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तब्लीग़ी जमातियों के बाद अगला शिकार कौन?

तब्लीग़ी जमातियों के बाद अगला शिकार कौन?

कुम्भकर्णी नींद में ग़ाफ़िल होने के चलते अपनी शुरुआती नाकामयाबियों से बौखलाई सरकार और बीजेपी ने कोविड-19 के प्रारम्भिक प्रसार का ठीकरा जमातियों के मत्थे फोड़ दिया। अब किसकी बारी है?

​बीते शुक्रवार को आगरा में 89 जमातियों को कोर्ट ने निजी मुचलकों पर रिहा कर दिया। जिस यूपी में तब्लीग़ियों को क्वॉरंटीन सेंटरों में 59 दिन तक रखे जाने का दर्दनाक इतिहास रहा हो, वहाँ अब उनकी रिहाई का ‘लास्ट राउंड’ चल रहा है।

अब तक के इतिहास में सरकार की निगाह में 'उम्दा', 'मददगार' और 'साफ़-सुथरा' ट्रैक के लिए जो जमाती जाने जाते थे, कोरोना काल में उन्हीं की 'खलनायकी' के चर्चे दूर-दूर तक फैले। यूपी की यदि बात करें, यहाँ की सरहदों के भीतर ऐसी 'गर्म हवा' चली, लगा पूरा प्रदेश तब्लीग़ियों के छोड़े कोरोना के ज़हर से भस्म हो जायेगा। मुख्यमंत्री से लेकर प्रदेश और ज़िलों के प्रशासनिक अधिकारियों तक का पूरा लाव लश्कर, सब का एक ही नारा था- कोविड-19 वायरस के फैलाव के लिए अकेले ज़िम्मेदार जमाती हैं। समूचे अप्रैल माह में 'कोरोना बम', 'कोरोना आतंक',  'देश द्रोही', राष्ट्र विरोधी'- समाज के सबसे ख़तरनाक शत्रु आदि के तौर पर इस्तेमाल किया जाने वाला ऐसा कोई फ़िक़रा नहीं था जिससे इन तब्लीग़ियों को नहीं नवाज़ा गया। 1 मई तक यूपी के 20 ज़िलों में लगभग 3 हज़ार जमातियों को गिरफ्तार कर लिया गया। उनके ख़िलाफ़ 'आईपीसी' की महामारी संबंधी और 'महामारी एक्ट' की अनेक कठोर धाराओं में चालान किया गया था। ज़्यादातर को कोर्ट ने या तो बॉन्ड भरवाकर छोड़ दिया, या फिर ज़मानत पर रिहा कर दिया।

यह कथा उन्हीं 'तबलीगियों' के साथ खेले गये’ खलनायकी’ के स्वांग की है।

20वीं सदी में लोकप्रिय होने वाली इसलाम की सबसे असरदार धारा है तब्लीग़ी जमात। इसलाम की दूसरी शाखाएँ जहाँ धर्म के भौतिक स्वरूप से परहेज़ नहीं करतीं, वहीं तब्लीग़ियों का ज़ोर इसके रूहानी (आध्यात्मिक) पक्ष पर रहता है। वे 20वीं -21वीं सदी में भी इसलाम के उस स्वरूप के ग्रहण किये जाने पर ज़ोर देती हैं जो पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद के काल (7वीं सदी में था और यही वजह है कि परंपरागत रिवाज़ (अनुष्ठान), पोशाक़ (वेशभूषा) और निजी आचरण को उसकी प्राप्ति का औज़ार मानती हैं। 

वैचारिक तौर से इसलाम के देवबंद स्कूल के साथ अपनी आस्था रखने वाले सुन्नी मिशनरी आंदोलन तब्लीग़ी जमात का जन्म 1926 में मेवात अंचल में हुआ था। इसके संस्थापक मोहम्मद इलियास थे। तब्लीग़ियों की आबादी 180 से 200 देशों में 12 से 80 तक करोड़ आँकी जाती है। 'तब्लीग़ियों को मौजूदा ज़िंदगी से गिला नहीं, जैसा कि वह कहते हैं। उन्हें दूसरे ‘जहाँ’ की फ़िक़्र है इसीलिये वे क़ब्र में बिच्छुओं को लेकर चिंतित रहते हैं।

तब्लीग़ी हमेशा सियासत से परहेज़ की बात करते हैं। यह बात दीगर है कि सत्ता के गलियारों में अपनी हनक के लिए वे हमेशा बेचैन रहे।

इंदिरा गाँधी से लेकर मोदी दरबार तक उन्होंने अपना रसूख़ बढ़ाया, इसे कौन नहीं जानता, और यह बात भी किसी से छिपी हुई नहीं कि राजदरबार में अपनी ठसक बनाये रखने के लिए उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल से लेकर एसएचओ निज़ामुद्दीन थाना (जहाँ तब्लीग़ियों का मरकज़ है) तक से अच्छे रिश्ते बना कर रखे।

सन 1946 में, हिंदुस्तान के विभाजन के साथ ही तब्लीगियों ने अपने विस्तार का ख़ाका खड़ा किया। पहले उन्होंने पाकिस्तान में अपने पाँव फैलाये, फिर बाँग्लादेश के उदय के साथ वहाँ, और आगे चलकर वे समूचे दक्षिण पूर्व और दक्षिण पश्चिम एशिया में फैल गए। इसी दौरान उन्होंने अपनी चादर अफ्रीका, यूरोप और उत्तरी अमेरिका तक फैला ली। वे फिलिस्तीनी जैसे किसी भी राजनीतिक विवाद से कोसों दूर थे, इसलिए उन्हें इंग्लैण्ड और फ़्रांस सहित समूचे यूरोपीय महाद्वीप में बिखर जाने से कोई नहीं रोक सका। अमेरिका ने ज़रूर आगे चलकर उनको शक-शुबहों से देखा। दरअसल, अमेरिका में कई आतंकी समूहों का जन्म तब्लीग़ी जमात के सदस्यों से हुआ यद्यपि उनका संगठन आतंकवादियों से किसी भी तरह के रिश्ते रखने से इंकार करता रहा और यह सच्चाई भी है।

बीजेपी के निशाने पर क्यों आए तब्लीग़ी

तब सवाल यह उठता है कि कैसे ये मोदी सरकार और बीजेपी के निशाने पर आ गए। इसमें कोई शक नहीं कि बहुसंख्य जमाती मुसलिम समाज के अशिक्षित या अर्द्ध शिक्षित तबक़े से आते हैं। यही वजह है कि प्रगतिशील मुसलमानों का बड़ा हिस्सा उन्हें 'जाहिल' मानता है। सीएए यानी नागरिकता क़ानून का विवाद खड़ा होने पर तब्लीग़ियों ने इससे अपना पल्ला झाड़ लिया। कहा तो यह भी जाता है कि केंद्रीय गृह मंत्री तक उन्होंने यह संदेश भिजवा दिया था कि उनकी जमात हुक़ूमत के साथ है। उन्हें नहीं पता था कि सीएए का 'सपोर्ट' एक ओर उन्हें जहाँ मुख्यधारा मुसलमानों से जुदा करेगा वहीं आने वाले दिनों में अपनी नासमझी के चलते (और दूसरे तत्कालीन राजनीतिक-प्रशासनिक बाध्यताओं की मजबूरी के शिकंजे में आकर) वे कोरोना का शिकार बनेंगे और इस तरह सीएए पर मुसलमानों से ख़ार खायी बीजेपी की बलिवेदी का बकरा बनने को भी मजबूर होंगे।

कुम्भकर्णी नींद में ग़ाफ़िल होने के चलते अपनी शुरुआती नाकामयाबियों से बौखलाई सरकार और बीजेपी ने कोविड-19 के प्रारम्भिक प्रसार का ठीकरा जमातियों के मत्थे फोड़ दिया।

इतना ही नहीं, ख़ुदा के ख़ौफ़ से रूह कँपाने वाले अबोध और भीरू तब्लीग़ियों पर क्वॉरंटीन और गिरफ़्तारी के दौरान कहीं ‘नर्सों के साथ छेड़खानी’ के इलज़ाम लगे तो कहीं उन्हें ‘क़ोरमा और बिरयानी की माँग’ की एवज़ में स्वास्थ्यकर्मियों से हाथा-पाई करते पेश किया गया। 2020 के अप्रैल महीने का एक दौर ऐसा भी आया जब राजनेताओं से लेकर सरकारी कर्मचारी, प्रेस और मीडिया, किसी को भी इन तब्लीग़ियों के साथ अपना 'एकाउंट सेटल' करने की छूट थी। मई के महीने में जब प्लाज़्मा थैरेपी ने ज़ोर पकड़ा और सरकार की अपील पर ‘प्लाज़्मा दान’ के लिए हिन्दुओं की जगह हज़ारों की तादाद में यही तब्लीग़ी अपना फ़ॉर्म भरने पहुँच गए। आम जन का उनके प्रति सद्भावनापूर्ण रवैया देख शुरू में तो 'आईटी सेल' ने 'सौ-सौ चूहे खाय बिल्ली हज को चली' टाइप अभियान चलाया लेकिन उसका असर होता न देखकर वे खामोश हो गए। आगे चलकर प्रशासनिक मशीनरी का 'दिल भी पसीजा'।

आगरा से हुई रिहाई के बाद उनके पैरोकारों का कहना था ‘डीएम और एसएसपी साब, सबने जेल के दिनों में उनके साथ बड़ा रहम किया।’ आगरा, फिरोज़ाबाद, अलीगढ़, बरेली, मेरठ, मुरादाबाद, शाहजहाँपुर, बदायूँ, कानपुर, लखनऊ, बनारस आदि 20 ज़िलों में जिन 3 हज़ार से ज़्यादा तब्लीग़ियों को गिरफ्तार किया गया था और क्वॉरंटीन सेंटरों में पाबंद किया गया था, मज़ेदार बात यह है कि ढेर सारे 'राष्ट्र विरोधी' आरोपों के बावजूद अदालतों ने उन्हें एक झटके में ही निजी मुचलकों पर रिहा कर दिया। अभी मेरठ और शाहजहाँपुर जैसे गिने-चुने ज़िलों में सिर्फ़ ऐसे विदेशी तब्लीग़ियों को नहीं रिहा किया गया है जिनकी वीज़ा अवधि चुक गयी है।

बहरहाल जमात एपिसोड तो 'दी एन्ड' पर पहुँच चुका है लेकिन सुरसा की रफ़्तार से बढ़ते कोरोना के नये ज़िम्मेदारों को ढूँढने के लिए फिर से काँटा फेंका जा रहा है। सुनते हैं सरकार के नए काँटे में फँसने के लिए देश के प्रवासी मज़दूर सभी शर्तों को पूरा करते हैं।

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