भीमा कोरेगाँव मामले में सुधा भारद्वाज को डिफ़ॉल्ट ज़मानत
राष्ट्रीय जाँच एजेन्सी को भीमा कोरेगाँव मामले में एक ज़बरदस्त झटका लगा है, जिससे उसकी फजीहत तो हो ही रही है, उसके कामकाज के तौर तरीके पर भी सवाल उठना लाज़िमी है।
एक बेहद अहम फ़ैसले में बंबई हाई कोर्ट ने बुधवार को वकील और सामाजिक कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज को 2018 के भीमा कोरगाँव-यलगार परिषद हिंसा मामले में डिफॉल्ट ज़मानत दे दी है।
जस्टिस एस. एस. शिन्दे और जस्टिस एन. जे. जमादार की बेंच ने भारद्वाज की डिफ़ॉल्ट ज़मानत पर सुनवाई 4 अगस्त को ही पूरी कर ली थी। इस मामले के दूसरे आठ अभियुक्तों की ज़मानत पर सुनवाई 1 सितंबर को पूरी कर ली गई।
8 अभियुक्तों को ज़मानत नहीं
अदालत ने सुधा भारद्वाज को डिफॉल्ट ज़मानत देते हुए बाकी आठ अभियुक्तों की ज़मानत याचिका खारिज कर दी है। ये आठ अभियुक्त हैं- सुधीर डवाले, पी. वरवरा राव, रोना विल्सन, सुरेंद्र गाडलिंग, प्रोफ़ेसर शोमा सेन, महेश राउत, वर्नोन गोंजाल्विस और अरुण फरेरा।
इन सभी की गिरफ़्तारी 2018 में जून से अगस्त महीने की बीच हुई थी। अदालत ने सुधा भारद्वाज को 8 दिसंबर से पहले एनआईए के विशेष कोर्ट में पेश होने के लिए कहा है और यहीं ज़मानत की शर्तों पर फ़ैसला होगा।
कैसे मिली ज़मानत?
सुधा भारद्वाज के वकील युग चौधरी ने हाई कोर्ट रजिस्ट्री से आरटीआई आवेदन पर जवाब के हवाले से अदालत को बताया कि जिन अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के. डी. वडाने की अदालत में भारद्वाज को पेश किया गया था, वे यूएपीए के तहत मामलों की सुनवाई के लिए अधिकृत नहीं थे। भारद्वाज पर अनलॉफ़ुल एक्टिविटीज़ प्रीवेन्शन एक्ट (यूएपीए) के तहत मामला लगाया गया है।
युग चौधरी ने अदालत में कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फरवरी के एक फ़ैसले में यह कहा गया है कि यूएपीए मामलों की सुनवाई सिर्फ विशेष अदालत में ही की जा सकती है।
हालांकि सरकार का कहना था कि सुधार भारद्वाज के मामले में विशेष जज की ज़रूरत ट्रायल के दौरान थी, प्री- ट्रायल सुनवाई के दौरान नहीं।
लेकिन जज ने अभियोजन पक्ष की दलीलों को खरिज करते हुए सुधा भारद्वाज को डिफ़ॉल्ट ज़मानत दे दी।
क्या होती है डिफ़ल्ट ज़मानत?
संविधान के प्रावधानों के अनुसार, एक बार गिरफ्तारी के बाद मामले में जांच के लिये अधिकतम अवधि, जो 60, 90 और 180 दिन (अपराध की प्रकृति के मुताबिक) है, दी जाती है। इस दौरान यदि कोई आरोप पत्र दायर नहीं किया जाता है, तो अभियुक्त ज़मानत पर रिहा होने का हक़दार हो जाता है। इसे ‘डिफॉल्ट’ (आरोप पत्र दायर करने में चूक के कारण मिली) ज़मानत कहते हैं।
दिल्ली हाई कोर्ट ने पहले के एक फ़ैसले में कहा है, 'दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत डिफ़ॉल्ट ज़मानत लेने का अधिकार न सिर्फ वैधानिक बल्कि एक मौलिक अधिकार है, जो संविधान के अनुच्छेद 21 के जरिये प्रदत्त है। इसे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का एक अपरिहार्य हिस्सा माना गया है और इस तरह के अधिकार को महामारी की स्थिति में भी निलंबित नहीं किया जा सकता है।'