दिल्ली नगर निगम में नामित सदस्यों पर एलजी को सुप्रीम कोर्ट से झटका
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि उपराज्यपाल को दिल्ली नगर निगम में एलडरमैन नामित करने की शक्ति देने का मतलब होगा कि वह एक निर्वाचित नागरिक निकाय को अस्थिर कर सकते हैं। अदालत ने यह टिप्पणी तब की जब इस मामले में दिल्ली सरकार ने याचिका दायर की है। इसमें एलडरमैन नामित करने के उपराज्यपाल के अधिकार को चुनौती दी गई है। मेयर के चुनाव के लिए एलडरमैन के नामित किए जाने को लेकर तब काफी विवाद हुआ था और कई बार चुनाव टालना पड़ा था। इसी बीच यह मामला अदालत में पहुँचा।
मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जेबी पारदीवाला की पीठ ने दिल्ली सरकार की याचिका पर अपना फ़ैसला सुरक्षित रख लिया है। पिछले साल दिसंबर में आम आदमी पार्टी ने निकाय चुनावों में भाजपा को हरा दिया, 134 वार्डों में जीत हासिल की और एमसीडी के शीर्ष पर बीजेपी के 15 साल के शासन को ख़त्म कर दिया। बीजेपी ने 104 सीटें जीतीं और कांग्रेस नौ के साथ तीसरे स्थान पर रही। एमसीडी में 250 निर्वाचित और 10 मनोनीत सदस्य हैं।
सुप्रीम कोर्ट इस पर फ़ैसला करने वाला है कि क्या दिल्ली के उपराज्यपाल यानी एलजी दिल्ली सरकार की सहमति के बिना दिल्ली नगर निगम में एल्डरमैन (मनोनीत सदस्य) को नामित कर सकते हैं। लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार आज की सुनवाई के दौरान सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ ने मौखिक रूप से टिप्पणी की- 'इसे देखने का एक और तरीका है। क्या स्थानीय निकाय में विशेष ज्ञान रखने वाले लोगों का नामांकन भारत संघ के लिए इतनी बड़ी चिंता है? एलजी को यह शक्ति देकर, वह लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित एमसीडी को प्रभावी रूप से अस्थिर कर सकते हैं।'
उन्होंने आगे कहा, 'उनके पास मतदान की शक्ति होगी। उन्हें एलजी द्वारा इन दस सदस्यों को कहीं भी रखा जा सकता है।'
दिल्ली सरकार की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. एएम सिंघवी ने इस पर सहमति व्यक्त की और इस तथ्य को रखा कि एमसीडी की वार्ड समितियों में नामांकन किया गया था जहाँ भाजपा कमजोर थी।
रिपोर्ट के अनुसार उपराज्यपाल की ओर से पेश हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल संजय जैन ने अनुच्छेद 239AA के तहत उपराज्यपाल की भूमिका और दिल्ली नगर निगम अधिनियम के अनुसार स्थानीय निकाय के नामांकन की बात आने पर एक प्रशासक के रूप में उपराज्यपाल की भूमिका के बीच अंतर करने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि दिल्ली नगर निगम अधिनियम ने विशेष रूप से प्रशासक (एलजी) की भूमिका को परिभाषित किया था। उन्होंने कहा कि एक वैधानिक शक्ति का प्रयोग करते समय दिल्ली सरकार की "सहायता और सलाह" आवश्यक नहीं थी जो विशेष रूप से प्रशासक को दी गई थी।
इसके विपरीत जीएनसीटीडी की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. एएम सिंघवी ने जीएनसीटीडी बनाम भारत संघ के मामलों में संविधान पीठ के दो फ़ैसलों का हवाला दिया। उन्होंने कहा कि 30 साल से यह प्रथा चली आ रही थी कि उपराज्यपाल कभी भी मंत्रियों की सहायता और सलाह के बिना नियुक्ति नहीं करते थे। इस पर एएसजी जैन ने कहा- 'सिर्फ़ इसलिए कि एक प्रथा का वर्षों से पालन किया जा रहा है, इसका मतलब यह नहीं है कि यह सही है।'
सिंघवी ने कहा, 'जहां राज्य सरकार का जिक्र होता है, फाइल रुक जाती है, वह एलजी के पास नहीं जाती है। जहां एलजी का ज़िक्र होता है, वह मदद और सलाह पर काम करते हैं। दोनों ही मामलों में एलजी बाध्य हैं।'
पिछले हफ़्ते सुप्रीम कोर्ट ने एक सर्वसम्मत फ़ैसले में कहा है कि दिल्ली सरकार के पास सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और भूमि को छोड़कर सेवाओं पर विधायी और कार्यकारी शक्तियां हैं।
अदालत ने कहा कि अगर अधिकारी मंत्रियों को रिपोर्ट करना बंद कर देते हैं या उनके निर्देशों का पालन नहीं करते हैं, तो सामूहिक जिम्मेदारी का सिद्धांत प्रभावित होता है। अगर अधिकारियों को लगता है कि वे सरकार के नियंत्रण से अछूते हैं, तो यह जवाबदेही को कम करेगा और शासन को प्रभावित करेगा।
सुनवाई के दौरान अपनी शुरुआती टिप्पणी में शीर्ष अदालत ने कहा कि वह न्यायमूर्ति भूषण के खंडित फैसले से सहमत नहीं है कि दिल्ली सरकार के पास सभी सेवाओं पर कोई शक्ति नहीं है।
सुनवाई के दौरान पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने दिल्ली में एक निर्वाचित सरकार होने की ज़रूरत पर सवाल उठाया था। इसने यह बात तब कही थी जब केंद्र ने कहा कि केंद्र शासित प्रदेश संघ का एक विस्तार हैं, जो उन्हें प्रशासित करना चाहता है।