जब जेपी अपने गाँव पहुँचे तो सूनी सड़कें भी ज़िंदा हो उठी थीं!
ऐसे तो अपने पत्रकारिता के कार्यकाल में अनेक बड़ी-बड़ी हस्तियों से निकट से मिलने और उनके साथ यात्राएँ करने का अवसर मिला– किन्तु एक यात्रा ऐसी रही जिसे मैं आज तक भूल नहीं पाई हूँl वह थी जयप्रकाश नारायण के साथ उनके गाँव की यात्रा–
बलिया से सिताबदियरा का रास्ता उस दिन लोगों की भीड़ से भरा थाl एक हुजूम था, जो उमड़ता चला आ रहा थाl एक सैलाब जिसको बांध पाना असंभव था। सबके मुंह पर एक ही बात थी ‘जयप्रकाश बाबू आज आवतारन उनके देखे खातिर जाए के बा।’
‘कौन जयप्रकाश बाबू?’ मैंने एक बूढ़े से पूछ लिया।
“अरे, तू जयप्रकाश के नइखि जानत ह। बड़ा अचम्भा के बात बा। तू हिन्दुस्तान मा रहतारा कि पाकिस्तान मा?”
तभी पास खड़ा दूसरा बूढ़ा बोला, “अरे, तू कहीं के हो, तू खास जे. पी. के तो जनते होब, मजाक कर रहेल बा।”
सच में तो यह मजाक ही था। पर मैं उनके दिलों की आस्था को कुरेदना चाहती थी, पूरी तरह से। मैंने एक तीर और फेंका। गाड़ी जैसे ही जयप्रकाश नगर की ओर मुड़ी, दोबारा पूछा साथ चलती भीड़ से। “का हो भाई, कउनों मेला-वेला लगल बा?”
इस बार एक पढ़ा-लिखा लड़का सामने आया। बोला, “जयप्रकाश जी आज अपने गाँव में आये हैं। उन्हीं को देखने सभी जा रहे हैं।”
“तो इसमें खास बात क्या है?” फिर एक चोट थी।
“अरे बबुनी,” पास खड़ा एक दूसरा आदमी चट बोल उठा, “जयप्रकाश की जिनगी के कौऊ भरोसा बा, ई तो आखिरी भरसक दरसन हम लोग का मिलत बा।” और यह कहकर उस बूढ़े के पांव गाँव की उस बेतकल्लुफ पगडंडी पर बढ़ गये।
पक्की सड़क ख़त्म हो गयी थी। हम लोगों के पांव बांध के सहारे-सहारे कच्ची सड़क पर बढ़ने लगे थे। भारी भीड़ के बावजूद हलचल, हड़बड़ी, हड़कंप जैसा कुछ नहीं था। चढ़ी दोपहरी की धूप की प्रखर तेजी को लोगों के उत्साह की गीली चादर बहुत कुछ कम कर रही थी। आसपास के गाँव से, कोसों दूर से बड़े, बूढ़े, बच्चे और महिलाएं, कोई गाड़ी में तो कोई पैदल, अंगोछे के छोर में सत्तू की पोटली बांधे जैसे किसी धार्मिक आस्था और निष्ठा की डोर में बंधे चले आ रहे हैं। सब की जबान पर एक नारा था।
“अंधकार में ला प्रकाश... जयप्रकाश। और सबका एक लक्ष्य था जयप्रकाश का गाँव।
और यह आ गया जे. पी. का गाँव। सामने एक छोटा मैदान। चारों ओर बांस बंधे हैं, लहलहाते खेतों के बीच से एक सड़क बनायी गयी है। जे. पी. के घर तक। दोनों ओर दुकानें लगी हैं। अब यहाँ वो सन्नाटा नहीं जो कभी काट खाने को दौड़ता था। आदमी वही हैं, पर माहौल का फर्क है। बातचीत के लहजे का फर्क है, उदासी, थकान और टूटन की जगह लोगों के चेहरे पर विजय की चमक है।
जे. पी. बहुत खुश नजर आ रहे थे। चेहरे पर संतोष और हर्ष का विचित्र गंगा-जमुनी योग था। यादों के लम्बे सिलसिलों का खाता खुल गया था। हर किसी से भोजपुरी में हर मिनट पूछ रहे थे, “का हाल बा? आवो बैठा।” फिर देखते कि भोजपुरी में सामने वाले को कुछ समझ में नहीं आ रहा है तो हिंदी में बोलने लगते। लोगों की निगाहें उनके चेहरे को देखती अघा नहीं पा रही थी और उनकी निगाहें घूम-फिरकर पौर की दीवारों पर, खपरैल पर अटक जा रही थीं।
वह सामने तुलसी का चबूतरा है। सब कुछ वैसा ही है जैसा पहले था। फिर भी सब कुछ बदल गया है। तुलसी में पानी नहीं है, वह सूख रही है… अपनी अनुपस्थिति का लम्बा अन्तराल जे. पी. के चेहरे पर छाया छोड़ गया था।
मीठे ख्यालों को आंगन की यह पुरानी तुलसी फिर जगा गयी है। आत्मीयता के बंधन खुलने लगे और जे. पी. बेसाख्ता बोल उठे, “तुलसीजी में पानी नइखे बा...” और जब तक तुलसीजी में पानी पूरी तरह सींच नहीं दिया गया, वे वहां से हटे नहीं।
शाम को गाँव में ही जे. पी. का भाषण था। जे. पी. बोल रहे थे “कई मरतबे हमार गाँव आवे के मन कईलसे,” कहकर एक मिनट वे चुप हुए। आँखें पनिया आयीं। पीछे बैठी औरतों के समूह में जो घूँघट की ओट से एक नजर उन्हें देख आँखों में समा लेना चाहती थीं एक हिचकी उठी, एक हलचल हुई। आँखों से झरझर आंसू झरने लगे। जे. पी. फिर सोच के दायरे से उभरे। गाँव के एक-एक बुजुर्ग का नाम उन्होंने लिया, उनकी बातें कहीं और भी बहुत कुछ बोला। देश के बारे में, राष्ट्र के बारे में। जब मंच से उतरने लगे तो फिर एक आवाज़ आयी – “मेहरारू लोगन भी उनका के देखे के चाहत बा। वे उस ओर भी आयें।” जे. पी. मंच से उतर ही नहीं पाये। भाव-विभोर होकर मंच पर खड़े होकर उन्होंने उन सबका प्रणाम स्वीकार किया।
और फिर घिर आयी रात। जे. पी. का आत्मीय भाव पूरी तरह उजागर था। भोजन के लिए गाँव के लोगों को बुलाया था। स्वयं चलकर आँगन तक गये। जहाँ खाना पक रहा था। फिर वहाँ जहाँ गायें-भैसें बंधी थीं। खाना खाते समय एक-एक आदमी को पूछ रहे थे कि यह सब्जी ली कि नहीं। कोई पुराना परिचित वृद्ध दिख गया तो अपनेपन से पूछ बैठे। “का हाल बा, आपन परिवार के नया लोग का करत बा?”
खाना हो चुका और रात जरा गहरायी तो घर के पिछले दरवाजे से गाँव की औरतें जुट आयीं। कुछ बूढ़ी और कुछ नवोढ़ा। उमर के हर रंग, सजी सजायी, गहना कपड़ा पहने। एक-एक आती गयीं और जे. पी. के पैरों पर झुकती गयीं। जे. पी. कुछ मायनों में बड़े संकोची थे। बोल उठे, “ई का करत हो, हमार पैर ना छुये के चाही।” बहू बेचारी असमंजस में झिझकी। तभी बगल से उसकी सास बोली, “राउर, इ नातिन पतोह बा, इ लोग त पैर छुइबे करी।”
बस जे. पी. गदगद, मुस्कराये बोले, “अच्छा त ठीक बा” और फिर तो हर बहू के लिए मुस्करा कर पूछते रहे, “इ केकर पतोह ह?” यह सिलसिला क़रीब आधा-पौन घंटा चलता रहा।
जे. पी. चाहे पटना रहे हों या बंबई। अपने गाँव की याद उन्हें हमेशा बनी रही। जब भी कोई परिचित गाँव का आदमी अपरिचित नगरी में भी मिला तो अपनी बीमारी भूलकर भी उससे सदैव गाँव वालों की कुशल क्षेम पूछी।
उस दिन भी वहां यही समां था। सबेरे दस-ग्यारह बजे से गाँव के बड़े बूढ़े आ जाते थे। जे. पी. के समवयस्क, हमजोली, हम उमर, खैनी पीटते रहते और जे. पी. उनसे बतियाते रहते। गाँव की बात... घर की बात...l गाय-भैंस और जानवरों की बात। गाँव के पुराने बरगद की बात... पीपल की बात और बगीचे की बात… कि “कबड्डी होत रहिल जौन बगीचा मा, ऊ बगिचवा के का भइल। अबहि बाकी ह कि न” और जब किसी ने बताया कि वहां तो खेत बन गया है तो एक लम्बा गुम इतिहास उनकी आँखों में छलछला उठा।
चंद्रशेखर जी जे. पी. की यात्रा में हर समय उनके साथ थे। उनके हमसफ़र, साथी, छोटे भाई, अपनत्व के घेरे में बंधे उनके अपने मानस पुत्र।
उस दिन सिताबदियरा से लौटने का वह आख़िरी दिन था। जे. पी. ने चंद्रशेखर से कहा, “चंद्रशेखर, तनी गाँव के लोग के हमरा के दिखा द।”
चंद्रशेखर ने जवाब दिया, “सब केहू त देखे के रउआ के आइल बाटे, बाहर बड़ी भीर बाटे। मुश्किल होई। जे. पी. ने फिर भी जिद की और बोले, हम घूम-घूम के घर देखे के चाहत बानी और पालकी में बैठकर वे एक दो जगह गये भी। फिर थकावट के कारण लौट आये।
और फिर आ गया गाँव की गली छोड़ने का समय... जे. पी. का मन तो बस वहीं रम रहा था। बार-बार कहते थे। “हमार जाय के नइखे मन करत ह।” पर जाना तो था ही... वे घूम-घूम कर लौट-लौट कर घर की एक-एक दीवार, दालानें को देख रहे थे। मुड़-मुड़ कर जैसे सबकी यादों को अपने मनपटल पर संजो लेना चाहते हो। जैसे जानते हों, यह सब फिर दोबारा देखने को नहीं मिलेगा।
उनकी इस ग्रामीण सरलता, सहजता से, जिसने उनको सामान्य व्यक्ति से परे एक विशिष्ट व्यक्ति बनाया था और भावना के धरातल पर छोटे से छोटे व्यक्ति से उन्हें जोड़ा था, मुझे मोह लिया। बाहर बड़ी भीड़ थी। सारा गाँव उमड़ पड़ा था वहां। पता नहीं, अब जे. पी. कब आएं! आ भी पाएँ कि नहीं? कोई कह रहा था– “कउन जाने कउन पुन्य किये थे कि जे. पी. के गाँव में जन्म लिया।” जनक महाराज की छाया में जे. पी. क्या जन्मे, स्वयं विदेह हो गए।
हेलिकॉप्टर तैयार खड़ा था। भीड़ नारे लगा रही थी– लोकनायक ज़िंदाबाद! वे हेलिकॉप्टर के सामने आए। चढ़ने लगे और फिर फौरन उतरकर, घूमकर गाँव की तरफ देखने लगे। चालक बार-बार चलने की जल्दी कर रहा था और वे चारों तरफ देख रहे थे। लोगों को देख रहे थे, गाँव को देख रहे थे। जाने-अनजाने चेहरों को निहार रहे थे। ठीक, राम-वनगमन का दृश्य था। “अब चली,” किसी ने कहा, शायद, चंद्रशेखर जी ने। जयप्रकाश जी बोले, “जाने कब फिर देखे का मिली?” ...आँखों में आंसू उमड़ने लगे। एक बार फिर हाथ जोड़े और हेलिकॉप्टर में चढ़ गए। चलते-चलते पायलट से कहा, “हमारा मकान के ऊपर से उड़ावा। हेलिकॉप्टर उड़ चला। चालक ने घर के ऊपर एक-दो चक्कर लगाए और फिर आँखों से ओझल हो गया, न जाने कितनों की आशाओं-आकांक्षाओं को अपने में समेटे। यह यात्रा एक यादगार यात्रा थी।
(शीला झुनझुनवाला की फ़ेसबुक वाल से साभार)