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विधानसभा चुनाव नहीं लड़ूंगा, रालोद के साथ गठबंधन फ़ाइनल: अखिलेश

विधानसभा चुनाव नहीं लड़ूंगा, रालोद के साथ गठबंधन फ़ाइनल: अखिलेश

विधानसभा चुनाव नज़दीक हैं और अखिलेश यादव दूसरे दलों से आए नेताओं को पार्टी में शामिल करने के साथ ही मज़बूत गठबंधन भी बना रहे हैं। 

पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने सोमवार को कहा है कि वह विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगे। यादव ने इस बात पर भी मुहर लगाई कि उनकी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) विधानसभा का चुनाव मिलकर लड़ेंगे। अखिलेश यादव एक जनसभा में पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना का जिक्र कर बीजेपी के निशाने पर आ गए हैं। 

यादव ने कहा कि रालोद के साथ सीटों का समझौता भी फ़ाइनल होने वाला है। रालोद और समाजवादी पार्टी ने लोकसभा चुनाव 2019 भी साथ मिलकर लड़ा था। 

अखिलेश यादव मौजूदा वक़्त में आज़मगढ़ से सांसद हैं। अपने चाचा शिवपाल सिंह यादव के साथ गठबंधन को लेकर उन्होंने कहा कि उन्हें इसमें कोई दिक़्कत नहीं है, चाचा और उनके लोगों को पूरा सम्मान दिया जाएगा। 

कुछ ही दिन पहले बसपा के छह और बीजेपी के एक विधायक को सपा में शामिल कर अखिलेश ने बड़ा दांव खेला था। इन विधायकों में बसपा के छह हरगोविंद भार्गव, हाजी मुज़तबा सिद्दीकी, हाकिम लाल बिंद, मोहम्मद असलम राइनी, सुषमा पटेल, असलम अली और बीजेपी के विधायक राकेश राठौर शामिल हैं। 

अखिलेश लगातार ग़ैर यादव पिछड़े नेताओं को सपा से जोड़ रहे हैं। वह अपनी रणनीति पर चुपचाप काम करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। सुभासपा के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर को वे अपने साथ ले आए हैं। महान दल और रालोद भी उनके साथ हैं, वे कई और छोटे दलों को जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। 

उत्तर प्रदेश में चार महीने के अंदर विधानसभा के चुनाव होने हैं। ऐसे में अगर सरकार बनानी है तो विपक्षी दलों को एक मज़बूत गठबंधन बनाना ही होगा। इसी बात को समझते हुए अखिलेश आगे बढ़ रहे हैं।

वेस्ट यूपी में मिलेगी मदद 

रालोद के साथ मिलकर चुनाव लड़ने से सपा को मदद मिलेगी क्योंकि रालोद का पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ठीक-ठाक आधार है। चौधरी चरण सिंह के बाद उनके बेटे चौधरी अजित सिंह और अब पोते जयंत चौधरी रालोद की राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं। 

 - Satya Hindi

सांप्रदायिक दंगों ने दिया सियासी झटका 

रालोद के लिए साल 2013 तक सब कुछ ठीक था। वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक बड़ी ताक़त थी। लेकिन 2013 के सांप्रदायिक दंगों के बाद हिंदू मतों का जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ और जाट और मुसलमान- जो रालोद की ताक़त थे, वे उससे दूर चले गए। इसके बाद हुए चुनावों के नतीजे इस क़दर ख़राब रहे कि चौधरी अजित सिंह और जयंत चौधरी को भी लोकसभा चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा। 

किसान आंदोलन ने बदला माहौल 

लेकिन किसान आंदोलन और लखीमपुर खीरी की घटना के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सियासी माहौल पूरी तरह बदल गया है। किसान कई बार बीजेपी नेताओं का विरोध कर चुके हैं और मुज़फ्फरनगर की महापंचायत में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के चुनाव में बीजेपी को हराने का एलान कर चुके हैं। 

कृषि क़ानूनों के विरोध में इस इलाक़े में हुई किसान महापंचायतों ने रालोद को एक बार फिर जिंदा किया है। रालोद की किसान महापंचायतों में अच्छी-खासी भीड़ उमड़ी थी। रालोद के सियासी भविष्य के लिए यह चुनाव बेहद अहम है। इसलिए जयंत चौधरी ने भी इस बार पूरा जोर लगा दिया है। 

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