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अफ़ग़ानिस्तान: भारत के हाथ से फिसल रहा शांति बहाल करने का मौक़ा 

अफ़ग़ानिस्तान: भारत के हाथ से फिसल रहा शांति बहाल करने का मौक़ा 

जैसी की आशंका थी, अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है लेकिन दुनिया के शक्तिशाली देश हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। यदि शांति-सेना का प्रस्ताव पारित हो जाता तो वह किसी के भी विरुद्ध नहीं होता। अफ़ग़ानिस्तान का खून-खराबा रुक जाता और साल भर बाद चुनाव हो जाता लेकिन अभी तो एक के बाद एक प्रांतों की राजधानियों पर तालिबान का कब्जा बढ़ता जा रहा है। 

जैसी की आशंका थी, अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है लेकिन दुनिया के शक्तिशाली देश हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। वे अपने-अपने देश और संयुक्त राष्ट्र संघ में बैठकर जमकर जबानी जमा-खर्च कर रहे हैं। मैं पिछले कई हफ्तों से लिख रहा हूँ कि सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता संभालते ही भारत को अफ़ग़ानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र संघ की शांति-सेना भिजवाने का प्रयत्न करना चाहिए। 

यह संतोष का विषय है कि भारतीय प्रतिनिधि ने पहले ही दिन अफ़ग़ानिस्तान को सुरक्षा परिषद में चर्चा का विषय बना दिया लेकिन हुआ क्या? कुछ भी नहीं। इस अंतरराष्ट्रीय संगठन ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया। 

जो भी प्रतिनिधि इस 15 सदस्यों वाले संगठन में बोले, उन्होंने हमेशा की तरह घिसे-पिटे बयान दे दिए और छुट्टी पाई। सबके बयानों का सार यही था कि वे अफ़ग़ानिस्तान में चल रही हिंसा और खून-खराबे की भर्त्सना करते हैं और डंडे के जोर पर सत्ता-परिवर्तन के खिलाफ हैं। 

कुछेक वक्ताओं ने यह भी कहा कि तालिबान की सरकार को वे मान्यता नहीं देंगे। यह उन्होंने ठीक कहा लेकिन काबुल में तालिबान की सरकार 20 साल पहले भी चलती रही थी और उसे किसी भी लोकतांत्रिक सरकार की मान्यता की ज़रूरत नहीं थी। 

अमेरिका में तालिबान के अनौपचारिक राजदूत अब्दुल हकीम मुजाहिद 1999 में न सिर्फ न्यूयार्क में मुझसे गुपचुप मिला करते थे बल्कि अमेरिकी विदेश मंत्रालय के अधिकारियों के साथ भी लंबी-लंबी बैठकें नियमित रूप से किया करते थे। सभी महाशक्तियों ने तालिबान के साथ गुपचुप संबंध बना रखे थे। 

भारत के अलावा अफ़ग़ान मामलों से संबंधित सभी राष्ट्रों ने आजकल तालिबान से खुले-आम संबंध बना रखे हैं। काबुल पर कब्जा करने के बाद उन्हें औपचारिक मान्यता मिलने में देर नहीं लगेगी। 

भारत ने सुरक्षा परिषद का यह अपूर्व अवसर अपने हाथ से फिसल जाने दिया है। इसकी जिम्मेदारी दिल्ली में बैठे हमारे नादान नेताओं पर है, जिन्होंने विदेश नीति को चलाने का ठेका अफसरों को देकर छुट्टी पा ली है। यदि शांति-सेना का प्रस्ताव पारित हो जाता तो वह किसी के भी विरुद्ध नहीं होता।

अफ़ग़ानिस्तान का खून-खराबा रुक जाता और साल भर बाद चुनाव हो जाता लेकिन अभी तो एक के बाद एक प्रांतों की राजधानियों पर तालिबान का कब्जा बढ़ता जा रहा है और हवाई हमलों में सैकड़ों तालिबान मारे जा रहे हैं। हजारों लोग वीजा के साथ और उसके बिना भी अफ़ग़ानिस्तान से पलायन कर रहे हैं।

पाकिस्तान की दोहरी नीति 

क़तर की राजधानी में चल रही तालिबान और डाॅ. अब्दुल्ला की बातचीत भी अधर में लटक गई है। क़तर के विशेष राजदूत भारत आए हुए हैं। पाकिस्तान की दोहरी नीति जारी है। एक तरफ वह खून-खराबे की भर्त्सना कर रहा है और दूसरी तरफ तालिबान लड़ाकों की भरपूर मदद कर रहा है। अफ़ग़ानिस्तान में शांति स्थापित करने का यह सुनहरा मौका भारत के हाथ से निकला जा रहा है।

(लेखक, अफ़ग़ान मामलों के विशेषज्ञ हैं)

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