड का बोलबाला किस कदर हो चला है। दुनिया की सबसे ख़ालिस शरीयत पर चलने वाली इसलामी अमीरी का दम भरने वाले तालिबान के प्रवक्ता ज़बीउल्लाह मुजाहिद ने चीन को अपना “सबसे अहम साथी बताते हुए कहा कि चीन की दोस्ती हमारे लिए एक बुनियादी और असाधारण अवसर की तरह है।”

यह बात कहते वक़्त दुनिया की सबसे ख़ालिस इसलामी अमीरी को चीनी सरकार के वे ज़ुल्म क़तई नज़र नहीं आए जो सिनजियांग के वीगर मुलसमानों को झेलने पड़ रहे हैं। चीन ने लाखों वीगर मुसलमानों को सुधारघरों में क़ैद कर रखा है। उन पर चौबीसों घंटे निगाह रखी जाती है। मजहबी पहनावे और रहन-सहन को बदलने के लिए मजबूर किया जा रहा है। सांस्कृतिक सफ़ाया चल रहा है और लोगों की नसबंदी भी की जा रही है।

इससे साफ़ ज़ाहिर है कि मजहबी जिहाद का असली मक़सद सत्ता हासिल करना है। ग्यारह सितंबर के हमले का असली मक़सद अमेरिका को खाड़ी और अरब जगत की उन बनावटी इसलामी तानाशाहियों की हिमायत करने की सज़ा देना था जिन्हें हटा कर वे मजहबी तानाशाहियाँ क़ायम करना चाहते थे। उनका मानना था कि इरान को छोड़कर बाक़ी के अर्ध लोकतांत्रिक और तानाशाही इसलामी देशों की हुकूमतें शरीयत पर चलने वाली ख़ालिस इसलामी हुकूमतें नहीं हैं।

जैसे ईरान में शाह की हुकूमत को हटा कर अयतोल्लाह ख़ुमैनी ने शिया तानाशाही कायम की वैसे ही ओसामा और उनके जिहादी आतंकी सऊदी अरब, मिस्र, जोर्डन, इराक, सीरिया और अफ़ग़ानिस्तान जैसे इसलामी देशों में ख़ालिस सुन्नी तानाशाहियाँ कायम करना चाहते थे। बाद में यही मुहिम पाकिस्तान, इंडोनेशिया, मलेशिया, तुर्की और भारत जैसे देशों में भी चलाई जाती।

यानी फ़िलहाल की लड़ाई इसलाम और पश्चिम की संस्कृतियों की लड़ाई नहीं थी बल्कि इसलाम के भीतर ही बिगड़े या भटके हुए और ख़ालिस इसलामियों के बीच सत्ता की लड़ाई थी।

यह लड़ाई जीत लेने के बाद उनके निशाने पर भारत, इस्राइल और रूस जैसे बड़ी इसलामी आबादी वाले देश और अंत में पश्चिम के ईसाई देश भी आने वाले थे।

ख़ालिस इसलामी अमीरी क़ायम करने की इस लड़ाई के लिए पैसा तेल के पैसे से अमीर बने सऊदी अरब, कुवैत और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों से आ रहा था। ग्यारह सितंबर के हमलों ने इन देशों की आँखें खोलीं और उन्हें समझ आ गया कि जिस पैसे, मदरसों और कट्टर मौलवियों का निर्यात वे कर रहे हैं उनका इस्तेमाल कर उन्हीं के तख़्ते पलटने की तैयारी हो चुकी है।

इसलिए अब तालिबान की ख़ालिस इसलामी हुकूमत को चीन इतना बड़ा दोस्त नज़र आ रहा है। क्योंकि अब सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात अपने ही तख़्ते पलटवाने के लिए पैसा देने को तैयार नहीं हैं। चीन ने अभी पैसा दिया नहीं है। लेकिन उम्मीद पर दुनिया क़ायम है। 

 - Satya Hindi

चीन खनिज संपदा के बदले निवेश करने की बातें कर रहा है। इसीलिए इसलाम की सबसे ख़ालिस हुकूमत को इसलाम का सबसे बड़ा दुश्मन भी सबसे बड़ा दोस्त नज़र आने लगा है। क्योंकि यदि इतिहास के पन्ने पलटें तो मजहबों, ख़ासकर इसलाम का सोवियत रूस और माओवादी चीन की कम्युनिस्ट हुकूमतों से बड़ा दुश्मन न आज तक हुआ है और न शायद होगा।

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