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दलितों को उपजातियों में बाँटना क्या आसान होगा जब अधिकतर राज्य पक्ष में नहीं हैं?

दलितों को उपजातियों में बाँटना क्या आसान होगा जब अधिकतर राज्य पक्ष में नहीं हैं?

सुप्रीम कोर्ट ने जिस अनुसूचित जाति एवं जनजाति को उपवर्ग में बाँटने की संभावना को लेकर इस हफ़्ते फ़ैसला दिया है, उस मसले पर अधिकतर राज्यों की सहमति नहीं रही है। 

सुप्रीम कोर्ट ने जिस अनुसूचित जाति एवं जनजाति को उपवर्ग में बाँटने की संभावना को लेकर इस हफ़्ते फ़ैसला दिया है, उस मसले पर अधिकतर राज्यों की सहमति नहीं रही है। उपवर्ग में बाँटने में दलितों का उपवर्गीकरण भी शामिल है और केंद्र सरकार के इस प्रस्ताव को कम से कम 17 राज्य नकार चुके हैं। 'टीओआई' की रिपोर्ट के अनुसार, सिर्फ़ पाँच राज्यों का ही इस पर सकारात्मक रूख रहा है। 

बीजेपी सरकार चाहती है कि पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जाति एवं जनजाति को विभिन्न उपजातियों में विभाजित कर दिया जाए और आरक्षण के कोटे में उपकोटे की व्यवस्था की जाए। हालाँकि 2011 से ही जब यूपीए सत्ता में थी, केंद्र सरकार यह प्रयास कर रही है कि क्या राज्य इस मामले में विचार करने को तैयार हैं। 

2011 में यूपीए कैबिनेट के फ़ैसले पर सामाजिक न्याय मंत्रालय ने राज्यों को इससे जोड़ने की कोशिश की थी। उससे भी पहले राज्यों की चिंताओं पर यूपीए सरकार ने इस मामले को देखने के लिए जस्टिस उषा मेहरा कमीशन का गठन किया था। उस कमीशन ने 2008 में अपनी रिपोर्ट में कहा था फ़िलहाल के नियमों के अनुसार उपवर्ग में बाँटना संभव नहीं है और ऐसा करने के लिए पहले संसद से संविधान में संशोधन कराना होगा। 'टीओआई' ने सूत्रों के हवाले से ख़बर दी है कि राज्यों को इसके लिए विश्वास में लेने का प्रयास अभी भी जारी है और देश में अनुसूचित जाति की जनसंख्या की क़रीब आधी आबादी वाले छह प्रमुख राज्यों-केंद्र शासित प्रदेशों ने अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। इस बारे में यूपी, बिहार, महाराष्ट्र, पुडुचेरी और जम्मू-कश्मीर को दिसंबर 2019 में ही फिर से रिमाइंडर भेजा गया था।

दरअसल, यह प्रयास इसलिए किया जा रहा है क्योंकि 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने दलितों को उपवर्ग में बाँटने को असंवैधानिक क़रार दे दिया था। आरक्षण को उपकोटे में बाँटने को लेकर 2004 में यह फ़ैसला ईवी चिन्नाया बनाम आंध्र प्रदेश सरकार मामले में आया था। पाँच सदस्यों की संविधान पीठ ने इस फ़ैसले में आरक्षण को उपवर्ग में विभाजित करने को ग़लत बताया था। 

सुप्रीम कोर्ट का गुरुवार को आया यह ताज़ा फ़ैसला एक तरह से सुप्रीम कोर्ट के 2004 के फ़ैसले की समीक्षा की तरह है।

उस फ़ैसले पर टिप्पणी करते हुए जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली 5 न्यायाधीशों की पीठ ने कहा है कि उस मामले का सही ढंग से निपटारा नहीं किया गया था, लिहाज़ा पीठ ने इस मसले को भारत के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे के समक्ष भेजते हुए 7 जजों या उससे बड़ी पीठ से सुनवाई का आग्रह किया है।

सुप्रीम कोर्ट का अनुसूचित जाति-जनजाति को उपवर्ग में बाँटने की संभावना पर गुरुवार को जो फ़ैसला आया है उसका सीधा असर कोटे के भीतर कोटे की व्यवस्था पर पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने भी कहा, 'निचले स्तर तक आरक्षण का लाभ पहुँचाने के इरादे से राज्य अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग के भीतर भी उपवर्ग बना सकते हैं।'

उपजातियों में बाँटने का विवाद

दरअसल, विभाजन के समर्थकों का पूरा तर्क ही इसी आधार पर है कि पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जाति एवं जनजाति में कुछ जातियाँ ऐसी हैं, जो आरक्षण का पूरा लाभ उठा ले रही हैं। ये जातियाँ अन्य की तुलना में संपन्न और ताक़तवर हैं और उन्हें ही पूरी मलाई मिल रही है। अगर इन्हें उपजातियों में विभाजित कर दिया जाए तो उन जातियों को लाभ मिल सकेगा, जो वंचित हैं। जबकि विभाजन के विरोधियों का तर्क है कि यह पूरी तरह राजनीतिक कवायद है और यह वोट बैंक के लिए सोशल इंजीनियरिंग की सियासत है। उनका तर्क है कि यदि इन इन्हें जातियों के आधार पर उपवर्ग में बाँट दिया जाएगा तो वोट बँट जाएँगे और फिर राजनीतिक लाभ लिया जा सकता है। 

उपवर्ग में बाँटने वालों का एक तर्क यह भी है कि जब यही पता नहीं है कि देश में सरकारी और निजी क्षेत्र में जितनी भी नौकरियाँ हैं, मलाईदार से लेकर छोटे पदों पर अनुसूचित जाति-जनजाति और ओबीसी की संख्या कितनी है तो फिर यह कैसे तय होगा कि कोटे का लाभ किसे मिल रहा है इससे भी अव्वल तो यह कि देश की जातिगत जनसंख्या ही उपलब्ध नहीं है तो फिर यह कैसे तय किया जा रहा है। 

बहरहाल, अनुसूचित जाति-जनजाति को उपवर्ग में बाँटने का मामला 7 जजों वाली संविधान पीठ के सामने है, लेकिन इस पर फ़ैसला देना इतना आसान भी नहीं होगा, वह भी तब जब 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने ही ऐसा करने को असंवैधानिक क़रार दे दिया था। 

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