पलायन: मी लॉर्ड! भूखे पेट के आगे ईश्वर चर्चा का क्या लाभ?
भूखे भजन न होई गोपाला। पुरानी कहावत है। जब मैं हर रात इस चिंता में रहूँ कि कल सुबह खाना नसीब होगा कि नहीं, कितने बजे आएगा, कितना मिलेगा, वह मुझे, मेरी बच्ची और परिवार को पूरा पड़ेगा कि नहीं, मेरी बच्ची को दूध मिल पाएगा या नहीं और ठीक इसी घड़ी कोई मेरी आध्यात्मिक चिकित्सा करने आ धमके तो मैं उसके साथ कैसा बर्ताव करूँगा
सर्वोच्च न्यायालय को उन श्रमिकों के मानसिक स्वास्थ्य की चिंता है जो बदहवासी में अपने-अपने काम की जगह छोड़कर सैकड़ों यहाँ तक कि हज़ार-हज़ार मील तक पैदल चलकर अपने घर, गाँव के लिए निकल पड़े। उसके सामने उन श्रमिकों के कष्ट निवारण के लिए एक याचिका थी। अदालत ने सरकार को सुना, उसकी अब तक की कार्रवाई की रिपोर्ट देखी और संतोष ज़ाहिर किया कि कोरोना संक्रमण को रोकने का हर संभव प्रयास सरकार कर रही है। लेकिन जिस बात पर उसे विचार करना था, वह यह न थी। विचारणीय थी इन लाखों श्रमिकों की यातना।
क्या इस पर हमें ताज्जुब होना चाहिए कि जो याचिका इस यातना के बारे में थी उस पर अपने निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार की इस बात को सहमति के साथ नोट किया कि एक भ्रामक या मिथ्या समाचार की वजह से यह भगदड़ मच गई कि यह तालाबंदी तीन महीने से ज़्यादा चलेगी। अदालत ने इस बात को बड़ी फ़िक्र के साथ नोट किया कि इस तरह की ग़लत ख़बर प्रसारित की गई।
सरकार की तरफ़ से जमा रिपोर्ट में लेकिन यह नहीं बताया गया था कि इस तरह की भ्रामक ख़बर के चलते लाखों लोग निकल पड़े। यह बात सरकारी महाधिवक्ता ने अदालत के सामने ज़ुबानी पेश की। यह न बताया उन्होंने कि उनका स्रोत क्या है।
लोगों के यों निकल पड़ने की वजह कोई अफ़वाह न थी। उनमें से प्रायः सबकी रोज़ी मारी गई है। उनके मकान मालिकों ने उन्हें मकान ख़ाली करने को कह दिया है। और सरकार ने तालाबंदी करते वक़्त उनके लिए कोई ऐलान नहीं किया। फिर वे क्या करते
ये सवाल अदालत कर सकती थी। नहीं किया। उसने सरकार के रुख़ को सुना। सरकार यह चर्चा नहीं चाहती थी। महाधिवक़्ता चाहते तो थे कि किसी ख़बर को बिना सरकारी मुहर के न प्रसारित किया जा सके।
हमें अदालत का शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि उसने यह निर्देश देने से मना कर दिया। लेकिन एक तरह से उसने सरकार को इस प्रकार की असाधारण विपदा में भ्रामक ख़बर के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का संकेत भी दिया। इस फ़ैसले की रिपोर्ट हर जगह इस शीर्षक के साथ हुई है कि अदालत ने कोरोना वायरस से जुड़े मामले में आधिकारिक यानी सरकारी रुख़ को तरजीह देने का निर्देश दिया है। बहस के दौरान अदालत ने पूछा भी कि सरकार किस क़ानूनी ताक़त से भ्रामक ख़बर को रोकेगी। वह अधिकार आपदा संबंधी क़ानून में सरकार को है।
वह अब इस निर्णय का इस्तेमाल अपने लिए असुविधाजनक ख़बर या मंतव्य, राय या विश्लेषण पर पाबंदी लगाने के लिए कर सकती है।
लेकिन इससे भी अधिक दिलचस्प और विडंबनापूर्ण हिस्सा इस फ़ैसले का वह है जिसमें अदालत इन विस्थापित श्रमिकों के मानसिक उद्वेलन को लेकर चिंतित है। वह उद्वेलन कैसे शमित होगा सरकार अदालत से सहमत है। वह भी अपने ही मुल्क में विस्थापित और शरणार्थी इन भारतीयों को आध्यात्मिक शांति देने के लिए प्रतिबद्ध है। वह इनके राहत शिविरों में हर धर्म के उपदेशकों को भेजेगी, यह आश्वासन उसने अदालत को दिया। और अदालत ने भी इसे संतोष के साथ दर्ज किया।
स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है, यह बचपन में रटाया गया था। भारत के एक बड़े आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानंद ने शिकागो से 1894 में लिखे अपने ख़त में पूछा था, भूखे पेट के आगे ईश्वर चर्चा का क्या लाभ
क्यों इन बेकाम कर दिए बेघर लोगों के दिमाग़ में हलचल है उसे कौन सी धर्म चर्चा थाम सकेगी तीन रोज़ पहले पीठ पर थैला लटकाए और हाथ में प्लास्टिक की बोतल में पानी लिए रास्ते को सीधे देखते बढ़ते जवानों, बुजुर्गों को देख रहा था। जत्थे के पीछे पाँव खींचते एक अधेड़ को गुज़रते सुना। ‘सियाराम, सियाराम,’ हरेक क़दम के लिए यही नामजाप सहारा था। कोई सरकार नहीं, कोई अदालत नहीं! इस मनुष्य को किसी मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ या काउंसेलर की दरकार नहीं। सरकार और अदालत दुनियावी ज़िम्मेदारी की फ़िक्र करें। क्या आप अगले एक महीने इस विस्थापित को सिर्फ़ खिचड़ी देंगे क्या आप वही खाना शाम दर शाम, एक महीना बिना शिकवा खाएँगे
सरकार कहेगी कि राहत शिविरों में हर व्यक्ति को इतना ग्राम भोजन दिया जा रहा है। लेकिन क्या वह मानवीय भोजन है। क्या वह पौष्टिक है या एक महीने बाद वह इन सरकार के राहतार्थियों को पहले तन से तोड़ देगा इस तरह कि वह आप ही आप मन से टूट जाए