+
क्या सुप्रीम कोर्ट को निर्धारित करना चाहिए राज्यपालों के स्व-विवेक का दायरा?

क्या सुप्रीम कोर्ट को निर्धारित करना चाहिए राज्यपालों के स्व-विवेक का दायरा?

देश के संसदीय इतिहास में ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है कि किसी प्रदेश के राज्यपाल के फ़ैसले पर सवाल उठाए जा रहे हैं। 

देश के संसदीय इतिहास में ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है कि किसी प्रदेश के राज्यपाल के फ़ैसले पर सवाल उठाए जा रहे हैं, इससे पहले भी कई राज्यों में राज्यपाल के फ़ैसले पर सवाल उठे हैं और उन्हें सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जब महामहिमों का विवेक लोकतंत्र को चोटिल होने से नहीं बचा पाया। गोवा, मेघालय, मणिपुर, कर्नाटक के ताजा उदाहरणों में अब एक नाम और जुड़ गया है महाराष्ट्र का। 

महाराष्ट्र में भी राज्यपाल के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी है। लेकिन महाराष्ट्र का मामला कर्नाटक से थोड़ा अलग है। यहां सबसे बड़े दल बीजेपी को सरकार बनाने का निमंत्रण भेजा गया और 72 घंटे का समय भी दिया गया लेकिन बीजेपी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने राज्यपाल से कहा कि उनके पास संख्या बल नहीं है और वह सरकार बनाने का दावा भी नहीं कर रहे हैं। दूसरा निमंत्रण दूसरे नंबर की पार्टी शिवसेना को भेजा गया और 24 घंटे का समय दिया गया। शिवसेना नेता राज्यपाल से मिले और संख्या बल प्रदर्शित करने के लिए 48 घंटे का अतिरिक्त समय माँगा। लेकिन राज्यपाल ने उन्हें समय नहीं देकर तीसरे दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) को निमंत्रण भेज दिया। एनसीपी ने समय की माँग की तो राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन लागू करने की घोषणा कर दी। 

इसके बाद शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी ने सरकार बनाने की कवायद तेज कर दी। तीनों ने मिलकर न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाया और उस पर सहमति बनायी। जिस दिन तीनों दल कोई महत्वपूर्ण घोषणा करने वाले थे उससे पहली रात को राजभवन में घटनाक्रम तेजी से बदल गया। राष्ट्रपति शासन भी हट गया और सुबह होते-होते मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री को शपथ दिला दी गयी। राज्यपाल के इस निर्णय के ख़िलाफ़ कांग्रेस, शिवसेना और एनसीपी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। 

सवाल यह उठता है कि राज्यपाल के निर्णयों को अदालतों में चुनौती देने की ज़रूरत क्यों पड़ती है? राज्यपालों के स्व-विवेक पर आधारित निर्णय असल में उनकी पार्टी के हितों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ जाने की वजह से ऐसी स्थितियां पैदा होती हैं। इसके अनेकों उदाहरण हमारे देश में हैं।

हरियाणा का मामला

1982 में हरियाणा की 90 सदस्यों वाली विधानसभा के चुनाव में त्रिशंकु विधानसभा अस्तित्व में आई थी। कांग्रेस-आई को 35 सीटें मिली थीं और लोकदल को 31। 6 सीटें लोकदल की सहयोगी बीजेपी को मिलीं थी। राज्य में सरकार बनाने की दावेदारी कांग्रेस-आई और लोकदल दोनों ही ने की। कांग्रेस की ओर से भजनलाल और लोकदल की तरफ़ से देवीलाल दावेदार थे। लेकिन राज्यपाल गणपति देव तपासे ने भजनलाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। कहा जाता है कि इस बात से गुस्साए देवीलाल ने राज्यपाल तपासे को थप्पड़ मार दिया था। 

इसी तरह 1983 से 1984 के बीच आंध्र प्रदेश के राज्यपाल रहे ठाकुर रामलाल ने बहुमत हासिल कर चुकी एनटी रामाराव की सरकार को बर्खास्त कर दिया था। उन्होंने सरकार के वित्त मंत्री एन. भास्कर राव को मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया था। राष्ट्रपति के दखल के बाद ही एनटी रामाराव आंध्र की सत्ता दोबारा हासिल कर पाए थे और तत्कालीन केंद्र सरकार को शंकर दयाल शर्मा को राज्यपाल बनाना पड़ा था। 

कर्नाटक में हुई कई घटनाएं

कर्नाटक में तो इसका इतिहास रहा है। 80 के दशक में कर्नाटक के तत्कालीन राज्यपाल पी. वेंकटसुबैया ने जनता पार्टी के एसआर बोम्मई की सरकार को बर्खास्त कर दिया था। बोम्मई ने इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। फ़ैसला बोम्मई के पक्ष में हुआ और उन्होंने फिर से वहां सरकार बनाई। इसी तरह कर्नाटक में राज्यपाल के हस्तक्षेप का एक मामला 2009 में देखने को मिला था, जब राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने बीएस येदियुरप्पा वाली तत्कालीन बीजेपी सरकार को बर्खास्त कर दिया था। राज्यपाल ने सरकार पर विधानसभा में ग़लत तरीके से बहुमत हासिल करने का आरोप लगाया था और दुबारा साबित करने को कहा था। 

2017 और 2018 में भी कर्नाटक में ऐसा ही कुछ हुआ जब राज्यपाल वजुभाई वाला के फ़ैसलों को लेकर सवाल उठे और इन्हें सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी। 

उत्तर प्रदेश में भी 1998 में कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार को राज्यपाल रोमेश भंडारी ने बर्खास्त कर जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। बाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्यपाल के फ़ैसले को असंवैधानिक करार दिया था। जगदंबिका पाल दो दिन तक ही मुख्यमंत्री रह पाए और उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा।

बिहार में 22 मई, 2005 की मध्यरात्रि को राज्यपाल बूटा सिंह ने विधानसभा भंग कर दी थी। उस साल फरवरी में हुए चुनावों में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं प्राप्त हुआ था। बूटा सिंह ने तब राज्य में लोकतंत्र की रक्षा करने और विधायकों की ख़रीद-फरोख़्त रोकने की बात कह कर विधानसभा भंग करने का फ़ैसला किया था।  लेकिन फ़ैसले के ख़िलाफ़ दायर याचिका पर निर्णय सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बूटा सिंह के फ़ैसले को असंवैधानिक बताया था। 

इस तरह के मामलों की सूची काफ़ी लंबी है। 1959 में केरल में ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व वाली बहुमत की सरकार को कांग्रेस नीत केंद्र सरकार द्वारा राज्यपाल की सिफारिश पर भंग किया गया था। 1967 में विपक्षी सरकारों को राज्यपाल द्वारा भंग कराया गया था।

1977 में जनता पार्टी की मोरारजी सरकार द्वारा कांग्रेस की राज्य सरकारों को राज्यपालों को मोहरा बनाकर भंग कराया गया था। 1980 में कांग्रेस की इंदिरा सरकार ने जनता पार्टी की राज्य सरकारों को भंग कर दिया था। यानी कि देश के राजनीतिक इतिहास में त्रिशंकु विधानसभा होने की स्थिति में राजनीतिक दलों ने सारी नैतिकता को ताक पर रखकर सत्ता हथियाने की कोशिशें की हैं और राज्यपाल लोकतंत्र के रक्षक बनने के बजाय केंद्र में सत्तारूढ़ दल के प्रहरी की भूमिका निभाते हुए दिखे हैं। ऐसे में बार-बार यह सवाल उठता है तो सुप्रीम कोर्ट को ही इस मामले में कोई ठोस नियम या पैमाने निर्धारित करने चाहिए कि त्रिशंकु जनमत में किन बातों को ध्यान में रखकर सरकार बनाने की प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए। 

सत्य हिंदी ऐप डाउनलोड करें