भारत एक ‘प्रतिनिधि लोकतंत्र’ है जहां जनता भारत के प्रतिनिधियों का (प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष) चुनाव करती है ताकि राष्ट्र का संचालन उचित तरीके से किया जा सके। एक प्रतिनिधि-लोकतंत्र में जनता के बाद सबसे बड़ी स्थिति जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों की होती है। ये प्रतिनिधि भारत की संसद में दो भागों में बंटे हुए हैं। पहला राज्यसभा या उच्च सदन जिसमें सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष तरीके से किया जाता है और दूसरा लोकसभा या निम्न सदन जहां प्रतिनिधियों का चुनाव जनता द्वारा प्रत्यक्ष तरीके से किया जाता है। दोनो ही सदनों के प्रतिनिधि अपने अपने सदनों के सभापति/अध्यक्ष के प्रति जिम्मेदार होते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत का लोकतंत्र और उसमें निहित आचरण की सभ्यता और मूल्यों का संरक्षण पूरी तरह से दोनो सदनों के पीठासीन अधिकारियों के पास होता है। आने वाले भारत की पीढ़ियाँ भारत की संसदीय विरासत के बारे में क्या पढ़ेंगी और क्या विचार करेंगी यह पूरी तरह से सभापति/अध्यक्ष पर निर्भर करता है।
इतिहास यह देखेगा कि किस मुद्दे पर किस दल के किस सदस्य को किस सदन के प्रमुख ने निलंबित/निष्कासित कर दिया और किस मुद्दे पर मात्र ‘चेतावनी’ देकर छोड़ दिया। संसद में क्या बोलने की छूट दी गई और किस बात को कहने से रोका गया, यह सब इस बात को तय करेगा कि भारत की संसद को, आने वाली पीढ़ियाँ किस रूप में याद करेंगी।
हाल ही में भारत की नई संसद में पहले (विशेष)सत्र को बुलाया गया था। सरकार ने अपने एजेंडे के मुताबिक विभिन्न मुद्दों को चुना और कई मुद्दों को जिन्हे विपक्ष चाह रहा था कि चर्चा हो, छोड़ दिया। ऐसे ही एक मुद्दे जिसमें चंद्रयान-3 की सफलता पर चर्चा हो रही थी, भाजपा की ओर से इस मुद्दे पर दक्षिण दिल्ली से सांसद रमेश बिधूड़ी भी बोलने के लिए उठे, इसके बाद बसपा के सांसद दानिश अली से उनकी कुछ नोंक-झोंक शुरू हो गई। संसद में यह कोई बड़ी बात नहीं जब दो भिन्न दलों और विचारों के सांसदों के बीच बहस शुरू हो जाए। लेकिन रमेश बिधूड़ी की तरफ़ से यह नोंक-झोंक तत्काल ही ऐसी भाषा में बदलने लगी जिसे भारत के संसदीय इतिहास ने कभी नहीं देखा था।
भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी, बसपा सांसद दानिश अली पर गालियां, अशोभनीय टिप्पणी और अपमानजनक शब्दों की बौछार करने लगे। उनके अल्पसंख्यक होने को लेकर गालियां दी गईं, उन्हे आतंकवादी कहा गया, धिक्कारा गया और साथ ही ‘बाहर देख लेने’ की धमकी भी दी गई। संसद में अब तक किसी सांसद ने इतनी घृणित भाषा का इस्तेमाल नहीं किया था लेकिन वर्तमान मोदी सरकार के एक सांसद वो कर गए जो वाकई भारत जैसे देश और उसकी संसद के लिए एक कलंकित इतिहास बन गया, यह संसदीय इतिहास के एक ऐसे पन्ने के रूप में अंकित हो गया है जिस पर संसद का सर शर्म से झुक गया है।
लोकसभा अध्यक्ष ने भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी को ‘चेतावनी’ देकर छोड़ दिया है और कहा है कि भविष्य में ऐसे आचरण पर ‘कड़ी कार्यवाही’ होगी। मुझे नहीं पता कि इससे भी शर्मनाक और घृणित वक्तव्य संसद में अब कभी आएगा भी या नहीं या लोकसभा अध्यक्ष को अभी और भी और इससे भी अधिक घृणित वक्तव्य का इंतजार है कार्यवाही करने के लिए!
भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में लोकसभा अध्यक्ष का पद संविधान के अनुच्छेद-93 में दिया गया है। स्वतंत्रता और निष्पक्षता इस पद की अनिवार्य शर्तें हैं। सदन की कार्यवाही व संचालन के लिए नियम व विधि का निर्वहन करना उसका प्राथमिक कर्त्तव्य है। लोकसभा के सभी सांसद अपने पीठासीन अधिकारी, लोकसभा अध्यक्ष द्वारा ही सुरक्षा और आश्रय प्राप्त करते हैं। ऐसे में एक अल्पसंख्यक सांसद को आतंकवादी कहे जाने पर भी अध्यक्ष का चेतावनी देकर छोड़ना प्रश्न अवश्य खड़े करता है। आम नागरिक भले ही इन प्रश्नों को दबा ले लेकिन किसी अल्पसंख्यक सांसद को उसकी अल्पसंख्यक धार्मिक स्थिति के कारण संसद में गालियां सुनने पर बाध्य होना अशोभनीय है। यह सिर्फ एक सांसद की बात नहीं, किसी दल की बात नहीं पूरी संसदीय परंपरा को पतन से बचाने की बात है।
सांसद रमेश बिधूड़ी या उनके बगल में बैठे सांसदों की हंसी ठिठोली पर चर्चा करना बेकार है। वो आज सांसद हैं कल हो सकता है जनता उन्हे संसद के पास तक फटकने ही न दे लेकिन लोकसभा अध्यक्ष जिस पर संविधान ने भरोसा किया है जिसे संविधान ने सदन के अंदर इतना शक्तिशाली बनाया है कि वह यहाँ भारत के संविधान, लोकसभा की प्रक्रिया तथा नियमों और यहाँ तक कि पूर्व के किसी संसदीय उदाहरण तक का अंतिम व्याख्याकार होता है, इसके बावजूद अध्यक्ष पीड़ित सांसद को न्याय देने में अभी तक विफल प्रतीत हुए हैं। कहने में संकोच है लेकिन फिर भी कहना जरूरी है कि, सत्तासीन दल के एक सांसद के द्वारा इतनी दुर्लभ व आपराधिक उद्दंडता के बावजूद इतने शक्तिशाली पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा इतनी सीमित कार्यवाही ‘निष्पक्षता’ शब्द के मायने बदल रही है।
जिस पद को वरीयता क्रम में भारत के मुख्य न्यायधीश(CJI) के साथ संयुक्त रूप से 7वें स्थान पर रखा गया है वो अपने ही सदन के सांसद की, न ही गरिमा की रक्षा करते दिख रहे हैं और न ही उन्हे न्याय देते प्रतीत हो रहे हैं। मुझे यह ज्ञान है कि लोकसभा के अध्यक्ष के कार्यों व आचरण की चर्चा व आलोचना जब लोकसभा में ही नहीं की जा सकती है, जब लोकसभा को विनियमित और व्यवस्थित रखने की उसकी शक्ति को भारत के किसी न्यायालय में भी चुनौती नहीं दी जा सकती है तब मुझे इस पद के बारे में बोलने का कितना सीमित अधिकार है। लेकिन इसके बावजूद, भारत का नागरिक होने के अधिकार से, मैं यह महसूस करती हूँ कि भारत का संविधान भारत के किसी भी पद से सर्वोच्च है, ऐसे में प्रस्तावना में निहित ‘धर्मनिरपेक्षता’, ‘समानता’ और ‘भाईचारा’ जैसे मूल्यों में दिखती गिरावट पर एक सभ्य आलोचना करने का अधिकार तो मुझे है ही। मुझे इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि रमेश बिधूड़ी माफी मांगते हैं या नहीं, भाजपा के नेता या स्वयं पीएम मोदी खेद प्रकट करते हैं या नहीं, नागरिक होने के नाते मुझे सिर्फ इससे फ़र्क पड़ेगा कि क्या ऐसी कोई कार्यवाही तत्काल की गई जिससे देश के अल्पसंख्यकों को सुरक्षा का संदेश गया या नहीं?, संसद की गरिमा, निष्पक्षता और स्वतंत्रता सुनिश्चित की गई या नहीं?
संसद की नियम समिति के अध्यक्ष, लोकसभा अध्यक्ष, किस नियम के तहत संसद में दी गई गाली और भद्दी टिप्पणियाँ करने वाले और जानबूझकर एक मुस्लिम सांसद को आतंकवादी कहने वाले, भाजपा सांसद को मात्र ‘चेतावनी’ देकर छोड़ सकते हैं? उन्हे पता होना चाहिए कि वो न सिर्फ भारतीय संसदीय समूह के अध्यक्ष हैं बल्कि लोकसभा अध्यक्ष भारत की संसद और इसकी गरिमा का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व भी करते हैं। भारत की सभी विधानसभाओं के अध्यक्षों के अध्यक्ष होने के नाते लोकसभा अध्यक्ष इस मुद्दे पर जो कार्रवाई कर रहे हैं उसका क्या असर पड़ेगा? फौरन कठोर कार्रवाई अभाव में राज्यों की विधायिकाओं में अच्छा संदेश नहीं जाएगा, कमजोर और अल्पसंख्यकों को गालियां देने का चलन तेजी से बढ़ सकता है। यह किसी दल विशेष के हित में तो हो सकता है लेकिन किसी भी हालत में भारत के हित में नहीं होगा।
भारत के संविधान का अनुच्छेद-105 स्पष्ट रूप से कहता है कि ‘संसद में वाक्-स्वातंत्र्य होगा’ साथ ही ‘संसद के किसी सदस्य द्वारा कही किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी’।सर्वोच्च न्यायालय ने तो यहाँ तक कहा है कि अनुच्छेद-105(2) में लिखा हुआ ‘कुछ भी’(Anything) वास्तव में संसद सदस्यों को ‘सबकुछ’(Everything) कहने की आजादी देता है। लेकिन न्यायालय ने यह भी कहा है कि संसद वास्तव में “कार्यपालिका की जवाबदेही तय करने का मंच" है।
संविधान निर्माताओं ने भविष्य की संसद और इसके सदस्यों से इतना नीचे गिरने की आशा नहीं की होगी शायद इसीलिए उन्होंने संसद और इसके सदस्यों को न्यायिक हस्तक्षेप से पूर्णतया मुक्त रखा। उन्हे नहीं पता रहा होगा कि जिस सरकार/कार्यपालिका पर जवाबदेही सुनिश्चित करने और विपक्ष की आवाज को बुलंद रखने के लिए इस अनुच्छेद का प्रावधान किया गया है वो एक दिन भारत की एकता और अखंडता को चुनौती देने लगेगा। देश के करोड़ों मुसलमानों को क्या एहसास हो रहा होगा जब उनके बीच से चुनकर गया एक व्यक्ति जो देश की इतनी सुरक्षित और मजबूत संस्था में पहुँचने के बाद भी धमकी और गाली खा सकता है तब अन्य सामान्य नागरिक अल्पसंख्यकों को अपनी निरीहता का कितना एहसास होता होगा।
संविधान का अनुच्छेद-105 भले ही न्यायालय में चुनौती से रोक लगाता है लेकिन जनता ‘हम भारत के लोग’ जिसने इस संविधान को ‘आत्मार्पित’ किया है वह हमेशा ऐसे मुद्दे पर प्रश्न उठाती रहेगी, जिससे देश की सुरक्षा और अखंडता, सत्ता पोषित, किसी एक व्यक्ति की उद्दंडता की भेंट न चढ़ जाए।