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सोहराबुद्दीन केस से जुड़े रजनीश राय ने क्यों दे दिया इस्तीफ़ा?

सोहराबुद्दीन केस से जुड़े रजनीश राय ने क्यों दे दिया इस्तीफ़ा?

रजनीश राय ने सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस की जाँच की थी और इस केस में गुजरात के आईपीएस अधिकारी डी.जी. वंजारा और दूसरे पुलिसकर्मियों को ऑन ड्यूटी गिरफ़्तार किया था।

रजनीश राय ने आख़िरकार इस्तीफ़ा दे दिया। अब आप पूछेंगे कि रजनीश राय कौन हैं रजनीश राय गुजरात काडर-1992 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं और इन्होंने ही 2005 में हुए सोहराबुद्दीन शेख़ एनकाउंटर केस की जाँच की थी। रजनीश ने इस केस में गुजरात के ही दूसरे आईपीएस अधिकारी डीजी वंजारा और दूसरे पुलिसकर्मियों को ऑन ड्यूटी गिरफ़्तार किया था।

2014 में केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद रजनीश राय का ट्रांसफ़र सीआरपीएफ़ में कर दिया गया। रजनीश अपनी ईमानदारी को लेकर वहाँ भी सबकी नजरों में आ गए, जब उन्होंने सीआरपीएफ़ के शीर्ष अधिकारियों को अपनी एक रिपोर्ट दी। रिपोर्ट में बताया गया था कि कैसे सेना, अर्द्धसैनिक बल और असम पुलिस ने 29-30 मार्च को चिरांग जिले के सिमालगुड़ी इलाके में फ़र्ज़ी मुठभेड़ को अंजाम दिया और दो व्यक्तियों को नैशनल डेमोक्रेटिक फ़्रंट ऑफ़ बोडोलैंड (सोंग्बीजीत) एनडीएफबी (एस) का सदस्य बताकर मार डाला था। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार, रक्षा मंत्रालय, असम सरकार और सीआरपीएफ़ से जवाब माँगा था। नाराज़ होकर मोदी सरकार ने बिना किसी वजह इस साल जून में रजनीश का आंध्र प्रदेश ट्रांसफ़र कर दिया था।

लेकिन उससे पहले रजनीश रॉय झारखंड में यूरेनियम कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया के विजिलेंस ऑफ़िसर थे, जहाँ उन्‍होंने कॉर्पोरेशन में कथित भ्रष्‍टाचार पर रिपोर्ट तैयार की थी। राय ने सिफ़ारिश की थी कि कॉर्पोरेशन के कई वरिष्‍ठ अधिकारियों पर आपराधिक मामले चलाए जाएँ लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है।

अपनी रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई न होते देख परेशान होकर 23 अगस्‍त को राय ने 50 वर्ष की आयु पूरी करने पर सरकार की स्‍वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना (VRS) के तहत रिटायरमेंट के लिए अप्‍लाई किया था। उन्‍होंने वीआरएस के लिए ऑल इंडिया सर्विसेज (मृत्यु-सेवानिवृत्ति लाभ) नियम, 1958 का हवाला दिया था। धारा 16(2) के तहत, 50 वर्ष की आयु पूरी करने पर अधिकारी वीआरएस ले सकता है, बशर्ते वह निलंबित न चल रहा हो। इसी साल 23 अक्‍टूबर को सरकार की ओर से एक पत्र भेज कर राय को बताया गया कि उनका आवेदन खारिज कर दिया गया है क्‍योंकि ‘सर्तकता के दृष्टिकोण से उन्‍हें मुक्‍त नहीं किया गया’।

राय ने 30 नवंबर से रिटायरमेंट मांगा था। इसी दिन राय ने गृह मंत्रालय के सचिव को पत्र लिखकर बताया कि ‘उन्‍होंने चित्‍तूर के आईजी (CIAT) का पद 30 नवंबर, 2018 को कार्यदिवस समाप्‍त होने के बाद त्‍याग दिया है और उन्‍हें सेवा से रिटायर माना जाए’।

दरअसल, रजनीश राय से मोदी सरकार की दुश्मनी की वजह सिर्फ़ एक थी और वह थी सोहराबुद्दीन तथा सोहराबुद्दीन केस के अहम गवाह तुलसीराम प्रजापति की झूठी मुठभेड़ बताकर गुजरात पुलिस के अधिकारियों द्वारा मार गिराया जाना। 

2007 में गुजरात की बीजेपी सरकार ने रजनीश राय को एसपी से पदोन्नति देकर सीआईडी का डीआईजी बनाया था और उसके दूसरे दिन ही उन्हें सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस का अनुसंधान सौंपा गया था। तब सरकार और गुजरात अधिकारियों को भरोसा था कि राय के अनुसंधान करने से उनको कोई परेशानी नहीं होगी लेकिन रजनीश राय ने जो किया उसका गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी को बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था।

सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस की जाँच करते हुए रजनीश ने वर्ष 2007 में एनकाउंटर में शामिल रहे गुजरात के आईपीएस अधिकारी तत्कालीन एटीएस डीआईजी डीजी वंजारा, एसपी राजकुमार पांडियन और राजस्थान के आईपीएस अधिकारी दिनेश एमएन को बयान देने अहमदाबाद बुलाया था और वहीं इन्हें गिरफ़्तार कर लिया था।

गुजरात पुलिस में ऐसी गिरफ़्तारियाँ और धरपकड़ पहली बार ही हुई थी। रजनीश राय ने तो इस केस की जाँच में इन तीनों अधिकारियों का नारको टेस्ट करवाने तक की एप्लिकेशन कोर्ट में लगाई थी। नारको टेस्ट तो नहीं हुआ, लेकिन तब से तत्कालीन बीजेपी सरकार और आईपीएस रजनीश राय में अनबन शुरू हो गई थी।

मई 2007 में रजनीश राय को मामले की जाँच से हटा दिया गया। इसके बाद जनवरी 2010 में सोहराबुद्दीन फ़र्ज़ी मुठभेड़ की जाँच सीबीआई को सौंपी गई। अप्रैल 2010 में सीबीआई ने डीआईजी अभय चुड़ासमा को गिरफ़्तार कर लिया। इसके बाद जुलाई 2010 को सीबीआई ने अमित शाह को गिरफ़्तार कर लिया। 

रजनीश राय ने केंद्रीय प्रशासनिक ट्राइब्यूनल के समक्ष बाक़ायदा एक हलफ़नामा दायर कर गुजरात के पूर्व गृहराज्य मंत्री अमित शाह और डीजीपी पीसी पांडेय पर सोहराबुद्दीन फ़र्ज़ी मुठभेड़ के गवाह समझे जाने वाले तुलसी प्रजापति के मुठभेड़ की आपराधिक साज़िश रचने और बाद में सुबूत मिटाने का आरोप लगाया।

दरअसल, 2010 में गुजरात सीआईडी के शीर्ष अधिकारियों ने कहा कि राज्य पुलिस ने स्वीकार किया है कि सोहराबुद्दीन शेख हत्याकांड में एक प्रमुख गवाह तुलसी प्रजापति की मौत जिस मुठभेड़ में हुई, वह फ़र्ज़ी थी। सीआईडी के अपराध प्रमुख वीवी राबरी ने कहा कि हमारा मानना है कि उसके (प्रजापति) साथ मुठभेड़ फ़र्ज़ी थी। हमने मामले की जाँच की और पाया कि इसमें कुछ पुलिस अधिकारी शामिल थे।

उसके बाद सोहराबुद्दीन मामले की जाँच सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में चलती रही और अदालत के आदेश पर अमित शाह को राज्य-बदर कर दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई गुजरात से बाहर करने, सुनवाई के दौरान जज का तबादला न करने जैसे कई निर्देश दिए। सीबीआई के विशेष जज जेटी उत्पत ने अमित शाह को मई 2014 में समन किया लेकिन अमित शाह पेश नहीं हुए। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद 26 जून 2014 को उत्पत का तबादला कर दिया गया। उसके बाद ये मामला जज लोया को सौंप दिया गया, लेकिन तब भी अमित शाह जज लोया की अदालत में भी पेश नहीं हुए। 

1 दिसंबर, 2014 को नागपुर में संदिग्ध परिस्थितियों में जज लोया की मौत हो गई। लोया की मौत के तीसवें दिन यानी 30 दिसम्बर को जज लोया की जगह नियुक्त जज एमबी गोसावी ने जाँच एजेंसी के आरोपों को नामंज़ूर करते हुए अमित शाह को दिसंबर 2014 में आरोप मुक्त कर दिया और उसके बाद सभी आरोपी धीरे-धीरे दोषमुक्त हो गए।

यह है असली कहानी...

पुनश्च: अभी रतन पंडित जी ने याद दिलाया कि सीजेआई सदाशिवम जो उच्चतम न्यायालय की उस पीठ में थे जिसने फ़र्ज़ी मुठभेड़ मामले में शाह के ख़िलाफ़ दूसरी प्राथमिकी को रद्द कर दिया था, उन्हें बाद में केरल का राज्यपाल बनाया गया।

इस ख़बर को सबरंग से लिया गया है।

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