श्रीलंका-अडानी सौदा पहला विवादित मामला नहीं, राफेल याद है?
भारत फिलहाल एक तरफ तो राहुल गांधी से ईडी की पूछताछ और कांग्रेस के प्रदर्शन में व्यस्त है और दूसरी तरफ बीजेपी नेता नूपुर शर्मा की टिप्पणी से पैदा हुए विवाद का सामना कर रहा है। लेकिन इन सबके बीच कथित भ्रष्टाचार की एक बड़ी खबर दबकर रह गई। न उस पर कोई हंगामा है और न चर्चा है।
वह है श्रीलंका से जुड़े मामले में पीएम मोदी और भारत के बड़े उद्योग समूह अडानी का नाम आना। हालांकि यह ऐसा पहला मामला नहीं है। 2018 से लेकर 2021 तक राफेल डील में भी इसी तरह पीएम मोदी और चर्चित उद्योगपति अनिल अंबानी का नाम आया था। अनिल अंबानी के पास हवाई जहाज का मामूली पुर्जा बनाने की भी फैक्ट्री नहीं थी लेकिन उन्हें राफेल का काम मिल गया था। बीजेपी के कार्यकाल में फिलहाल दो बड़े मामले कथित भ्रष्टाचार से जुड़े सामने आए हैं लेकिन यूपीए के कार्यकाल में भी कई रक्षा सौदे विवाद में आते रहे हैं। कुछ की जांच मोदी सरकार ने भी कराई है।
क्या था राफेल डील का विवाद
फ्रांस की एक खोजबीन करने वाली वेबसाइट मीडिया पार्ट को सितम्बर 2018 में फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति ओलांद ने दिए गए इंटरव्यू में कहा कि राफेल डील में हमारा कोई दखल नहीं था। यह भारत सरकार थी जिसने इस सेवा समूह (रिलायंस) का प्रस्ताव रखा था, और डसॉल्ट ने अनिल अंबानी के साथ बातचीत की थी। हमारे पास कोई विकल्प नहीं था, हमने उस वार्ताकार (interlocutor) को लिया जो हमें दिया गया था।
पूर्व राष्ट्रपति के बयान से साफ है कि भारत की ओर से ही रिलायंस के नाम का प्रस्ताव रखा गया यानी राफेल बनाने वाली कंपनी डसॉल्ट के पास इस एकमात्र विकल्प के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। राफेल डील के इस पूरे मुद्दे को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा।
पीएम मोदी ने 2014 में देश की सत्ता संभाली थी। 2015 में, मोदी ने वायु सेना के नवीनीकरण के लिए 36 राफेल लड़ाकू जेट खरीदने के लिए फ्रांसीसी विमानन कंपनी डसॉल्ट के साथ रक्षा सौदे की घोषणा की। 8.7 अरब डॉलर का यह सौदा भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के आरोपों से घिरा हुआ है।
फ्रांस के राष्ट्रीय वित्तीय अभियोजक कार्यालय (पीएनएफ) के अनुसार, 2 जुलाई 2021 को फ्रांस ने भ्रष्टाचार के आरोपों की न्यायिक जांच शुरू की। यह जांच फ्रांसीसी खोजी वेबसाइट मीडिया पार्ट की वजह से शुरू हुई, जिसमें दावा किया गया था कि लाखों यूरो का छिपा हुआ कमीशन एक बिचौलिए को दिया गया था जिसने डसॉल्ट को डील करने में मदद की थी। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि कुछ पैसे भारतीय अधिकारियों को रिश्वत के तौर पर भी दिए गए। हालांकि डसॉल्ट ने कहा है कि उसके ऑडिट में कोई वित्तीय गड़बड़ी नहीं मिली है। हालांकि फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति ओलांद 2018 में सारी बातें साफ कर चुके थे।
भारत में भी मोदी सरकार की राफेल डील कम विवादों में नहीं रही। दरअसल, फ्रांस में भ्रष्टाचार का मामला खुलने के बाद यहां शोर मच गया।
मोदी सरकार की 2015 की राफेल डील से भी बहुत पहले कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने भी राफेल खरीदने के लिए बातचीत शुरू कर रखी थी। यूपीए की तत्कालीन सरकार ने फ्रांसीसी कंपनी को 2012 में भारत की मध्यम मल्टी-रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एमएमआरसीए) को चुनने के बाद डसॉल्ट के साथ बातचीत की थी। भारतीय सेना के लिए 126 राफेल लड़ाकू विमानों की आपूर्ति करने का इरादा जताया गया था।
हालांकि, यूपीए और डसॉल्ट के बीच बातचीत इस बात पर ठप हो गई कि भारत में सरकारी स्वामित्व वाली हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) इनमें से 108 विमानों को बनाएगी। यानी उस समय की डॉ मनमोहन सिंह सरकार चाहती थी कि राफेल अपनी टेक्नॉलजी भारत को ट्रांसफर करे और भारत की सरकारी कंपनी एचएएल इन विमानों को बनाए।
डसॉल्ट को को प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के साथ-साथ ऐसे विमान बनाने की एचएएल की क्षमता पर संदेह था।
लेकिन इसी दौरान सरकार बदल गई। बीजेपी केंद्र की सत्ता में आ गई। मोदी सरकार ने पिछली डील को खत्म कर दिया और नए सिरे से सिर्फ 36 विमान के लिए बातचीत शुरू कर दी गई। यह सौदा अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस एयरोस्पेस को मिला, जिसके पास तब तक हवाई जहाज के पुर्जे बनाने का न तो कोई अनुभव था और न ही कोई फैक्ट्री कहीं थी। डसॉल्ट जिसने सरकारी कंपनी एचएएल की क्षमता पर संदेह जताया था, उसने रहस्यमय ढंग से रिलायंस से डील कर लिया। मात्र तथ्यों से ही समझा जा सकता है कि अनिल अंबानी को कैसे यह डील मिली होगी और इसमें मोदी सरकार की क्या भूमिका रही होगी।
एक और महत्वपूर्ण तथ्य का उल्लेख जरूरी है। भारत ने 36 राफेल विमानों के लिए यह डील 8.7 अरब डॉलर में की, जबकि इंडोनेशिया ने इसी साल उसी कंपनी से 42 राफेल खरीदने के लिए 8.1 अरब डॉलर में समझौता किया है। एक देश भारत की डील के 6 साल बाद उसी कंपनी से डील करता है, उसे ज्यादा विमान मिल रहे हैं और भारत के मुकाबले कम पैसे पर मिल रहे हैं।
बहरहाल, राफेल भारत में आ चुके हैं। फ्रांस से समय पर डिलीवरी मिल रही है। भारत और फ्रांस में भ्रष्टाचार का मुद्दा नेपथ्य में चला गया है।
क्या है श्रीलंका का मामला
श्रीलंका के एक पावर प्रोजेक्ट से यह मामला जुड़ा है। वह प्रोजेक्ट भारतीय उद्योगपति गौतम अडानी को मिला था। पिछले शुक्रवार को तब इस पर बड़ा विवाद छिड़ गया जब एक श्रीलंकाई अधिकारी एमएमसी फर्डिनेंडो ने संसदीय समिति के सामने दावा किया कि राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दबाव में काम किया था। हालांकि जब दबाव बढ़ा तो फर्डिनेंडो ने सीलोन इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड (सीईबी) चेयरमैन पद से इस्तीफा दे दिया और उनका इस्तीफा फौरन स्वीकार कर लिया गया। गोटाबाया राजपक्षे ने भी इस मामले में खंडन जारी किया।
श्रीलंका में भ्रष्टाचार की यह खबर वहां के प्रमुख मीडिया समूह 'न्यूज़ फर्स्ट' ने दी थी। रिपोर्ट से पता चलता है कि श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने उस अधिकारी को बताया था कि भारत के पीएम नरेंद्र मोदी ने अडानी समूह को सीधे 500 मेगावाट की पवन ऊर्जा परियोजना देने पर जोर दिया था।
समिति के सामने सीईबी के अध्यक्ष ने कहा था कि राष्ट्रपति की अध्यक्षता में एक बैठक के बाद उन्हें राज्य के प्रमुख द्वारा बुलाया गया था और तभी अडानी समूह को लेकर वह बात कही गई थी। रिपोर्ट के अनुसार फर्डिनेंडो ने समिति को बताया था, 'मैंने उनसे कहा कि यह मेरे या सीईबी से संबंधित मामला नहीं है और इसे निवेश बोर्ड को भेजा जाना चाहिए।' सीईबी के अध्यक्ष ने कहा था कि इसके बाद उन्होंने ट्रेजरी सचिव को लिखित रूप में सूचित किया, और उनसे यह कहते हुए अनुरोध किया कि वे यह ध्यान में रखते हुए इस मामले पर गौर करें कि सरकार से सरकार स्तर पर यह ज़रूरी है। लेकिन चेयरमैन बाद में अपने बयान से पलट गए।
यह मामला अब दबकर रह गया है।उद्योगपतियों की लॉबी कितनी मजबूत होती है, यह उसका जीता जागता उदाहरण है।
विदेशों में भारत की बड़ी कंपनियों के लिए ऑर्डर पाना बहुत बड़ी बात मानी जाती है। अडानी को कई देशों में विभिन्न परियोजनाओं के ठेके मिले हैं। ऑस्ट्रेलिया में तो कोयला खदान मामले में वहां के अखबारों ने अडानी समूह पर पर्यावरण के नियमों के उल्लंघन का भी आरोप लगाया है। कई पर्यावरण समूहों ने प्रदर्शन तक किए। विदेश में सौदे पर भ्रष्टाचार और सरकारों के राजनीतिक दखल के आरोप लगते रहते हैं। यूपीए के कार्यकाल में हुए कई रक्षा सौदों पर ऊंगली उठ चुकी है और उनमें से कुछ मामलों में मोदी सरकार जांच भी करा रही है। कुछ मामले अदालतों में चल रहे हैं।