मिखाइल गोर्बाचेव ने बनाया था जनतंत्र के लिए रास्ता
मिखाइल गोर्बाचेव दफ़नाए जा चुके हैं। इसके साथ ही क़ब्रों में सो रही यादें ज़िंदा हो उठीं। समाजवादी विश्व की, जो अब एक भूला हुआ सपना जान पड़ता है। उस दर्द की, जो अनेकानेक के मन में आज से कोई 30 साल पहले समाजवादी विश्व और सोवियत संघ के पतन के चलते पैदा हुआ था। 30 साल एक पीढ़ी के गुजर जाने और दूसरी के पाँव जमा लेने के लिए काफ़ी हैं। इन दोनों के लिए गोर्बाचेव के मायने एक नहीं। या एक पीढ़ी के लिए, जो व्लादिमीर पुतिन और रूस को ही साथ-साथ देखती थी या है, गोर्बाचेव संभवतः सिर्फ़ एक शब्द है। उसकी ध्वनि से कोई स्मृति नहीं जगती, कोई अर्थ पैदा नहीं होता।
शायद ही कोई और ऐसी शख़्सियत हो जिसने बिना रक्तपात के दुनिया का भौगोलिक और राजनीतिक नक़्शा ही नहीं बल्कि जिसने करोड़ों लोगों के दुनिया को देखने और समझने का तरीक़ा भी बदल दिया हो। उस मामले में गोर्बाचेव की भूमिका बीसवीं सदी की शुरुआत में लेनिन से कमतर नहीं मानी जाएगी।
लेकिन लेनिन अगर एक समाजवादी सोवियत संघ के संस्थापक के तौर पर सफल नेता माने गए हैं तो वहीं गोर्बाचेव उस ‘महान’ स्वप्न को भंग होने से न रोक पाने के चलते असफल नेता के रूप में याद किए जाते हैं। लेकिन यह भी शायद प्रायः साम्यवादियों की दुनिया की प्रतिक्रिया है।
पूँजीवादी दुनिया में, जो खुद को खुली और आज़ाद दुनिया कहती है, गोर्बाचेव एक युगांतरकारी नेता के रूप में सम्मानित हैं। ऐसा साहसी नेता जिसने एक बंद समाज की खिड़कियाँ ही नहीं खोलीं बल्कि उसकी दीवारें गिरा दीं। कुछ का कहना है कि इस खुलेपन का लाभ ही क्या जिसने घर को ही गिरा दिया!
लेकिन क्या यह अफ़सोस लातविया, लिथुआनिया, यूक्रेन, जैसे उस देशों में भी हैं जो लंबे वक्त तक सोवियत संघ में रूस के उपग्रहों की तरह या उसके उपनिवेशों के तौर पर रहने को मजबूर कर दिए गए थे? साम्यवाद के नाम पर जिनका ज़बरन रूसीकरण किया जा रहा था?
गोर्बाचेव और लेनिन
एक दृष्टि से गोर्बाचेव लेनिन के मुक़ाबले अधिक क्रांतिकारी थे। क्योंकि लेनिन की क्रांति का तर्क सहज ही समझ में आनेवाला था। वहीं गोर्बाचेव जो कर रहे थे वह ज़्यादातर लोगों को अतार्किक लग रहा था। आख़िर एक जमी-जमाई व्यवस्था को विचलित क्यों करना? जनतंत्र और स्वातंत्र्य जैसे अमूर्त मूल्यों के लिए कम से कम दो जून की रोटी और सबको रोज़गार जैसी गारंटी का त्याग करना क्या बुद्धिमत्ता थी?
बीसवीं सदी के 80 के दशक के मध्य में गोर्बाचेव को कम्युनिस्ट पार्टी का नेता चुना गया। कुछ समय बाद उन्होंने ग्लास्नोस्त और पेरेस्त्रोइका की प्रक्रियाएँ शुरू करने का एलान किया। इसका मतलब था लगभग सात दशकों तक एक पार्टी के शासन में लगातार सेंसरशिप के अँधेरे में रहने के आदी समाज को अचानक यह कहना कि अब वह अपनी तरह से देखने, सोचने और बोलने के लिए आज़ाद है। यह असाधारण बात थी।
सरकार और पार्टी की आलोचना की जा सकती थी। सखारोव, सोलझेनित्सिन, जामियातिन जैसे लेखकों को पढ़ा जा सकता था। वह सारा साहित्य जो अबतक प्रतिबंधित था, अब सहज ही उपलब्ध था। सोलझेनित्सिन जैसे जीवित और अनेक मृत बुद्धिजीवियों को, जो अब तक शासन के द्वारा लांछित थे, अब सामाजिक प्रतिष्ठा प्रदान की गई।
चुनावों की इजाज़त दी गई। यह अभूतपूर्व और अविश्वसनीय था। पार्टी नेतृत्व का प्रभुत्व समाप्त हो रहा था। कम्युनिस्ट पार्टी की जनतांत्रिक केंद्रीयता के सिद्धांत की आड़ में स्थापित पार्टी नेतृत्व की तानाशाही तोड़ी जा रही थी।
जनतांत्रिक क्रांतियाँ
इसी समय पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों में जनतांत्रिक क्रांतियाँ शुरू हो गईं। लेकिन इस बार इन देशों में सोवियत टैंक नहीं भेजे गए। गोर्बाचेव के नेतृत्ववाली पार्टी ने इन देशों में साम्यवादी सत्ताओं को ढहते हुए देखा। वैसे ही जैसे बर्लिन की दीवार को गिराए जाने से रोकने के लिए उन्होंने कुछ नहीं किया। उन देशों की जनता से पूछा जाना चाहिए कि गोर्बाचेव ने हस्तक्षेप न करने का जो निर्णय लिया, वह उनके लिए कितना शुभ सिद्ध हुआ। उसके पहले हंगरी, चेकोस्लोवाकिया आदि में जनतांत्रिक उभार को सोवियत संघ ने कुचल दिया था। गोर्बाचेव ने अपने पहले के पार्टी नेताओं से अलग इन जन उभारों का स्वागत किया।
यह सब कुछ हमारी युवा पीढ़ी के लिए रोमांचकारी था। लेकिन हम भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों में यह सब कुछ होते देख भारी उलझन और भ्रम भी देख पा रहे थे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में तो फिर भी थोड़ी उदारता थी। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी वह स्वीकार नहीं कर पा रही थी जो गोर्बाचेव कर रहे थे। साम्यवादी विश्व हमारी आँखों के सामने लुप्त हो रहा था।
यह साम्यवादी विश्व तो था लेकिन यह एक पार्टी के शासन वाली निरंकुश तानाशाहियाँ भी थीं। एक जनतांत्रिक साम्यवादी विश्व संभव है, यह सोचना असंभव था। गोर्बाचेव ने कहा कि जिस प्रकार चीजें चल रही हैं, आगे चलती नहीं रह सकतीं।
देश में पार्टी का नियंत्रण शिथिल करना, साम्यवादी देशों में हस्तक्षेप न करने का फैसला और वहाँ के जनमत का सम्मान: यह सब कुछ आसान न था। गोर्बाचेव जो कर रहे थे, उसके कारण कम्युनिस्टों के बीच वे अलोकप्रिय होते जा रहे थे। फिर भी उन्होंने जनतंत्र की बहाली के कठिन अभियान को जारी रखा।
शीत युद्ध की समाप्ति
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शीत युद्ध की समाप्ति का श्रेय गोर्बाचेव की पहल को ही मिलेगा। अमरीका, यूरोप, आदि ने गोर्बाचेव को विश्व नायक माना। गोर्बाचेव ने एक महाशक्ति के ध्रुव को तो तोड़ दिया लेकिन पूँजीवादी देशों ने, ख़ासकर अमरीका ने अपनी प्रभुत्वशाली नीतियाँ बरकरार रखीं।
गोर्बाचेव को याद किया जाना चाहिए था संसार एक एक बड़े हिस्से में जनतंत्र के लिए रास्ता बनानेवाले के तौर पर। लेकिन वे याद रखे जाते हैं साम्यवादी विश्व की समाप्ति के लिए।
जैसा पहले कहा गया, गोर्बाचेव एक मायने में लेनिन से अधिक कठिन काम कर रहे थे। लेनिन जो कर रहे थे, वह लोकप्रिय था। गोर्बाचेव एक अप्रिय लेकिन जनता के लिए स्वास्थ्यकर काम कर रहे थे। यह मानना संभव नहीं कि गोर्बाचेव को यह नहीं मालूम होगा कि जो वह कर रहे हैं, वह उन्हें लोकप्रिय बना रहा है।
उनका शासन काल सोवियत संघ का सबसे अच्छा वक्त माना जाएगा। लोग अपने अधिकारों का प्रयोग 70 वर्ष में पहली बार कर रहे थे। यह अलग मसला है कि इस जनतंत्र को रूस और हंगरी या पोलैंड जैसे देश संभाल नहीं पाए। पुतिन ने कम्युनिस्ट पार्टी से बुरी तानाशाही रूस पर लाद दी है। पोलैंड और हंगरी जैसे देशों में प्रतिक्रियावादियों का बोलबाला है। लेकिन इससे गोर्बाचेव ने जो किया वह ग़लत साबित नहीं होता।