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'रेवड़ी' का चक्कर, क्या सुप्रीम कोर्ट बनेगा घनचक्कर?

'रेवड़ी' का चक्कर, क्या सुप्रीम कोर्ट बनेगा घनचक्कर?

चुनाव से पहले फ्रीबी के वादे अब मुद्दा बन रहा है? लेकिन सवाल है कि किसे चुनावी रेवड़ियाँ कहा जाएगा और किसे कल्याणकारी योजना? सुप्रीम कोर्ट यह कैसे तय कर पाएगा?

पीएम मोदी ने 16 जुलाई, 2022 को रेवड़ी संस्कृति का जुमला क्या फेंका कि सारा हिंदुस्तान उसको लपकने के लिए उतावला हो गया। सुप्रीम कोर्ट भी अपने को रोक न सका। किन्तु वह भी असमंजस में लगता है तो आम आदमी का क्या होगा? प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि रेवड़ी कल्चर विकास के लिए बहुत घातक है और उसे देश की राजनीति से हटाना होगा क्योंकि रेवड़ी कल्चर वालों को लगता है कि जनता जनार्दन को मुफ्त की रेवड़ी बांटकर, उन्हें खरीद लेंगे।

लेकिन मुद्दा बहुत गहरा और विवादास्पद है क्योंकि राजनीति और अर्थनीति इससे गुथी हुई हैं। राजनीति इसलिए कि कौन नहीं था; कौन पार्टी नहीं थी जिसने इस विषय पर अभी तक राजनीति नहीं की? किसने रेवड़ियां नहीं बाँटी और किसने वोट की गंगा में स्नान नहीं किया? जो रेवड़ियां बांटते -बांटते थक गए या वे जो अब भयभीत हैं कि इस रेस और दंगल के नए पहलवानों ने उनके दावों को समझ लिया है, अब वे कहीं पटकनी न दे दें, इसलिए राजनीति ने अर्थनीति का दामन पकड़ लिया है।

पहले समझें कि वह दाँव क्या रहा है? सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि चुनाव जीतने के लिए अब  पार्टियाँ मुफ्तखोरी का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर कर रही हैं और उसने एक कला अथवा फ़नकारों के फन का रूप ग्रहण कर लिया है। यही बात तो पी चिदंबरम भी कहते हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री ने अभी हाल में एक लेख में कहा है कि हमें एनडीए सरकार की इस चालाकी की प्रशंसा करनी चाहिए, जिस तरह से उसने टैक्स वसूलने, कल्याणकारी मदद और अपने लिए वोट जुटाने के काम को आपस में जोड़ने का एक तरीका खोजा है। पी. चिदंबरम कहते हैं कि मोदी सरकार की असफलता जगजाहिर रही है। पिछले आठ वर्षों में विकास दर डाँवाडोल रही है। गरीबी, बेरोजगारी, कीमतों का बढ़ना, सभी ने आम जन का जीना दुश्वार कर दिया है। भूख है, कुपोषण है, महामारी है। असमानता ने विकराल रूप धारण कर लिया है। विकास का कोई भी पैमाना लें तो देश पिछड़ रहा है और नागरिक त्रस्त हैं। तो इलेक्शन कैसे जीता जाए? मुफ्तखोरी तो है, वही रामबाण जो है। रेवड़ियों को जन कल्याण का नाम दे देंगे और धन, जनता से ही आ जायेगा। तो पूरे चक्र को राजनीतिज्ञ चिदंबरम की दृष्टि से आइये समझा जाए ग्रामीण जीवन का एक उदहारण ले कर।

 

लगभग सभी गाँवों में पक्की सड़क और बिजली पहुंच चुकी है। सरकार का संकल्प पाइप से पानी देने का भी है। कहीं-कहीं संकल्प पूरा हो भी गया है। यही तो विकास है। साथ ही यदि आप गरीब, भूमिहीन या दलित किसान हैं तो आवास और बिजली सरकार देगी, वो भी मुफ्त। खाना बनाना है तो सिलिंडर मिलना तय है। साथ ही राशन, तेल, नमक मिलेगा। सरकार की मदद तो है ही, स्वच्छता के लिए शौचालय बनवाइए। सुलभ शौचालय की योजना भी चल रही है। अब तो गाँवों में सफाई कर्मी भी हैं। यदि आप वृद्ध हैं, बीमार हैं या बेरोजगार हैं तो पेंशन है, आयुष्मान भारत की छत्र-छाया है या मनरेगा का सहारा है। गरीब किसान हैं तो 6000 रुपये सालाना मिलेगा वो भी धन सीधे आपके खाते में आएगा (सरकार का दो वर्षों में खर्च 65000 करोड़ रुपये आएगा)। महिला सशक्तिकरण की योजना तो है ही। गरीब परिवार के बच्चों, विद्यार्थिओं को निःशुल्क पढ़ाई का वायदा भी है। अब बाकी देश को भी शामिल कर लें और यदि आप या आप के बच्चे ज्यादा भाग्यशाली हैं तो मोबाइल, लैपटॉप, साइकिल, स्कूटी मिलने में कठिनाई नहीं है। तो आपको क्या नहीं मिल सकता है? दर्जनों योजनाएँ हैं। 

केवल एक वोट का ही तो मामला है। सरकार के हाथ से हाथ मिलाइये और सब लीजिये। सरकार ने तो व्यवस्था बना ही दी है।

उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात, हिमाचल, पंजाब, दिल्ली जहां भी चुनाव हुए, यही वायदे सभी पार्टियों और सरकारों ने कुछ अन्य योजनाओं के साथ घोषित किये, लड़ा और जीता भी। चिदंबरम बताते हैं कि यही वो फन है, मौजूदा सरकार (और सरकारों) के पास जिसे उसने (उन्होंने) अपना लिया है, लोक कल्याण के नाम पर और जिसमें वे सफल भी रही हैं।

इस तथ्य को और गहरे से समझने की ज़रूरत है। 80 करोड़ जनता सरकार के मुफ्त के राशन का आनंद ले रही रही है। तो क्या देश की साठ प्रतिशत जनसंख्या ग़रीब हो गई है? लेकिन विश्व बैंक की कुछ दिन पहले की एक रिपोर्ट बताती है कि मोदी काल में गरीबी घटी है। तो क्या वोट बैंक के लिए मुफ्त राशन देने का खेल खेला जा रहा है? लगता तो है? इस पर दो वर्षों में 2,68,349 करोड़ रुपये खर्च होगा। कारण- गाँवों में बेरोजगारी है किन्तु उसके खिलाफ आवाज नहीं उठती है? क्योंकि मुफ्त राशन, बिना काम किये मनरेगा का मुफ्त का पैसा और विभिन्न प्रकार की सहायता बांटी जा रही हैं। तो वोट बैंक नहीं बनेगा, वोट नहीं मिलेगा क्या? यही प्रश्न चिदंबरम उठा रहे हैं और बताते हैं कि जनता को चुप रखने का एक नया, नायाब तरीका सरकार ने अपनाया है।

उत्पादन क्रियाओं पर तो खर्च होता नहीं दिख रहा। अर्थव्यवस्था बदहाल है। उल्टे कल्याणकारी कार्यों और मुफ्तखोरी के लिए सरकार के कोष का मुँह खुला है। जिसके राजनीतिक और चुनावी फायदे मिले हैं किन्तु यह महल खड़ा हुआ है मध्यम वर्ग की जेब पर भी। वह कराह रहा है प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष करों, महंगे पेट्रोल और सेस देते देते। मुफ़्तख़ोर वर्ग प्रमुखतः अप्रत्यक्ष कर ही देता है और सुविधाएं लेता है। लगता है कि इसका सत्ता अधिष्ठान से एक समझौता सा बनने लगा है। जैसे ये कह रहे हों कि कल्याणकारी या मुफ़्तखोरी मदद दो और वोट लो। 

दूसरी ओर लगता है कि सम्पत्तिवान वर्ग भी टैक्स देने के लिए नहीं बना है। करों की मार से यह वर्ग काफ़ी हद बचा हुआ है। इस व्यवस्था से सरकार भी खुश और आम जनता के बीच का एक बड़ा वर्ग भी खुश है और जो अतिरिक्त ख़र्च रेवड़ियों के कारण आ रहा है उसके लिए देशी, विदेशी उधार उपलब्ध तो है ही।

 

तो कितना उधार है?

भारत सरकार पर आंतरिक और बाह्य कर्ज़ की बकाया राशि सन 2021-22 के अंत में 13587893.16 करोड़ रुपये थी जिसमें से 13158490.37 करोड़ रुपये आंतरिक कर्ज़ का बकाया और 429402.79 करोड़ रुपये बाह्य ऋण का था। कुल कर्ज़ में आंतरिक और बाह्य कर्ज़ का भाग क्रमश: 96.83 प्रतिशत और 3.16 प्रतिशत था। 2022-23 के अंत में इसके बढ़कर कुल 15217910.29 करोड़ रुपये हो जाने की संभावना है। स्पष्ट है कुल ऋण न केवल ज्यादा है बल्कि तेजी से बढ़ रहा है। ऊपर से राज्यों के भी ऋण हैं। इसे लौटाना होगा। राज्यों का राजकोषीय घाटा, मान्य स्तर से बहुत ज़्यादा है और घाटे की पूर्ति के लिए ये और कर्ज़ ले रहे हैं।

कर्ज क्यों बढ़ रहा है?

क्योंकि विकास की चाहत है किन्तु इससे बढ़ कर यह है कि गरीब जनता को मुफ्तखोरी के नायाब सपने नेतृत्व वर्ग द्वारा दिखाए गए। इलेक्शन जीतने का यह सबसे आसान हथियार बन गया है। एक से बढ़ कर एक सब्जबाग हमने देखे। तीन तरह की मुफ्तखोरी की स्थिति दिखती है। पहला, विकास ज़्यादा और कम मुफ्तखोरी। शिक्षा और स्वास्थ्य पर किया गया खर्च, किसानों का कर्ज और बिजली बिल माफ़ी उदाहरण है। कर्ज दिया गया था उत्पादन बढ़ाने और लागत घटाने के लिए लेकिन कर्ज़ माफ़ी के साथ मुफ़्तखोरी पैदा हुई। दूसरा, जिसमें मुफ़्तखोरी का ज्यादा किन्तु विकास का कम वायदा था। गरीबों को मुफ्त का आवास देना, कभी कभी आवश्यकता न होने पर भी गरीबों को मुफ्त का अनाज बाँटना, जिसमें अनेक अपात्र भी शामिल हैं, इसका उदाहरण है। तीसरा, जिसका उद्देश्य  मुफ़्तखोरी ही मुफ़्तखोरी होती है। लैपटॉप, मोबाइल, साईकिल, स्कूटी, सिलिंडर, प्रेशर कूकर, वाशिंग मशीन, टेलीविज़न, बस में बिना किराया यात्रा, मातृत्व सहायता धनराशि, सामूहिक विवाह और धार्मिक पर्यटन, अम्मा साड़ी, अम्मा भोजन, मोदी स्कूटी, आदि इसका उदाहरण हैं। नेतृत्व वर्ग के इन सब छूट सम्बन्धी अपने तर्क और कुतर्क भी हैं। 

मुफ्त की रेवड़ी कल्चर क्या है? यानी गैर जरूरी, बिना पैसे दिए मिलने वाली योजनाएँ जो कि देश की उत्पादन क्रियाओ को बढ़ाने में कोई योगदान न कर रही हो।

या जो खर्च राजस्व ख़र्च में तो आता हो किन्तु पूंजीगत ख़र्च न हो अर्थात जो गैर विकासात्मक ख़र्च हो। तो यह समस्या को दोगुना करता है। आवश्यकता है कि उधार लिया जाए तो उसे उत्पादक क्रियाओं में लगाया जाए जिससे उधार को लौटाया जा सके।

क्या निष्कर्ष हैं इस विश्लेषण के?

देश का उधार घाटा बढ़ता जा रहा है। दूसरे, गैर विकासात्मक कार्यों और मुफ्तखोरी पर व्यय बढ़ रहा है। सभी पार्टियाँ और नेतृत्व वर्ग, जनता को सब्जबाग दिखाती रही हैं, रेवड़ियाँ बांटती रही हैं। आज पीएम जिसे रेवड़ियाँ कह रहे हैं उस पर भी मतैक्य नहीं है। तमिलनाडु के वित्त मंत्री पलानीवेल त्यागराजन (पीटीआर) ने 18 अगस्त, 2022 को कहा है कि कल तक स्वयं मोदी जी यही रेवड़ियाँ बाँट रहे थे और वे इस विषय के कोई अधिकारी विशेषज्ञ भी तो नहीं हैं जो उनकी बात मान ली जाए। भारत सरकार की तुलना में तमिलनाडु सरकार ने राज्य में बेहतर कार्य किया है तो वे पूछते हैं कि हम मोदी जी की बात क्यों मानें? जब तक जनता इसे पसंद करती है और राजस्व की स्थिति ठीक रहती है तो इसे देना ठीक है।

 

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जयति घोष कहती हैं कि मूलभूत सुविधाएँ प्रदान करना तो सरकारों का ही काम होता है। लेकिन वस्तुस्थिति तो ये है कि उधार भार बढ़ता जा रहा है और यदि भारत को श्रीलंका नहीं बनना है तो उसे नियंत्रित करना पड़ेगा। अब निगाहें तो सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं। किन्तु आशंका है कि सुप्रीम कोर्ट इतने प्रश्नों के समाधान के चक्कर में खुद घनचक्कर न बन जाए।

क्या होगा यह समय ही बताएगा।

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