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कोरोना: तब्लीग़ी जमात के बहाने मुसलिमों के दानवीकरण में जुटा मीडिया

कोरोना: तब्लीग़ी जमात के बहाने मुसलिमों के दानवीकरण में जुटा मीडिया

कोरोना जैसी महामारी के समय भी मीडिया के एक वर्ग ने मुसलिम समुदाय को निशाना बनाने की भरपूर कोशिश की और सांप्रदायिक माहौल बनाने में कसर नहीं छोड़ी। 

तब्लीग़ी जमात का इतिहास भले ही अच्छा रहा हो लेकिन हालिया प्रकरण से उसकी छवि खराब हुई है। खुद मुसलिम समुदाय द्वारा तब्लीग़ी जमात के दिल्ली मरकज़ की आलोचना की गई। मौलाना साद के कथित ऑडियो के आधार पर सभी लोगों ने उसे कठघरे में खड़ा किया। लोगों ने माना कि मौलाना साद ने मज़हब के नाम पर जहालियत को परोसा।  

नाकामी छिपाने की कोशिश 

यहां पर एक बड़ा सवाल उठता है कि लॉकडाउन के समय कोई प्रशासनिक कदम क्यों नहीं उठाया गया सवाल यह है कि क्या प्रशासन ने जानबूझकर जमात के कार्यक्रम की अनदेखी की क्या सरकार कोरोना संकट से निपटने में अपनी नाकामी को मरकज़ के पीछे छिपाना चाहती है अगर नाकामी छिपाना ही मकसद है तो केवल मरकज़ का ही सहारा क्यों म.प्र. में बीजेपी सरकार के शपथ लेने से लेकर योगी आदित्यनाथ द्वारा राम मंदिर के उद्घाटन को तो टाला ही जा सकता था। 

रामनवमी पर तमाम जगह जुलूस भी निकाले गए। आखिर इन जुलूसों या दूसरे आयोजनों पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई श्रद्धालु तो गुरुद्वारों में भी फंसे थे। हरिद्वार से अठारह सौ गुजराती लोगों को कथित तौर पर अमित शाह और विजय रूपाणी के निर्देश पर लग्जरी बसों द्वारा उनके गन्तव्य पर पहुँचाया गया। फिर निशाने पर केवल तब्लीग़ी जमात के लोग ही क्यों

ऐसे में यह सवाल पूछा जा सकता है कि ऐसा आख्यान क्यों गढ़ा जा रहा है कि भारत में कोरोना संकट का कारण तब्लीग़ी जमात है। इसके माध्यम से पूरे मुसलिम समुदाय का दानवीकरण क्यों किया जा रहा है।

सांप्रदायिकता फैलाने का काम जारी 

गोदी मीडिया, सोशल मीडिया और बीजेपी की आईटी सेल द्वारा तमाम पुराने और दूसरे स्थानों के वीडियो परोसे जा रहे हैं जिससे मुसलमानों की आपराधिक छवि गढ़ी जा सके। इसमें उन्हें कामयाबी भी मिली है। बहुसंख्यक समुदाय के एक तबके को ऐसा लगने लगा है कि कोरोना का असली कारण अल्पसंख्यक तबक़ा ही है। यानी फिर सांप्रदायिकता फैलायी गयी। 

धार्मिक राष्ट्रवाद का विकास 

हिंदू-मुसलिम अलगाव और सांप्रदायिकता का मूल कारण इतिहास में है। हिंदू-मुसलिम पहचानों के आधार पर राजनीति की शुरुआत औपनिवेशिक भारत में हुई। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ विकसित भारतीय राष्ट्रवाद के बरक्स 'स्थानापन्न' धार्मिक राष्ट्रवाद का भी विकास हुआ। 

हिंदू महासभा और मुसलिम लीग के सांप्रदायिक उन्माद के कारण न सिर्फ देश का विभाजन हुआ बल्कि लाखों लोगों का कत्लेआम भी हुआ और करोड़ों लोग बेघर हुए।

विभाजन की त्रासदी भारत के इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी साबित हुई। इसीलिए आज़ाद भारत के राष्ट्र निर्माण में धार्मिक हस्तक्षेप को स्वीकार नहीं किया गया। लेकिन हिंदुत्ववादी ताकतें घात लगाए बैठी थीं। हालांकि एक उग्रपंथी हिंदू नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गाँधी की हत्या ने इन ताकतों और विचारों को कुछ समय के लिए नेपथ्य में पहुँचा दिया। 

दंगों से बीजेपी को फायदा!

प्रसिद्ध समाजशास्त्री आशीष नंदी का कहना है कि गाँधी की मृत्यु इच्छामृत्यु थी। सांप्रदायिकता के जहर को गाँधी ने पी लिया। लेकिन एक दशक बाद ये ताकतें फिर से मजबूत हो गयीं। दंगों का सिलसिला शुरू हो गया। मशहूर समाजशास्त्री पाल ब्रास ने इन दंगों का शोध अध्ययन किया है। उनका निष्कर्ष है कि दंगों से दक्षिणपंथी दल बीजेपी को सीधा फायदा मिलता है। 

समाजशास्त्री एस.हारमैन अपनी किताब 'प्लाइट ऑफ़ मुसलिम इन इंडिया' में लिखते हैं कि सदियों पहले धर्म परिवर्तन कर इसलाम स्वीकार करने वालों और उनकी औलादों को अब तक उच्च हिंदुओं ने माफ नहीं किया है। वही गुस्सा बीच-बीच में मुसलमानों के ख़िलाफ़ फूट पड़ता है। तब यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि इतने लंबे समय तक गुस्से या नफरत के बने रहने का कारण क्या है क्या हिंदू और मुसलमान अपनी अस्मिताओं के साथ सद्भावपूर्वक नहीं रह सकते हैं 

देखा तो यह गया है कि हिंदुत्ववादियों ने इसलाम की वैचारिक या तार्किक आलोचना नहीं की। ऐसा लगता है कि हिंदुत्ववादियों का गुस्सा उन मुसलमानों के प्रति है, जिन्होंने अपना धर्म परिवर्तन किया है।

धर्म परिवर्तित अधिकांश मुसलिम मध्यकालीन हिंदू सामाजिक व्यवस्था के दबे-कुचले तबके के थे, जो ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था में प्रताड़ित और शोषित महसूस करते थे। इसलाम ग्रहण करते ही इसलामी हुकूमत में उनका दर्जा थोड़ा मजबूत हो गया था। 

प्रसिद्ध मार्क्सवादी इतिहासकार रोमिला थापर अपनी किताब 'भारत का इतिहास' में लिखती हैं, ‘‘सोलहवीं शताब्दी तक रहन-सहन का ऐसा ढांचा विकसित हो चुका था जिसमें पर्याप्त आत्मसातीकरण संभव हो सका। फिर भी उच्चवर्गों में कुछ क्षोभ शेष था। अपने दैनिक जीवन में हिंदू कितने ही स्वतंत्र रहे हों, सैद्धांतिक दृष्टि से वे अपने को मुसलिम नागरिकों के समकक्ष नहीं पाते थे। जो बात सबसे अधिक खटकती थी वह यह थी कि सामाजिक दृष्टि से निम्न वर्ग के होने पर भी भारतीय मुसलिम हिंदुओं से श्रेष्ठ स्थिति में थे। यदि मुसलमान केवल विदेशी समुदाय ही बने रहते तो उच्च वर्ग के हिंदू उनकी विचारधारा को सहर्ष स्वीकार कर लेते।" जैसा कि ईरानी और तुर्क नस्ल के 'आर्यजनों' के साथ उच्च वर्णी हिंदुत्ववादियों की बैठकी और रिश्तेदारी आज भी जारी है।

विद्वानों का मानना है कि कट्टर हिंदुत्ववादियों में जितनी नफरत भारतीय मुसलमानों के प्रति है, वैसी ही नापसंदगी छिपे तौर पर दलितों के प्रति भी है। एक तरफ उन्हें दलितों को वोटबैंक भी बनाए रखना है और दूसरी ओर उन्हें कमजोर भी रखना है।

हिंदुत्ववादी तो अब डॉ. आंबेडकर और संत रविदास का इस्तेमाल भी दलितों को बरगलाने के लिए कर रहे हैं। दिल्ली दंगों के बाद निकाली गई एक रैली इसकी गवाह है। इसमें कुछ लोग डॉ. आंबेडकर और संत रविदास के चित्रों को लेकर मुसलिम तबक़े के ख़िलाफ़ नारेबाजी करते हुए रैली निकाल रहे थे। एक रिपोर्टर ने रैली में शामिल एक व्यक्ति से पूछा कि क्या आप दलित हैं इस पर  डॉ. आंबेडकर का चित्र हाथ में लेकर चलने वाले उस शख़्स ने बड़ी हिकारत के साथ जवाब दिया कि वह दलित-वलित नहीं है और फिर गर्व से बोला कि वह संघ से जुड़ा है। 

मुसलिम पक्के भारतीय नहीं

हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहे और हिंदुत्व के प्रमुख विचारक वी.डी.सावरकर ने 1923 में प्रकाशित अपनी किताब 'हिंदुत्व' में लिखा है कि हिंदुत्व के तीन लक्षण हैं- एक राष्ट्र, एक जाति तथा एक संस्कृति। उन्होंने लिखा है कि भारत या हिंदुस्थान में वही रह सकता है जिसकी पितृभूमि और पुण्यभूमि दोनों भारत में हो। जाहिर है कि मुसलिम हज के लिए अरब जाते हैं। इसलिए सावरकर के अनुसार वे पक्के भारतीय नहीं हैं। 

सावरकर के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर ने अपनी किताब 'बंच ऑफ़ थाट्स' में हिंदुत्व के तीन शत्रु बताए हैं - मुसलिम, ईसाई और कम्युनिस्ट। आज जो मुसलमानों का दानवीकरण किया जा रहा है, वह दरअसल इसी हिंदुत्व के दीर्घकालीन प्रोजेक्ट का हिस्सा है।

कम्युनिस्टों को देशद्रोही, माओवादी, एनजीओखोर, रूस और चीन के मित्र के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाता है। जेएनयू को कम्युनिस्ट विचारधारा के मॉडल के रूप में देखा जाता है। इसलिए लगातार जेएनयू पर हमले होते रहे हैं। 

ईसाइयों को भी बनाया निशाना 

बीसवीं सदी के अंतिम दशक और नई सदी के पहले दशक में ईसाइयों को भी खूब निशाना बनाया गया। लेकिन आज के हालातों में मुसलमानों को निशाना बनाना सबसे आसान है। इसलिये कोरोना जैसी महामारी के संकट के समय भी ‘मुसलिम आतंकवाद’ या ‘कोरोना जेहाद’ के शब्द प्रचारित करके न सिर्फ अपनी नाकामी को छुपाया जा सकता है बल्कि लोगों के भीतर मुसलमानों के प्रति मौजूद घृणा के उस स्थायी भाव को बनाए रखा जा सकता है। आखिर धर्म का नशा हर दर्द को मिटाने का कारगर उपाय है!

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