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असली एनसीपी बताने के तौर-तरीके मतदाता की अतंरात्मा का मजाक: SC

असली एनसीपी बताने के तौर-तरीके मतदाता की अतंरात्मा का मजाक: SC

क्या अजित पवार खेमे को असली एनसीपी बताने का जो आधार चुनाव आयोग ने तय किया वह संवैधानिक रूप से सही नहीं था? जानिए, सुप्रीम कोर्ट ने आख़िर क्यों कहा कि वह फ़ैसला मतदाता का मजाक है।

एनसीपी में फूट मामले में चुनाव आयोग के फ़ैसले के आधार को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने बड़े सवाल उठाए हैं। दल बदलने वाले गुट को असली पार्टी के रूप में मान्यता देने की मौजूदा प्रवृत्ति की सुप्रीम कोर्ट ने आलोचना की और इसे मतदाताओं की अंतरात्मा का मजाक बताया। सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी से जुड़े मामले में शरद पवार गुट की एक याचिका पर सुनवाई कर रहा था। 

एनसीपी (शरदचंद्र पवार) ने चुनाव आयोग द्वारा अजित पवार गुट को पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न दिए जाने को चुनौती दी है। इसकी मुख्य चिंता लोकसभा चुनाव में अजित पवार गुट के घड़ी चुनाव चिह्न का इस्तेमाल को लेकर है। अदालत ने यह साफ़ तौर पर कहा कि मौजूदा स्थिति संविधान की दसवीं अनुसूची को दरकिनार कर देती है, जिसे दलबदल और उसके बाद की राजनीतिक अस्थिरता पर रोक लगाने के लिए लागू किया गया था।

लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस केवी विश्वनाथन की पीठ ईसीआई के 6 फरवरी के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी। अदालत ने भारत के चुनाव आयोग द्वारा केवल 'विधायी बहुमत' के परीक्षण के आधार पर अजित पवार गुट को आधिकारिक मान्यता देने के औचित्य पर सवाल उठाया। कोर्ट ने इस पर चिंता जताई कि इस नज़रिए से दलबदल को प्रोत्साहन मिल सकता है।

सुनवाई के दौरान अदालत ने कहा कि जब 1968 में चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन) आदेश लागू किया गया था, तब 10वीं अनुसूची लागू नहीं थी। 1985 के 52वें संवैधानिक संशोधन के बाद ही संविधान में 'दल-बदल विरोधी' कानून या 10वीं अनुसूची शामिल की गई। न्यायमूर्ति विश्वनाथन ने कहा कि क्या 'विधायी बहुमत' परीक्षण लागू करके चुनाव आयोग 'विभाजन' के माध्यम से दलबदल को मान्यता दे सकता है जो अब 10वीं अनुसूची के तहत मौजूद नहीं है। पीठ इस बात से चिंतित थी कि क्या ऐसा करने से देश के मतदाताओं की अंतरात्मा का मजाक नहीं उड़ेगा।

उन्होंने कहा, 'उस स्थिति में जब आदेश संगठनात्मक क्षमता पर आधारित नहीं होगी, केवल विधायी ताकत पर आधारित होगी, तो क्या जो अब दसवीं अनुसूची के तहत अनुमोदित नहीं है वह उस विभाजन को मान्यता नहीं दे रहा है। .... तो फिर विधायी परीक्षण का रास्ता नहीं अपनाएँ, संगठनात्मक परीक्षण से गुजरें। और यदि आप नहीं कर सकते, तो समाधान क्या है? यह एक वास्तविक चिंता का विषय है क्योंकि, आप दलबदल कर सकते हैं और फिर आकर पार्टी के चिह्न की मान्यता प्राप्त कर सकते हैं। यह मतदाता का एक मजाक है।'

हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने यह तय करने के लिए परीक्षण के रूप में विधायी बहुमत के उपयोग के बारे में भी चिंता व्यक्त की थी कि कौन सा गुट वास्तविक पार्टी है।

दसवीं अनुसूची के तहत एकनाथ शिंदे समूह के विधायकों को अयोग्य घोषित करने से महाराष्ट्र स्पीकर के इनकार के खिलाफ शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सीजेआई ने 7 मार्च को मौखिक रूप से कहा था कि विधायी बहुमत के परीक्षण पर स्पीकर की निर्भरता सुभाष देसाई मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के विपरीत थी। 

सुप्रीम कोर्ट ने सुभाष देसाई (शिवसेना विवाद) में कहा था कि जब दो प्रतिद्वंद्वी गुट विभाजन के बाद उभरे हों तो वास्तविक पार्टी का निर्धारण करने के लिए 'विधायी बहुमत' एक सही परीक्षण नहीं है।

बता दें कि चुनाव आयोग का निर्णय 'विधायी बहुमत' की कसौटी पर आधारित था, जिसमें अजित पवार गुट के पास 81 में से 51 विधायक थे। आयोग ने गुट की वैधता तय करने के लिए विधायी बहुमत परीक्षण पर भरोसा किया।

मंगलवार की सुनवाई के अंत में न्यायालय ने एक अंतरिम आदेश पारित किया जिसमें निर्देश दिया गया कि शरद पवार समूह लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनाव के लिए 'राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी - शरद चंद्र पवार' नाम और 'तुर्रा (तुरही) बजाता हुआ आदमी' चिह्न का उपयोग करने का हकदार होगा। यह भी आदेश दिया गया कि अजित पवार गुट को सार्वजनिक घोषणा करनी चाहिए कि आगामी लोकसभा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के लिए 'घड़ी' चिह्न का उपयोग न्यायालय में विचाराधीन है। 

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