चिराग से ही रौशन होगी एलजेपी
चिराग पासवान की कई कमजोरियां हैं- अनुभवहीनता, अक्खड़पन और अकेलापन लेकिन इन सब कमजोरियों पर भारी है उनकी एक पहचान। वह पहचान है रामविलास पासवान का बेटा और उनकी लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) का वारिस होना। ऐसा वारिस जिसे रामविलास पासवान ने अपनी जिंदगी में ही बनाया था।
अब यह पूरी तरह चिराग पासवान पर निर्भर है कि अपने चाचा और चचेरे भाई के साथ तीन अन्य सांसदों की बगावत के बाद वे खुद को कितना संभाल पाते हैं। कितनी मेहनत करते हैं। अगर उन्होंने सियासत को बतौर करियर अपनाया तो एलजेपी का चिराग उनसे ही रौशन हो सकता है। पशुपति पारस में वह दमखम और करिश्मा नजर नहीं आता।
‘मोदी का हनुमान’
बिहार विधानसभा चुनाव और उससे कुछ पहले से चिराग पासवान जो राजनीति कर रहे थे, वह सबको पता है। उनका एकमात्र उद्देश्य था नीतीश कुमार और उनके जनता दल यूनाइटेड के उम्मीदवारों को हराना। इसके लिए उन्होंने खुद को ‘मोदी का हनुमान’ भी घोषित किया।
बीजेपी ने औपचारिक रूप से चिराग की अध्यक्षता वाली एलजेपी को एनडीए से बाहर करने की घोषणा की लेकिन यह सबको पता है कि एलजेपी को अपनी पार्टी के मूल वोट के अलावा बीजेपी समर्थकों का भी वोट मिला। इसी की बदौलत उन्होंने लगभग तीन दर्जन सीटों पर जनता दल यूनाइटेड के उम्मीदवारों को हराने में कामयाबी हासिल की।
देखिए, इस विषय पर चर्चा-
दलित राजनीति पर चर्चा
पहले राउंड में बढ़त के बाद चिराग को विधानसभा चुनावों के परिणाम के लगभग नौ महीने बाद अपनी सियासी जिंदगी का शायद सबसे बड़ा झटका लगा और वे एलजेपी के बंगले से लगभग बाहर कर दिये गये। इसके साथ ही बिहार में एलजेपी के भविष्य और दलित राजनीति पर नये सिरे से चर्चा होने लगी है। इस चर्चा में अगर रामविलास पासवान की खुद की राजनीति को ध्यान में रखा जाए तो यह समझने में आसानी होगी कि एलजेपी की रौशनी चिराग से ही क्यों होगी।
सबसे पहले हमें यह याद रखना होगा कि अकेले चुनाव लड़ने और किसी दल के उम्मीदवारों को हराने के उद्देश्य से मैदान मे उतरने का फैसला पहली बार चिराग ने नहीं लिया था। फरवरी 2005 में रामविलास पासवान ने अपने अधिकतर उम्मीदवार लालू प्रसाद की आरजेडी को हराने के लिए खड़े किये थे।
अलबत्ता, दोनों फैसलों के नतीजों में यह फर्क जरूर था कि तब एलजेपी ने 29 सीटों पर जीत हासिल की थी, 2020 में उसे सिर्फ एक सीट मिली।
पहले भी हुई थी टूट
फरवरी 2005 में एलजेपी के 178 सीटों पर चुनाव लड़ने का नुकसान लालू प्रसाद के साथ-साथ एनडीए के उम्मीदवारों को भी हुआ था। इसके बाद एलजेपी में भारी टूट हुई थी और इसके 21 विधायकों ने पार्टी छोड़ दी थी। इसलिए अकेले लड़ने और पार्टी में टूट का मामला सिर्फ चिराग पासवान के साथ का नहीं है।
चिराग का था फ़ैसला
दूसरी बात यह भी याद रखने की है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में एलजेपी को एनडीए में ले जाने का फैसला रामविलास पासवान का नहीं बल्कि चिराग पासवान का था। उस समय नीतीश कुमार एनडीए से बाहर थे और जेडीयू को महज दो सीटों पर सीमित होना पड़ा था।
जेडीयू के जो नेता रामविलास पासवान की एक ही सांस में प्रशंसा और चिराग पासवान की आलोचना करते हैं, वे इन दोनों बातों को सहजता के लिए नजरअंदाज कर देते हैं। इसके अलावा जेडीयू का यह कहना कि उसका गठबंधन कभी एलजेपी के साथ नहीं रहा, तथ्यात्मक रूप से सही नहीं है। 2019 को लोकसभा चुनाव में एलजेपी और जेडीयू एनडीए का हिस्सा थे।
जेडीयू की भूमिका
एलजेपी में चिराग के खिलाफ बगावत के लिए जेडीयू के नेता नीतीश कुमार और पार्टी के अन्य नेताओं की भूमिका से औपचारिक रूप से इनकार भले करें लेकिन उनके इशारों से उनकी खुशी देखी जा सकती है। उनकी इस रणनीति का ही हिस्सा है कि उन्होंने इस काम के लिए स्वर्गीय रामविलास पासवान के भाई को आगे किया ताकि यह आरोप न लगे कि एलजेपी पर गैर दलित कब्जा कर रहे हैं।
ध्यान रहे कि पासवान परिवार से बाहर के जो तीन सांसद हैं, वे तीनों सवर्ण हैं और अभी पशुपति पारस के साथ हैं। उनका साथ कितने दिन चलेगा इसका पता लगने में अभी कुछ देर लगेगी लेकिन यह याद रखना होगा कि दल-बदल कानून से बचने तक की व्यवस्था होने तक उन्हें इंतजार करना होगा।
चिराग पासवान के पास अब खोने के लिए कुछ नहीं है। पार्टी के कई नेता पहले ही उनका साथ छोड़ चुके हैं- हार के बाद और सत्ता से दूरी में तो बड़ी-बड़ी पार्टियों को यह झेलना पड़ता है। बंगाल में बीजेपी के नेताओं का वापस टीएमसी में जाना इसका ताज़ा उदाहरण है।
चिराग के पास ‘वक़्त’ है
चिराग पासवान के पास पार्टी को दोबारा खड़ा करने के लिए दो-तीन बातें अहम हैं। जैसे युवा उनके साथ हैं। चिराग पासवान के ट्विटर हैंडल के नाम में भी युवा बिहारी लगा है। एलजेपी का अपना कोर वोट दुसाध-पासवान जाति का है जिसकी आबादी लगभग छह प्रतिशत मानी जाती है। बिहार में पार्टी स्तर पर और सामाजिक स्तर पर चिराग को काफी हद तक अपनी जाति का समर्थन मिलने की उम्मीद है।
दूसरी बात, पशुपित पारस कभी अपने भाई रामविलास पासवान की छाया से नहीं निकल पाये थे। उनकी तसवीर अब भी कम लोग ही पहचान पाएंगे लेकिन चिराग पासवान को पिता की छाया से निकलने का अनुभव है। उनकी राजनीतिक समझ परिपक्व होगी और हो सकता है कि उन्हें अपने सलाहकारों की टीम भी बदलनी हो। उनके लिए अच्छी बात यह है कि उनके पास इसके लिए ‘वक़्त’ है।
बिहार विधानसभा चुनाव के लिए अभी चार साल का समय है। इससे पहले 2024 में लोकसभा चुनाव होगा तो यह देखना दिलचस्प होगा कि बीजेपी चिराग पासवान से उसी तरह किनारा किये रहेगी या उसके लिए यह समय नीतीश कुमार से भी किनारा करने का होगा।
यह तो लगभग सब मानते हैं कि बीजेपी 2025 से पहले-पहले ही जेडीयू के इस दावे से निकलना चाहती है कि बिहार में एनडीए का चेहरा नीतीश कुमार ही हैं। यही बात चिराग पासवान भी कहते रहे हैं।
आरजेडी संग जाएंगे चिराग!
अगर बीजेपी अगले दो सालों में नीतीश को एनडीए का चेहरा वाले दावे से हटाना चाहेगी तो चिराग पासवान के लिए उस गठबंधन में जगह बनाना मुश्किल नहीं होगा। अगर बीजेपी को चिराग पासवान में कोई संभावना नजर नहीं आये और वह उनसे किनारा किये रहे तो चिराग के लिए दूसरे विकल्प के रूप में आरजेडी मौजूद है।
संघर्ष करना होगा
बिहार में दलित राजनीति पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिए नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी के कंधे पर हाथ रख रखा है लेकिन रामविलास पासवान के सामने मांझी का कद कहीं नहीं टिकता है। दूसरी बात यह भी है कि मांझी खुद अपनी उम्रदराजी का जिक्र करते रहते हैं और उनके बेटे की भी कोई खास पहचान नहीं है। ऐसे में बिहार में दलित राजनीति का अगुवा बनने के लिए चिराग पासवान के पास काफी मौका है। बस एक सवाल है कि क्या वे इसके लिए संघर्ष करने को तैयार हैं?