सुप्रीम कोर्ट ने वर्शिप एक्ट मामले में केंद्र को तीन माह में हलफनामा दाखिल करने को कहा
सुप्रीम कोर्ट में मंगलवार को प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट यानि पूजा स्थल अधिनियम 1991 के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई हुई।
सुप्रीम कोर्ट में मंगलवार को प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट यानि पूजा स्थल अधिनियम 1991 के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट में इस कानून की वैधता को चुनौती दी गई है। इस मामले में सुनवाई करते हुए कोर्ट ने केंद्र सरकार को तीन महीने में जवाबी हलफनामा दाखिल करने को कहा है। सुप्रीम कोर्ट ने हलफनामा दाखिल करने में एक बार फिर केंद्र सरकार को मोहलत दी है। केंद्र सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि यह मामला विचाराधीन है और सरकार को जवाब दाखिल करने के लिए कुछ और समय चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने इस केस की सुनवाई करते हुए कहा कि केवल याचिकाओं के लंबित होने का मतलब यह नहीं है कि अधिनियम पर रोक लगा दी गई है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की खंडपीठ इस कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली रिट याचिकाओं के एक समूह पर विचार कर रही थी। कोर्ट ने इससे पहले केंद्र सरकार को अपना हलफनामा दाखिल करने के लिए फरवरी 2023 के अंत तक का समय दिया था।
क्या है प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट-1991
1991 प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव सरकार यह कानून लेकर आई थी। प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट या पूजा स्थल अधिनियम 1991 कहता है कि देश की आजादी से पूर्व यानि 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता। कानून के मुताबिक आजादी के समय जो धार्मिक स्थल जैसा था वैसा ही रहेगा। अगर कोई व्यक्ति इस कानून का उल्लंघन करने का प्रयास करता है तो उसे जुर्माना और तीन साल तक की जेल का सजा हो सकती है। यह कानून तब आया जब बाबरी मस्जिद और अयोध्या का मुद्दा बेहद गर्म था। माना जाता है कि बाबरी मस्जिद के विवाद के बाद अन्य जगहों पर वैसा विवाद होने से रोकने के लिए यह कानून बनाया गया था। इसके समर्थक मानते हैं कि यह बेहद जरूरी कानून है, अगर यह नहीं होता तो देश में धर्म स्थलों से जुड़े कई बड़े विवाद सामने आ चुके होते। दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट में इस कानून के खिलाफ दायर याचिकाओं में कहा गया है कि यह कानून हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध को मानने वाले लोगों को अपने धार्मिक स्थलों पर पूजा के अधिकार का दावा करने से रोकता है। इसलिए बनाया गया कानून
1991 के दौरान राम मंदिर - बाबरी मस्जिद विवाद के कारण देश भर में तनाव का माहौल था। राम मंदिर आंदोलन का प्रभाव काफी बढ़ चुका था। इस दौरान अयोध्या के साथ ही कई और जगहों पर मंदिर-मस्जिद विवाद उठने लगा था। इन सब से पहले 1984 में एक धर्म संसद के दौरान अयोध्या, मथुरा, काशी पर दावा करने की मांग की गई थी। ऐसे में देश भर में दंगे और अशांति फैल सकती थी। इन सब को देखते हुए तत्कालीन केंद्र सरकार ने यह कानून बनाया था। इस कानून से अयोध्या विवाद को अलग रखा गया था। कानून में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति इन धार्मिक स्थलों में किसी भी तरह का ढांचागत बदलाव नहीं कर सकता है। उसके वर्तमान स्वरूप को बदला नहीं जा सकता है। इसके साथ ही धार्मिक स्थल को किसी दूसरे पंथ के पूजा स्थल में भी नहीं बदला जाएगा।