जाति न पूछो खिलाड़ी की...
क़रीब पाँच-छह साल पहले मशहूर तीरंदाज़ लिंबा राम से मिलने डूंगरपुर जाना हुआ था। तब लिंबा वहाँ खेल अधिकारी के तौर पर तैनात थे। लिंबा से पुराना याराना था। कोलकाता में ट्रेनिंग के दौरान लिंबा के साथ घंटों चकल्लस करते थे। वे सहज और सरल थे लेकिन भारतीय तीरंदाज़ी का चेहरा उन्होंने बदला। डूंगरपुर में वह लहक कर मिले। पत्नी भी मिलीं। लगा बरसों के बिछड़े संगतिया मिल बैठे हैं। पत्नी से पहली बार मिलना हुआ था। उनके छोटे से घर के रख-रखाव को देख कर लगा कि लिंबा की पत्नी ईसाई हैं। फिर लिंबा के साथ हम लोगों ने चाय पी। उन्हें हल्दीघाटी में होने वाले मैराथन में हिस्सा लेने का न्यौता दिया।
इससे पहले जयपुर में हम मशहूर धावक श्रीराम सिंह और सपना पूनिया से भी मिल कर आए थे। मेरे साथ अमित किशोर और मलय सौरभ भी थे। लिंबा से मुलाक़ात का ज़िक्र ज़रूरी इसलिए लगा कि आज खिलाड़ियों को जातियों में बाँटने की नई परंपरा शुरू हुई है। अपनी-अपनी जाति के खिलाड़ियों को लेकर सोशल मीडिया पर उनका ख़ूब महिमामंडन किया जाता है। हालाँकि हमने न कभी लिंबा से पूछा कि उनका ताल्लुक किस जाति से है और न ही श्रीराम सिंह और सपना से, न ही दूसरे खिलाड़ियों से।
खेल पत्रकारिता के दौरान न जाने कितने खिलाड़ियों से मिलना-जुलना रहा। लेकिन न तो मजहब का सवाल हमने किया और न ही जाति का। दरअसल, यह बताने का मक़सद सिर्फ़ इतना है कि खिलाड़ी हमारे राष्ट्रीय गौरव रहे और नायक भी। उन्हें हमने जाति और संप्रदाय में नहीं बांटा। थोड़ी देर के लिए कह सकते हैं कि किसी मुसलमान खिलाड़ी को लेकर मेरे मन में ज्वार उठा हो कि वह अच्छा करे। लेकिन खेल पत्रकारिता के दौरान इसका इजहार न के बराबर किया। अजहरुद्दीन से ज़्यादा पहचान नरेंद्र हीरवानी, प्रवीण आमरे या चेतन शर्मा से रही। अजहरुद्दीन से तो कई बार तकरार तक हुई।
मेरा मानना था कि खेलों के नायक धर्म और जाति से ऊपर हैं। लेकिन हाल के कुछ सालों में एक नया चलन देखने को मिल रहा है। खास कर उत्तर भारत में यह चलन तेज़ी से पाँव पसार रहा है। नायकों को जातियों के चश्मे से देखने की। खिलाड़ियों को भी अब जातियों में बाँट कर महिमामंडित किया जाने लगा है, जो सही नहीं है। हाल के कुछ सालों में मुझे पता चला कि ध्यानचंद और अशोक कुमार किस जाति से ताल्लुक रखते हैं। न तो ध्यानचंद ने और न ही अशोक कुमार ने कभी अपनी जाति का ज़िक्र किया लेकिन सियासत ने खेलों में भी जातियों का घुसपैठ कर डाला है। यह प्रवृत्ति ख़तरनाक है।
कुछ साल पहले इसी तरह से खेलों में जातियों के दबदबे को लेकर ब्राह्मणवादी सोच के ख़िलाफ़ कुछ दलित चिंतक मुखर हुए थे। प्रभाष जोशी के लिखे एक आलेख पर जातियों को गोलबंद करने की नाकाम कोशिश की गई थी। पंद्रह-सोलह साल पहले इस तरह खेलों को जातियों के चश्मे से देखने की कोशिश की गई थी। प्रभाषजी ने सचिन तेंदुलकर और विनोद कांबली की तुलना अपने कॉलम कागद कारे में संभवतः किया था।
लंबे समय से खेल पत्रकारिता करने के बावजूद मुझे तब तक पता नहीं था कि विनोद कांबली दलित हैं। वह तो उसके बाद जो तूफ़ान खड़ा करने की कोशिश की गई और दलित बनाम ब्राह्मण की एक छद्म नैरेटिव गढ़ने की कोशिश हुई तो पता चला कि विनोद कांबली दलित हैं।
जो भी विनोद कांबली को जानते हैं, उन्हें पता है कि अपने खेल को लेकर वे कभी भी सीरियस नहीं रहे। सीरियस रहे होते तो वे कई इतिहास रच चुके होते लेकिन क्रिकेट से ज़्यादा रुचि वे दूसरी चीजों में लेते थे। खेल से ज़्यादा ध्यान बालों के डिजाइन, झुमके-छल्लों पर देते थे। इसलिए वे सचिन तेंदुलकर से पिछड़े। अमूमन प्रभाष जी का लिखा पढ़ा करता था लेकिन उनका वह लिखा नहीं पढ़ पाया था। बाद में जब हो हल्ला मचा तो पढ़ा। अपने उस लिखे में प्रभाषजी ने कहीं भी विनोद कांबली को लेकर दलित शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था। तुलनात्मक तौर पर दोनों के खेल का ज़िक्र था।
प्रभाष जी सचिन की कलाकारी के कायल थे। संजय मांजरेकर और मोईन ख़ान तक को उन्होंने सचिन की आलोचना करने पर ख़ूब सुनाई थी। लेकिन यार लोगों ने प्रभाष जोशी को ब्राह्मणवादी बता कर ख़ूब शोर मचाया। मन में आज भी यह सवाल कचोटता है कि क्या ऐसा किया जाना सही था क्योंकि वही प्रभाष जी ने तो अजहरुद्दीन के टेस्ट पदार्पण के बाद लगातर तीन शतक ठोंकने पर पहले पेज पर लिखा था- अजहर तेरा नाम रहेगा। अजहर तो ब्राह्मण नहीं थे। फिर पीट संप्रास, स्टेफी ग्राफ, अरांत्सा सांचेज और आंद्रे अगासे की भी कम तारीफें नहीं कीं। इनमें से कौन ब्राह्मण है, मुझे पता नहीं और न ही पता लगाने की कोशिश की। लेकिन तब प्रभाष जोशी के ख़िलाफ़ एक अभियान चलाया गया और उन्हें जातिवाद के चश्मे से न सिर्फ़ देखने की कोशिश हुई बल्कि उनके ख़िलाफ़ एक अघोषित युद्ध-सा छेड़ दिया गया था और उन्हें एक खलनायक के तौर पर पेश करने की कोशिश की गई।
अब यह दखल बढ़ा है। ख़ास कर उत्तर भारत में। दीपिका कुमारी ने हाल ही में तीरंदाज़ी में बेहतरीन प्रदर्शन किया और कई स्पर्धाओं में स्वर्ण पदक जीता। इस जीत के बाद दीपिका की जाति को लेकर सोशल मीडिया में जिस तरह के पोस्ट आए वह शर्मनाक कहे जा सकते हैं। बहस छिड़ गई कइयों में। हर किसी को उन्हें अपनी जाति का बताने की होड़ थी। किसी ने उनके नाम के साथ महतो जोड़ा तो किसी ने मल्लाह तो किसी ने कुछ तो किसी ने कुछ। यह सब देखना-पढ़ना विचलित करने वाला था। खिलाड़ियों का महिमामंडन इस तरह से होगा, इसकी कल्पना भी हमने कभी नहीं की थी।
खिलाड़ियों की कोई जाति नहीं होती, वह सिर्फ़ खिलाड़ी होता है। हमारे लिए तो देश का गौरव बढ़ाने वाले हर खिलाड़ी जाति-धर्म से ऊपर होता है। वे हमारे नायक होते हैं। उन्हें खिलाड़ी ही रहने दें। जाति के बंधन में न बांधें। नहीं तो देश का भी नुक़सान होगा और खेलों का भी।