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एससी-एसटी को प्रमोशन में आरक्षण: वंचितों में उम्मीद की किरण

एससी-एसटी को प्रमोशन में आरक्षण: वंचितों में उम्मीद की किरण

उच्चतम न्यायालय ने एससी-एसटी वर्ग को प्रमोशन में आरक्षण दिए जाने के कर्नाटक सरकार के फ़ैसले को हरी झंडी देकर संविधान के प्रति वंचित तबक़े की आस्था को मजबूत कर दिया है।

उच्चतम न्यायालय ने अनुसूचित जाति व जनजाति को प्रमोशन में आरक्षण दिए जाने के कर्नाटक सरकार के फ़ैसले को हरी झंडी देकर देश के संविधान के प्रति वंचित तबक़े की आस्था को मजबूत कर दिया है। इस तबक़े को प्रमोशन में आरक्षण दिए जाने पर रोक थी। इसके साथ ही अब उन राज्यों में भी प्रमोशन में आरक्षण देने की राह खुलेगी, जहाँ इस पर अब तक रोक लगी हुई है। वहीं, अन्य पिछड़े वर्ग को भी प्रमोशन में आरक्षण दिए जाने पर विचार किया जा सकेगा, जिसकी सिफ़ारिश मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में की थी।

शीर्ष न्यायालय के जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने 10 मई, 2019 को दिए गए एक फ़ैसले में कहा कि कर्नाटक सरकार ने 2018 के अधिनियम में 2002 के क़ानून की वह ख़ामियाँ दूर कर दी हैं, जिसकी वजह से 2017 में प्रमोशन में आरक्षण को ख़त्म कर दिया गया था।  

कर्नाटक सरकार के फ़ैसले को हरी झंडी देने से ज़्यादा अहम शीर्ष न्यायालय की इस फ़ैसले को लेकर की गई टिप्पणी है। पीठ ने अपने फ़ैसले में कहा है, ‘सिर्फ़ किसी परीक्षा से सफलता और प्रतिभा तय नहीं होती। परीक्षा के आधार पर बनी मैरिट में आने वालों को ही सरकारी नौकरी में अहमियत देने से समाज के हाशिये पर रहने वाले लोगों के उत्थान का हमारे संविधान का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। हम प्रशासन में समाज की विविधता नजरंदाज नहीं कर सकते। एससी-एसटी वर्ग को प्रमोशन में आरक्षण अनुचित नहीं है। इससे प्रशासन की कुशलता पर क़तई असर नहीं पड़ता। समाज का वह वर्ग, जो वर्षों से हाशिये पर हो या असमानता का शिकार रहा हो, उसे आरक्षण देने से शासन में उसकी आवाज को पहचान मिलेगी।’

यह फ़ैसला और भी अहम हो जाता है क्योंकि न्यायालय ने उन सभी आपत्तियों को दरकिनार कर दिया है, जो आरक्षण दिए जाने को लेकर उठाई जाती हैं। प्रशासन में वंचित तबक़े के प्रतिनिधित्व से लेकर गुणवत्ता में आने वाली कथित कमी सहित उन तमाम तर्कों को खारिज किया गया है, जिसका हवाला अब तक दिया जाता रहा है।

इसके पहले 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में शीर्ष न्यायालय ने कहा था कि अनुच्छेद 16 (4) के तहत सरकारी सेवाओं में प्रवेश के लिए आरक्षण की व्यवस्था है, यह प्रमोशन के मामले में लागू नहीं होती। 

साथ ही फ़ैसले में यह भी कहा गया कि क्रीमी लेयर को आरक्षण के लाभ से बाहर रखा जाना चाहिए। संसद ने 17 जून 1995 को संविधान का 77वाँ संशोधन कर अनुच्छेद 14 में 4-ए का प्रावधान किया, जिसके माध्यम से एससी और एसटी को प्रमोशन में आरक्षण दिया जाना वैध हो गया। 

नागराज मामले में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 16-4(ए) को वैध क़रार देते हुए कहा कि सरकार एससी और एसटी को प्रमोशन में आरक्षण देने को बाध्य नहीं है, लेकिन अगर वह ऐसा करना चाहती है तो उसे उस वर्ग के पिछड़ेपन और पर्याप्त प्रतिनिधित्व न होने के आँकड़े जुटाने होंगे।

कांग्रेस के शासनकाल में सरकार ने पिछड़े वर्ग के आरक्षण के पक्ष में जोरदार तर्क पेश किए और आखिरकार मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू हो सकी। प्रमोशन में आरक्षण दिए जाने को लेकर न्यायालय के फ़ैसले से भ्रम होने पर कांग्रेस सरकार ने अनुच्छेद 16-4 (ए) जोड़कर यह सुनिश्चित किया कि वंचित तबक़े को लाभ मिल सके।प्रमोशन में आरक्षण को लेकर कर्नाटक सरकार की सक्रियता से यह और साफ़ हुआ है कि अगर सरकार की इच्छाशक्ति हो और वह ग़ैर बराबरी दूर करना चाहती हो, तो यह संभव है। शीर्ष न्यायालय ने जब पर्याप्त प्रतिनिधित्व न होने के आँकड़े माँगे तो सरकार ने रत्न प्रभा कमेटी की नियुक्ति कर दी और उसकी रिपोर्ट के आधार पर 2018 का क़ानून बनाया। अब शीर्ष न्यायालय ने एससी-एसटी को प्रमोशन में आरक्षण दिए जाने को हरी झंडी दे दी है।

संविधान निर्माताओं का यह साफ़ मानना था कि देश के हर नागरिक को समान अवसर मुहैया कराया जाए। जिन तबक़ों को जातीय आधार पर सदियों से दबाया गया है, उन्हें भी मुख्य धारा में आने का मौक़ा मिल सके। इसका उल्लेख करते हुए जस्टिस ललित और चंद्रचूड़ की पीठ ने संविधान को परिवर्तनकारी दस्तावेज़ बताते हुए कहा है, ‘संविधान बनाने वालों ने इसे जाति आधारित सामंती समाज में बदलाव लाने वाले उपकरण के तौर पर देखा। वह समाज, जिसमें हाशिये पर रहने वाले समुदायों के प्रति सदियों से शोषण और भेदभाव था, उन्हें मुख्य धारा में लाने के लिए प्रावधान किए गए।’ पीठ ने कहा है, ‘आलोचक आरक्षण या सकारात्मक विभेद को सरकारी कार्यकुशलता के लिए नुक़सानदेह बताते हैं। वे मेरिट के आधार पर चलने वाली व्यवस्था चाहते हैं। लेकिन यह मान लेना कि एससी और एसटी वर्ग से रोस्टर के तहत प्रमोट होकर आए कर्मचारी कार्यकुशल नहीं होंगे, एक गहरा बैठा मानसिक पूर्वाग्रह है। जब समाज के विभिन्न तबक़े सरकार व प्रशासन का हिस्सा बनें तो उसे प्रशासकीय कुशलता माना जाना चाहिए।’

स्वतंत्रता के 7 दशक बाद भी जातीय विषमता की गहरी खाई व्यवस्थागत ख़ामियों को उजागर करती है। संविधान निर्माताओं की मंशा यह थी कि वंचित तबक़े के लिए विशेष प्रावधान करके समाज में बराबरी लाई जाए, लेकिन अब भी भारत में जातीय आधार पर खाई बरक़रार है।

शीर्ष न्यायालय के फ़ैसले को देखते हुए अब सरकार को 2021 की जनगणना में सामाजिक-आर्थिक जातीय जनगणना कराने की ज़रूरत है, जिससे जातियों में विभाजित समाज में यह जानकारी मिल सके कि कौन सा जाति समूह या वर्ग अब भी शासन-प्रशासन में हाशिये पर है।
मंडल रिपोर्ट पेश करते समय अपनी सिफ़ारिश में बिंध्येश्वरी प्रसाद मंडल ने कहा था, ‘हमारा यह दावा कभी नहीं रहा है कि ओबीसी अभ्यर्थियों को कुछ हज़ार नौकरियाँ देकर हम देश की कुल आबादी के 52 प्रतिशत पिछड़े वर्ग को अगड़ा बनाने में सक्षम होंगे। लेकिन हम यह निश्चित रूप से मानते हैं कि यह सामाजिक पिछड़ेपन के ख़िलाफ़ लड़ाई का ज़रूरी हिस्सा है, जो पिछड़े लोगों के दिमाग में लड़ी जानी है।’मंडल ने आगे कहा था, ‘भारत में सरकारी नौकरी को हमेशा से प्रतिष्ठा और ताक़त का पैमाना माना जाता रहा है। सरकारी सेवाओं में ओबीसी का प्रतिनिधित्व बढ़ाकर हम उन्हें देश के प्रशासन में हिस्सेदारी की तत्काल अनुभूति देंगे। जब एक पिछड़े वर्ग का अभ्यर्थी कलेक्टर या वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक होता है तो उसके पद से भौतिक लाभ उसके परिवार के सदस्यों तक सीमित होता है। लेकिन इसका मनोवैज्ञानिक असर बहुत व्यापक होता है। पूरे पिछड़ा वर्ग समाज को लगता है कि उसका सामाजिक स्तर ऊपर उठा है। भले ही पूरे समुदाय को ठोस या वास्तविक लाभ नहीं मिलता है, लेकिन उसे यह अनुभव होता है कि उसका “अपना आदमी” अब “सत्ता के गलियारे” में पहुँच गया है। यह उसके हौसले व मानसिक शक्ति को बढ़ाने का काम करता है।’

जातीय रूप से विभाजित समाज में अब यह ज़रूरी हो गया है कि जातीय जनगणना कराकर देख लिया जाए कि समाज के किस तबक़े को कितना प्रतिनिधित्व मिला है।

नौकरियों की कमी के बीच बढ़ते असंतोष के दौर में यह बहुत ज़रूरी है कि प्रतिनिधित्व की स्थिति की सही जानकारी कर ली जाए। टुकड़ों-टुकड़ों में रोहिणी आयोग और रत्नप्रभा आयोग जैसी समितियाँ नियुक्त करने से बेहतर है कि यह जानकारी कर ली जाए कि ओबीसी, एससी, एसटी तबक़े की देश के संसाधनों में कितनी हिस्सेदारी है। साथ ही यह भी जाँच लेने का वक़्त है कि ओबीसी या एससी में किसी जाति विशेष का प्रतिनिधित्व सामान्य वर्ग के बराबर हो गया है या नहीं। आँकड़े मौजूद होने पर ही वंचित तबक़े के लिए लक्ष्य बनाकर काम किया जा सकेगा और असल हक़दार तक सहयोग पहुँच सकेगा।

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