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एससी/एसटी क़ानून पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को कैसे भुनाएगी बीजेपी?

एससी/एसटी क़ानून पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को कैसे भुनाएगी बीजेपी?

एससी/एसटी क़ानून आज फिर वहीं खड़ा है जहाँ यह क़रीब डेढ़ साल पहले था। सुप्रीम कोर्ट ने इस क़ानून में बदलाव किया था और अब फिर से सुप्रीम कोर्ट ने ही अपने उसी फ़ैसले को पलट दिया है।

एससी/एसटी क़ानून आज फिर वहीं खड़ा है जहाँ यह क़रीब डेढ़ साल पहले था। सुप्रीम कोर्ट ने इस क़ानून में बदलाव किया था और अब फिर से सुप्रीम कोर्ट ने ही अपने उसी फ़ैसले को पलट दिया है। बस अंतर इतना है कि पहले का फ़ैसला दो जजों की बेंच ने दिया था और अब जिसने फ़ैसला दिया है वह तीन जजों की बेंच है। कोर्ट के पहले के फ़ैसले के बाद एससी/एसटी क़ानून को कमज़ोर किए जाने का आरोप लगाया गया था। इसके बाद इस पर विवाद हुआ। हंगामा, प्रदर्शन और तोड़फोड़ हुई। राजनीति भी हुई। एससी/एसटी समुदाय में बड़े नुक़सान को देखते हुए बीजेपी ने दोतरफ़ा प्रयास शुरू कर यह सफ़ाई देने की कोशिश की कि वह एससी/एसटी क़ानून को कमज़ोर नहीं करना चाहती। एक तो इसने संसद में नया क़ानून बनाया और दूसरी तरफ़ सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका लगाई।

कोर्ट का यह फ़ैसला उसी पुनर्विचार याचिका पर आया है जिसे मोदी सरकार ने एससी/एसटी क़ानून को कमज़ोर करने के मार्च 2018 में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को चुनौती देते हुए दायर की थी। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल 20 मार्च को एससी/एसटी क़ानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए कुछ दिशा-निर्देश दिए थे। इसमें इस क़ानून के तहत एफ़आईआर दर्ज होते ही तत्काल गिरफ़्तारी पर रोक लगा दी गई थी। इसके अलावा एफ़आईआर दर्ज करने से पहले जाँच करने को कहा गया था।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा फ़ैसले में इन्हें हटा दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि एससी/एसटी समुदाय का बराबरी और नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष अभी भी जारी है। कोर्ट ने माना कि उनके साथ अभी भी भेदभाव होता है, छुआछूत ख़त्म नहीं हुआ है और गंदगी की सफ़ाई में जुटे लोगों को अभी भी आधुनिक सुविधाएँ नहीं मिली हैं। 

बीजेपी क्यों हुई सक्रिय

लेकिन एससी/एसटी क़ानून पर जो यह बदलाव आया है वह उतना आसान भी नहीं रहा है। जैसे ही पिछले साल सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आया था वैसे ही देश भर में प्रदर्शन हुए। अनुसूचित जाति और जनजाति से जुड़े संगठन सड़क पर आ गए। वे सीधे तौर पर आरोप लगाने लगे कि जब सुप्रीम कोर्ट एससी/एसटी क़ानून पर सुनवाई कर रहा था तब सरकार की ओर जानबूझकर दलीलें ही पेश नहीं की गईं और यह क़ानून कमज़ोर हो गया। बीजेपी के नेता इन आरोपों को नकारते रहे। जब इस मुद्दे को लेकर बीजेपी पर काफ़ी ज़्यादा दबाव पड़ा तो इसने कहा कि वह सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर करेगी और ज़रूरत पड़ने पर क़ानून भी बनाएगी। पिछले साल इस मामले ने उस वक़्त तूल पकड़ा था जब एक साल बाद ही 2019 के लोकसभा चुनाव होने थे। एससी/एसटी का नाराज़ होने का मतलब था कि बीजेपी को काफ़ी ज़्यादा नुक़सान होता। 

सुप्रीम कोर्ट के पहले फ़ैसले के बाद सरकार ने एससी/एसटी क़ानून में संशोधन किया। इस संशोधन के माध्यम से नए क़ानून 2018 में 18ए का प्रावधान जोड़ा गया। एससी/एसटी संशोधन क़ानून 2018 को लोकसभा और राज्यसभा ने पास कर दिया था और इसे नोटिफ़ाई कर दिया गया था। इसके लागू होने के बाद दलितों को सताने के मामले में तत्काल गिरफ्तारी का प्रावधान भी फिर से लागू हो गया था। इसके साथ ही अभियुक्तों को अग्रिम ज़मानत भी नहीं मिलने वाले प्रावधान को भी लागू कर दिया गया था।

हालाँकि एससी/एसटी क़ानून में संशोधन के सरकार के इस फ़ैसले को कोर्ट में चुनौती दी गई। इसके बाद पिछले साल सितंबर महीने में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वह इस संशोधित क़ानून का परीक्षण करेगा। वकील पृथ्वीराज चौहान और प्रिया शर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की था। सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में कहा गया था कि सुप्रीम कोर्ट के 20 मार्च के आदेश को लागू किया जाए। 

एससी/एसटी क़ानून के आलोचक इसके दुरुपयोग का आरोप लगाते रहे हैं। समर्थक कहते हैं कि यह क़ानून दलितों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल होने वाले जातिसूचक शब्दों और हज़ारों सालों से चले आ रहे ज़ुल्म को रोकने में मदद करता है।

पहले क्या कहा था सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने

सुप्रीम कोर्ट ने मार्च 2018 में एक आदेश में एससी/एसटी क़ानून के दुरुपयोग पर चिंता जताई थी। एक आदेश में जस्टिस एके गोयल और यूयू ललित की बेंच ने कहा था कि एससी/एसटी अत्याचार निरोधक क़ानून यानी एससी/एसटी क़ानून में बिना जाँच के एफ़आईआर दर्ज नहीं होगी और एफ़आईआर दर्ज होने के बाद अभियुक्त को तुरंत गिरफ़्तार नहीं किया जाएगा। सात दिनों के भीतर शुरुआती जाँच ज़रूर पूरी हो जानी चाहिए। अगर अभियुक्त सरकारी कर्मचारी है तो उसकी गिरफ़्तारी के लिए उसे नियुक्त करने वाले अधिकारी की सहमति ज़रूरी होगी। अगर अभियुक्त सरकारी कर्मचारी नहीं है तो गिरफ़्तारी के लिए एसएसपी की सहमति ज़रूरी होगी।

इस क़ानून में हुए बदलावों के विरोध में पिछले साल दो अप्रैल को देश भर में दलितों ने प्रदर्शन किया था और 'भारत बंद' किया था। कई जगह हिंसा भड़की। हिंसा में कम से कम नौ लोग मारे गए थे। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के लिए मोदी सरकार को ज़िम्मेदार मानते हुए दलित समाज केंद्र सरकार से अपनी नाराज़गी जता रहा था। केंद्र सरकार और बीजेपी को दलित विरोधी बताया जा रहा था।

दरअसल, एससी/एसटी क़ानून का यह मामला तब आया था जब सुप्रीम कोर्ट डॉक्टर सुभाष काशीनाथ महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य और एएनआर मामले की सुनवाई कर रहा था। यह मामला महाराष्ट्र का है जहाँ अनुसूचित जाति के एक व्यक्ति ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों के ख़िलाफ़ इस क़ानून के अंतर्गत मामला दर्ज कराया था। ग़ैर-अनुसूचित जाति के इन अधिकारियों ने उस व्यक्ति की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में उसके ख़िलाफ़ टिप्पणी की थी। जब मामले की जाँच कर रहे पुलिस अधिकारी ने अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए उनके वरिष्ठ अधिकारी से इजाज़त माँगी तो इजाज़त नहीं दी गई। इस पर उनके खिलाफ़ भी पुलिस में मामला दर्ज कर दिया गया। इसके बाद यह मामला कोर्ट में पहुँचा था।

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