गाँधी की पगड़ी और छात्राओं के हिजाब के बीच क्या कोई रिश्ता है?
आख़िर गाँधी की पगड़ी और कर्नाटक की छात्राओं के हिजाब के बीच क्या रिश्ता है? हम सब वह क़िस्सा जानते हैं कि डरबन जाने के बाद गाँधी जब अदालत गए तो यूरोपीय मैजिस्ट्रेट ने उन्हें पगड़ी उतारने को कहा। गाँधी ने कहा कि पगड़ी भारतीयों के लिए ज़रूरी है फिर भी मैजिस्ट्रेट नहीं माना। गाँधी अदालत से निकल आए। उनका इरादा था कि अगले रोज़ से वे हैट पहनकर जाएँगे। लेकिन अब्दुल्ला सेठ ने गाँधी से कहा कि उन्हें पीछे नहीं हटना चाहिए।
गाँधी ने देखा था कि भारतीय मुसलमान और पारसी अपनी पगड़ियाँ या टोपियाँ पहने हुए थे। इसलिए उन्हें ताज्जुब हुआ था कि उन्हें पगड़ी उतारने को कहा जा रहा था।
अब्दुल्ला सेठ ने उन्हें इसका कारण बतलाया। मुसलमान ख़ुद को अरब कहते थे और पारसी फ़ारस का बताते थे। बाक़ी तो हिंदू ही ठहरे।
अब्दुल्ला सेठ ने समझाया
गाँधी ने सोचा था कि वे यूरोपीय हैट पहना करेंगे। लेकिन अब्दुल्ला सेठ ने कहा कि अगर उन्होंने अपनी पगड़ी छोड़कर हैट पहनी तो यह बड़ी बेइज्जती की बात होगी। एक तो वे शेष लोगों को संकट में डाल देंगे जो देसी पगड़ी पहन रहे हैं, दूसरा, उनके सिर पर पगड़ी ही शोभा देती है, तीसरा, अगर उन्होंने हैट पहनी तो उन्हें वेटर माना जाएगा।
गाँधी को उनकी बात जँची। लेकिन इसके बारे में उन्होंने लिखा, “इन वाक्यों में दुनियावी समझदारी थी, देशाभिमान था और थोड़ी संकुचितता [संकीर्णता] भी थी।” दुनियावी समझदारी तो साफ़ थी, बिना देशाभिमान के पगड़ी पर आग्रह संभव नहीं था और वेटर वाली बात में संकीर्णता तो थी ही।
गाँधी चाहते तो अदालत के क़ायदे, परंपरा और ‘जैसा देस वैसा भेस’ का तर्क लेकर पगड़ी पर ज़िद की झंझट को छोड़कर वकालत करते रह सकते थे। आख़िर महत्वपूर्ण काम वकालत का था। फिर पगड़ी को लेकर अनावश्यक बहस क्यों?
अब्दुल्ला सेठ के समझाने पर गाँधी ने पगड़ी के पक्ष में अख़बारों में पत्र, लेख लिखे। पगड़ी आख़िर तक उनके साथ बनी रही जब तक उन्होंने खुद उसे छोड़ देने का निर्णय नहीं किया।
पगड़ी के बिना भारतीयता खंडित नहीं होती, वकालत के काम में भी बाधा नहीं होती और हैट लगाने से अदालत में पोशाक की एकरूपता बनी रहती। यह भी कहा जा सकता है कि अब्दुल्ला सेठ ने अगर गाँधी को न उकसाया होता तो वे इसे मुद्दा न बनाते।
कर्नाटक की छात्राएँ तक़रीबन वही कर रही हैं जो गाँधी ने किया था। अब्दुल्ला ने अदालत के एकरूपता के क़ायदे के सिद्धांत का विरोध किया था और गाँधी ने उनकी बात समझी। मुमकिन था कि गाँधी को पगड़ी के बिना कोई उलझन न हो, लेकिन इस वजह से उनकी स्थिति कमजोर होती जो पगड़ी के बिना नहीं रह सकते थे। गाँधी जितना अपनी वजह से पगड़ी का आग्रह कर रहे थे, उतना या उससे ज़्यादा दूसरों के लिए भी।
किसी ने कर्नाटक की छात्राओं के हिजाब पहनकर कॉलेज जाने के आग्रह के संदर्भ में गाँधी के जीवन के इस प्रसंग को याद नहीं किया है।
पगड़ी पहनने की दलील
क्या पगड़ी पहनना धार्मिक या सांस्कृतिक दृष्टि से अनिवार्य था? क्या भारतीय बिना पगड़ी के नहीं चलते थे? फिर गाँधी की पगड़ी पहनने की दलील क्यों मानी जाए?
पीएफआई ने उकसाया!
हो सकता है सर्वोच्च न्यायालय में आगे जब छात्राओं के हिजाब पहनने के अधिकार को लेकर बहस हो तो किसी को गाँधी की पगड़ी की अतार्किक ज़िद की यह कहानी याद आए। जब यह कहा जा रहा है कि छात्राओं को पीएफआई ने उकसाया, वरना वे बिना हिजाब के ही कॉलेज आतीं, उन्हें यह जवाब दिया जा सकता है कि गाँधी भी अगले दिन बिना पगड़ी अदालत आते अगर अब्दुल्ला सेठ ने उन्हें अपनी और दूसरों की इज्जत का हवाला नहीं दिया होता।
गाँधी की पगड़ी से अदालत के माहौल में कोई ख़लल नहीं पैदा हो रहा था। उनकी पगड़ी से किसी प्रकार का भेदभाव नहीं पैदा हो रहा था। इंसाफ़ के काम में बाधा भी नहीं पड़ रही थी। वे बिना पगड़ी के या उसी जगह हैट के साथ वकालत का अपना काम एक-सी दक्षता के साथ कर सकते थे।
पगड़ी पर ज़िद का बड़ा कारण था अपने रहन-सहन के तरीक़े का अधिकार अपने पास रखना, किसी और को यह तय करने की इजाज़त न देना भले ही वह संकीर्ण प्रतीत हो। यह महत्वपूर्ण नहीं कि हर भारतीय पगड़ी पहनता है या नहीं, लेकिन किसी भारतीय से पगड़ी उतार देने को कहना उसका अपमान तो है ही। उसे कहा जा रहा है कि वह पगड़ी के स्थान पर हैट पहन सकता है। इसी से स्पष्ट है कि किसी भी सार्वजनिक स्थल पर एक विशेष समूह की पहचान से जुड़ा चिह्न या प्रतीक ‘संकीर्ण’ होने के नाते स्वीकार नहीं किया जाएगा।
एकरूपता का तर्क
कर्नाटक उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश हेमंत गुप्ता को सार्वजनिक स्थल में एकरूपता स्थापित करने की चिंता है। लेकिन जो उस जगह की एकरूपता है वह समानता भी स्थापित कर रही हो, यह आवश्यक नहीं। और वह एकरूपता मेरे अपने चुनाव के अधिकार का भी उल्लंघन करती है। एकरूपता और अनुशासन का अदालत का तर्क निजता के अधिकार के बिल्कुल ख़िलाफ़ है। उनके नाम पर निजता की बलि नहीं दी जा सकती। गौतम भाटिया ने सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश हेमंत गुप्ता के निर्णय का विश्लेषण करते हुए https://bit.ly/3yG7jUI ठीक ही लिखा है कि एक बार एकरूपता का तर्क ध्वस्त हो जाए तो फिर उनके फ़ैसले की ज़मीन ही खिसक जाती है।
गाँधी का संघर्ष सार्वजनिक स्थल से एक पहचान को बहिष्कृत किए जाने के ख़िलाफ़ था। सड़क पर अफ्रीकी, भारतीय लोगों के गोरे अंग्रेजों के साथ चलने का प्रश्न हो, पहले दर्जे में उनके यूरोपीय लोगों के साथ सफर करने का प्रश्न हो या अदालत में हैट के साथ पगड़ी को स्वीकार करने का सवाल : बात एक ही है। दूसरी बात यह भी है कि जो अल्पसंख्यक है, उसे सार्वजनिक स्थल पर इत्मीनान का अहसास मिलता है या नहीं। पारंपरिक कारणों से ही सही, जिनका कोई ‘वैज्ञानिक’ कारण न भी हो, अगर कोई पगड़ी पहनकर इत्मीनान महसूस करता है तो उसे सार्वजनिक स्थल पर एकरूपता के तर्क से मना नहीं किया जा सकता। वही बात सिंदूर या हिजाब के प्रसंग में लागू होती है।
एक विवाहित महिला सिंदूर के साथ कॉलेज आ सकती है या नहीं? कई हिंदू समुदायों में यह आवश्यक नहीं, इसका कोई धर्मशास्त्रीय विधान नहीं। तो क्या इस आधार पर किसी स्कूल या कॉलेज को इसकी मनाही करने का अधिकार है? यही बात पगड़ी या हिजाब के इस्तेमाल पर भी लागू होती है।
हेमंत गुप्ता के साथ उसी पीठ पर बैठे दूसरे न्यायाधीश हिमांशु धूलिया ने स्वतंत्रता, चुनाव के अधिकार और इज्जत के रिश्ते को समझा। शाहरुख़ आलम ने इन दोनों के नज़रिए की https://bit.ly/3Tmj6iY तुलना करते हुए ठीक ही लिखा है कि न्यायाधीश धूलिया का यह रवैया बेहतर है कि हमने सार्वजनिक स्थलों पर विविधता से घबराना नहीं चाहिए, बल्कि उसका स्वागत करना चाहिए।