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राम मंदिर निर्माण: राजा राम ने सदैव राजधर्म को चुना

राम मंदिर निर्माण: राजा राम ने सदैव राजधर्म को चुना

अयोध्या में बनने जा रहे रामजन्मभूमि मंदिर सहित 70 एकड़ परिसर की भव्यता पर 1,100 करोड़ रुपये ख़र्च होंगे। यह निर्माण कार्य 3 वर्ष में पूरा होने का अनुमान है। 

अयोध्या में बनने जा रहे रामजन्मभूमि मंदिर सहित 70 एकड़ परिसर की भव्यता पर 1,100 करोड़ रुपये ख़र्च होंगे। यह निर्माण कार्य 3 वर्ष में पूरा होने का अनुमान है। प्रस्तावित राम मंदिर के वैभव की झलक गणतंत्र दिवस पर दिल्ली स्थित राजपथ पर निकली महर्षि वाल्मीकि और राम मंदिर की प्रतिकृति से सुसज्जित उत्तर प्रदेश की झाँकी में मिल जाती है। देश-विदेश में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के हज़ारों मंदिर हैं। ऐसे में अयोध्या स्थित निर्माणाधीन मंदिर क्या एक अन्य राम मंदिर की भांति होगा- जिसकी विशेषता केवल उसकी सुंदरता, भव्यता और विशालता तक सीमित होगी या फिर इसका महत्व कहीं अधिक व्यापक है?

करोड़ों हिंदुओं की आस्था है कि श्रीराम, भगवान विष्णु के एक अवतार हैं। क्या राम को केवल इस परिचय की परिधि से बांधा जा सकता है? वास्तव में, श्रीराम ही भारतीय सनातन संस्कृति की आत्मा हैं, जिनका जीवन इस भूखंड में बसे करोड़ों लोगों के प्रेरणास्रोत है। वे अनादिकालीन भारतीय जीवनमूल्य, परंपराओं और कर्तव्यबोध का शाश्वत प्रतीक हैं। इसलिए गांधी जी के मुख पर श्रीराम का नाम रहा, तो उन्होंने आदर्श भारतीय समाज को रामराज्य में देखा। यह विडंबना ही है कि स्वतंत्रता के बाद जीवन के अंतिम क्षणों में राम का नाम (हे राम) लेने वाले बापू की दिल्ली स्थित राजघाट समाधि तो बीसियों एकड़ में फैली है, किंतु 5 अगस्त 2020 से पहले स्वयं रामलला अपने जन्मस्थल पर अस्थायी तिरपाल और तंबू में विराजमान रहे। यही नहीं, 2007 में स्वघोषित गांधीवादियों ने अदालत में श्रीराम को काल्पनिक बता दिया।

यह विडंबना ही है कि जहाँ देश का एक वर्ग (वामपंथी-जिहादी कुनबा सहित) भारतीय संस्कृति और उसके प्रतीकों से घृणा करता है, वहीं ब्राज़ील के राष्ट्रपति जेयर बोलसोनारो ने भारत द्वारा भेजी स्वदेशी कोविड वैक्सीन पर ‘संजीवनी बूटी ले जाते भगवान हनुमान’ की तस्वीर ट्वीट करते हुए धन्यवाद किया है। बोलसोनारो का यह संकेत भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों की वैश्विक स्वीकार्यता को रेखांकित करता है।

श्रीराम मंदिर पुनर्निर्माण कार्य क्या 6 दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचे विध्वंस के बिना संभव होता? वास्तव में, 28 वर्ष पहले कारसेवकों द्वारा ढाँचे को कुछ ही घंटे के भीतर ध्वस्त करना, कई सौ वर्षों के अन्याय से उपजे ग़ुस्से का प्रकटीकरण था। यह सब अपने भीतर एक सभ्यतागत युद्ध को समेटे हुए है, जिसकी जड़ें आठवीं शताब्दी से विदेशी इस्लामी आक्रांताओं द्वारा भारत पर आक्रमण में मिलती है। 500 वर्ष पहले अयोध्या में जिहादियों द्वारा प्राचीन मंदिर तोड़कर खड़ा किया गया बाबरी ढांचा इबादत हेतु मस्जिद ना होकर ‘काफिर-कुफ्र’ की अवधारणा से प्रेरित बाबर द्वारा भारत की सांस्कृतिक पहचान और अस्मिता को समाप्त करने का उपक्रम था।

श्रीरामजन्मभूमि मुक्ति हेतु शताब्दियों तक चला संघर्ष न किसी भूमि के टुकड़े के स्वामित्व हेतु था, न ही इस्लाम के ख़िलाफ़ युद्ध है और न ही कोई मंदिर-मस्जिद का मामला। यह सांस्कृतिक मूल्यों और ध्वस्त प्रतीकों की पुनर्स्थापना का संघर्ष है, जिसका प्रतिनिधित्व श्रीराम करते हैं। इसलिए पिछले 1,400 वर्षों से भारतीय उपमहाद्वीप में जहाँ-जहाँ प्रभु श्रीराम द्वारा स्थापित आदर्श जीवनमूल्यों का ह्रास हुआ, वहाँ-वहाँ लोकतंत्र, बहुलतावाद और पंथनिरपेक्षता समाप्त हो गया। अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और खंडित भारत का संपूर्ण कश्मीर क्षेत्र- इसका जीवंत उदाहरण है।

जहाँ 1528 में जिहादियों ने अयोध्या स्थित मंदिर को नष्ट किया, वहीं मार्क्स-मैकॉले मानसबंधु ने सफेद झूठ और अर्द्ध-सत्य का सहारा लेकर श्रीराम की छविभंजन का कुप्रयास किया।

श्रीराम को पिछड़ा, आदिवासी, दलित और स्त्री विरोधी के रूप में प्रस्तुत करने हेतु गोस्वामी तुलसीदासजी की चौपाई:- ‘ढोल गवांर, शुद्र, पशु, नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।’ का दुरुपयोग होता है।

रामकथा को तुलसीदासजी ने अपने शब्दों में गढ़ा है। इसमें विभिन्न पात्रों द्वारा बोले गए संवाद भी हैं। परंतु वामपंथी-जिहादी कुनबे ने उपरोक्त चौपाई को अपने भारत-हिंदू विरोधी एजेंडे के अनुरूप अनुवादित कर प्रस्तुत किया है। इस चौपाई में शब्द श्रीराम या अन्य किसी चरित्र के न होकर एक भयभीत सागर के हैं, जो रामसेतु के निर्माण से पहले श्रीराम के प्रकोप से डरा हुआ खड़ा है। ‘बिनय न मानत जलधि जड़, गए तीनि दिन बीति। बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति॥’

 - Satya Hindi

प्रतीकात्मक तसवीर।

श्रीराम ने दुराचारी रावण का वध किया- जो जन्म से पुलस्त्य कुल का ब्राह्मण और प्रकांड विद्वान था, परंतु अपने आचरण और कर्मों से असुर। सोने की लंका दुराचार और पाप का प्रतिनिधित्व करती है, इसलिए जला दी गई। श्रीराम के चिंतन में व्यक्ति का सम्मान उसके आचरण और चरित्र से होता है, उसके वैभव, कुल या जाति से नहीं।

यूँ तो आधुनिक विश्व ने युद्ध के समय मानवीय मूल्यों और मर्यादा की रक्षा लगभग 120 वर्ष पहले हेग कंवेन्शन में सुनिश्चित की थी, यह अलग बात है कि उसके बाद भी प्रथम-द्वितीय विश्वयुद्ध, हिटलर द्वारा यहूदियों के उत्पीड़न, स्टालिन-लेनिन द्वारा वैचारिक विरोधियों (कैदियों) के दमन और चीन-जापान के बीच हुए युद्धों आदि में मानवता शर्मसार हुई। किंतु सनातन भारत में मानवीय मूल्य और मर्यादा पिछले पाँच हज़ार वर्षों से व्यवहार में है, जिसे स्वयं श्रीराम ने स्थापित किया है।

युद्ध में विजयी होने के पश्चात श्रीराम मर्यादा नहीं भूले। न तो उन्होंने बालि वध के बाद किष्किन्धा पर कब्जा किया और न ही लंका पर अपना अधिकार जमाया। श्रीराम किष्किन्धा में सुग्रीव को राजा घोषित करते हैं, तो रावण वध पश्चात विभीषण का विधिवत राज्याभिषेक का निर्देश देते हैं।

स्पष्ट है कि श्रीराम द्वारा किया गया युद्ध- लोभ और राज्यलिप्सा से प्रेरित नहीं, अपितु धर्मरक्षा हेतु है। श्रीराम के लिए स्त्री पूज्य है। बाली और रावण वध इसका प्रमाण है, जिसके केंद्र में स्त्री के आत्म-सम्मान और शालीनता की रक्षा निहित है।

इस पृष्ठभूमि में इस्लामी आक्रांताओं ने जब भारत में आकर हिंदू शासकों पर विजय प्राप्त की, तब उन्होंने अपनी जीत और मजहबी नशे में पराजितों का संहार किया, पराजित महिलाओं की अस्मिता और मंदिरों को खंडित किया व स्थानीय हिंदुओं को इस्लाम अपनाने या मौत चुनने के लिए बाध्य किया।

श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम इसलिए हैं- क्योंकि उन्होंने गरिमापूर्ण परिधि को कभी नहीं लांघा और उसकी रक्षा हेतु कोई भी क़ीमत देने को तत्पर रहे। जब श्रीराम अयोध्या नरेश बने, तब उनके लिए बाक़ी सभी संबंध गौण हो गए। एक दलित के कहने पर वे अपनी प्रिय सीता का त्याग कर देते हैं। अवश्य ही यह सीता और उनकी होने वाली संतानों पर घोर अन्याय का प्रतीक है। परंतु राजधर्म अपनी क़ीमत मांगता है। निजी सुख और राज्य के प्रति कर्तव्य के बीच श्रीराम ने सदैव राजधर्म को चुना।

श्रीराम किनके प्रिय हैं?

श्रीराम यदि अयोध्यावासियों के प्रिय हैं, तो समस्त वनवासी भी मुक्त हृदय से उनका स्वागत करते हैं। जीवन के सबसे कठिन काल में श्रीराम के मित्र और सलाहकार केवट, निषाद, कोल, भील, किरात, वनवासी, वानर और भालू हैं। सीताहरण के पश्चात जब श्रीराम को सहायता की आवश्यकता होती है, तब वे अपने स्वाजातिय बंधुओं के स्थान पर, आज के संदर्भ में जिन्हें वनवासी, आदिवासी, पिछड़ा या अति-पिछड़ा कहा जाता है- उन्हें अपना साथी बनाते हैं। इन सबके लिए श्रीराम ने बार-बार ‘सखा’ शब्द का उपयोग किया है। श्रीराम के लिए वनवासी हनुमान अनुज लक्ष्मण से अधिक प्रिय हैं। शबरी- जिसका पिछड़ापन दोहरा, अर्थात् वह स्त्री और आदिवासी- दोनों है, उसके जूठे बेर ग्रहण करने में श्रीराम संकोच नहीं करते।

श्रीराम का स्नेह केवल मनुष्यों तक सीमित नहीं है। उन्होंने गिद्धराज जटायु को उनके कर्मों से देखा और पिता की प्रतिष्ठा देते हुए उनका अंतिम-संस्कार किया।

संभवत: श्रीराम के समदर्शी चरित्र को ध्यान में रखकर ही रामायण कथा का वर्णन तुलसीजी ने काक से करवाया, न कि मयूर, कोयल या हंस के मुख से। महर्षि वाल्मीकि रामकथा के आदिगायक हैं और उनके परिचय में तीनों संज्ञाओं- व्याध, ब्राह्मण और शूद्र का उपयोग होता है। मुनि वाल्मीकि को जाति में बांधा नहीं जा सकता। श्रीराम की महिमा गाते-गाते वह भी स्वयं भगवान हो चुके हैं।

सच तो यह है कि राम का व्यक्तित्व नगर-वन, वर्ण-वर्ग, लिंगभेद और जड़-चेतन की सीमाओं को पार करने वाला है। यदि भारत में लोकतंत्र, बहुलतावाद, सामाजिक समरसता और सामाजिक न्याय जैसे मूल्यों को जीवित रखना है, तो उसके लिए राम के नाम और उनसे जुड़े मूल्यों को जीवंत रखना ही होगा। इस कड़ी में अयोध्या में राम मंदिर का पुनर्निर्माण पहला वस्तुनिष्ठ क़दम है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।)

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