क्या देश श्रम गुलामी काल में लौट रहा है? ऐसा अमृतकाल!
विख्यात इंफोसिस के सुप्रीमो रमेश नारायण मूर्ति का उवाच है कि अब कर्मचारियों से 70 घंटे काम लिया जाना चाहिए। उनकी तान में तान मिलाते हुए प्रसिद्ध एल एंड टी के चेयरमैन एस एन सुब्रह्मण्यन का नायाब प्रस्ताव है कि विश्व में भारत को ’नंबर वन’ बनाने के लिए कर्मचारियों से 90 घंटे काम लिया जाना चाहिए। दोनों के अजीबों गरीब तर्क हैं। नारायण मूर्ति स्वयं को करुणाशील पूंजीपति कहते हैं, लेकिन साथ ही वामपंथी भी मानते हैं। वहीं, सुब्रह्मण्यन हास्यास्पद तर्क के साथ कहते हैं कि कर्मचारियों को रविवार के रोज़ भी काम करना चाहिए क्योंकि वे अपने घरों में पति–पत्नी कब तक परस्पर घूरते रहेंगे?
दोनों पूंजीपतियों या कॉरपोरेटपतियों के उवाचों ने सामान्य जन और बौद्धिक जगत को हिला कर रख दिया है; बहस है कि क्या 21वीं सदी में 19वीं व 20वीं सदी के मध्य काल के श्रम घंटों के सुझाव देना उचित है; कहीं भारत को बीती सदियों की श्रम बर्बरता की खंदकों में धकेलने की कोशिशें तो नहीं हो रही हैं; क्या कृत्रिम बुद्धि के काल 90 घंटे का सुझाव विरोधाभास का प्रतीक है; कहीं बेगार को परोक्ष रूप से पुनर्जीवित करने की साजिश तो नहीं है; क्या कॉरपोरेटपति अपने लालच व मुनाफे पर लगाम लगाने के लिए तैयार हैं; क्या सीईओ अपनी करोड़ों की पगारों को वांछित स्तर पर कम करेंगे?
चिंतनशील क्षेत्रों में छिड़ी हुई बहस की कोख से ऐसे सवाल उठ रहे हैं। ऐसे बेतुके और स्वार्थलिप्त सुझावों से कई प्रकार की आशंकाएँ भी पैदा हो रही हैं। भय है कि कहीं केंद्र की चरम दक्षिणपंथी राजसत्ता दक्षिण भारतीय पूंजीपतियों के माध्यम से श्रमिकों की सहनशक्ति और प्रतिरोध की थाह तो नहीं लेना चाहती है! प्रायः आंदोलनों की दृष्टि से दक्षिण भारत को शांत व अनुशासित क्षेत्र माना जाता है, लेकिन उत्पादन की दृष्टि से उपजाऊ भी।
देश की जीडीपी गिर रही है, भूख की तालिका में भारत 54वें से गिरकर 105 वें स्थान पर है, डॉलर के मुकाबले में रुपए का अवमूल्यन होता जा रहा है, लोगों की क्रय शक्ति और बाजार में बिकवाली घट रही है और असंगठित क्षेत्रों में बेरोजगारी निरंतर बढ़ रही है। चारों ओर गिरावट की पृष्ठभूमि में दो कॉरपोरेटपतियों द्वारा इस तरह के सुझावों का आना क्या दर्शाता है। क्या द्वैय पूंजीपति इस सच्चाई की उपेक्षा कर रहे हैं कि देश में अमीर – गरीब के बीच विषमता बढ़ती जा रही है? क्या यह सही नहीं है कि मुट्ठी भर घरानों के हाथों में देश की 70 फीसदी से अधिक संपत्ति क़ैद है? इस संबंध में दोनों बुद्धिमान कॉरपोरेटपति फ्रांस के विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थॉमस पिक्केटी की पुस्तक ’दी कैपिटल’ को ही पढ़ लेते। दोनों पूंजीपति जानते ही होंगे कि श्रमिक जनता के कितने लंबे संघर्ष और बलिदानों के पश्चात काम के घंटे व अवकाश तय किए गए। दुनिया भर में क्यों मई दिवस मनाया जाता है। दोनों अंग्रेज़ीदां हैं। बीती सदियों में श्रमिकों के काम के घंटों और अमानवीय हालातों को लेकर अंग्रेजी साहित्य भरा पड़ा है (डेविड कॉपर फील्ड, ओलिवर ट्विस्ट, चिमनी स्वीपर आदि)। भारतीय भाषाओं में भी ऐसा साहित्य उपलब्ध है। बेहतर रहेगा कि वे इस साहित्य से भी परिचित हों।
इन कॉरपोरेटपतियों से पूछा जाना चाहिए कि जब उनसे कर वसूली कम की जा रही है तो उसका क्या फायदा देश को पहुंचाया है? क्या ये पूंजीपति बतलाएंगे कि बग़ैर श्रमिकों के देश इतना विकास कर सकता था? क्या संगठित या औपचारिक क्षेत्र में 9– 10 घंटे काम करने से देश ने तरक्की नहीं की है? दोनों को कितना मालूम है कि अनौपचारिक क्षेत्रों में क्या न्यूनतम वेतन भी मिलता है? क्या वे जानते हैं कि निजी क्षेत्रों में कर्मचारियों से ओने–पौने व अनियमित पगार पर 12–12 घंटे काम लिया जाता है? निजी शिक्षण संस्थानों में कर्मचारियों व शिक्षकों की कितनी दुर्दशा है, सर्वे के माध्यम से पता करें। क्या घरेलूकर्मियों को पूरा वेतन मिलता है?
ठेके पर काम करनेवालों की स्थिति और भी बदतर है। इस सदी में भी श्रमिकों का पलायन व विस्थापन ज़ारी है। क्या कॉरपोरेटपति जानते हैं कि कृषि क्षेत्र के खेतिहर श्रमिकों को कितने घंटे काम करना पड़ता है और कितनी लज्जाजनक मजदूरी मिलती है?
शायद दोनों को याद नहीं है कि देश में आज़ भी अदृश्य बंधक श्रमिक तंत्र जिंदा है। अब भी गाहे– बगाहे बंधक व बेगार श्रमिकों को छुड़वाने की ख़बरें आती रहती हैं। स्वर्गीय स्वामी अग्निवेश के बंधक श्रमिक मुक्ति मोर्चा ने इस दिशा में ऐतिहासिक काम किया था। बंधक श्रमिकों से 15– 16 घंटे काम लिया जाना आम बात है। फिर भी उन्हें भरपेट खाना व वस्त्र नसीब नहीं होते हैं। बहुत ही अमानवीय जीवन जीते हैं। ग्रामीण भारत में ऊंची जातीवाले आज भी चोरी-छिपे पुश्तैनी बंधुआ मजदूरी को पाले हुए हैं। एक प्रकार से ’संरक्षण और शोषण– उत्पीड़न’ की संस्कृति जीवित है। 1977–78 देश में पहला बंधक बेगार श्रमिक सर्वे हुआ था। खेतिहर श्रमिकों के नारकीय जीवन की कई परतें उजागर हुए थीं। यह पत्रकार ऐसे सर्वेक्षणों से जुड़ा रह चुका है। बेशक तब और अब के हालातों परिवर्तन ज़रूर आया है।
लेकिन, बुनियादी सवाल यह है कि 70– 90 घंटे काम करने से किसे फायदा होगा? पूंजीपतियों का ट्रैक रिकॉर्ड बहुत स्वागत योग्य तो नहीं है; बैंकों से हजारों करोड़ रुपए लूट कर राष्ट्र से सरेआम चंपत (विजय माल्या, नीरव मोदी, चौकसे आदि) हो जाते हैं। बैंकों का 16 लाख करोड़ रुपये से अधिक के धन को ’एनपीए’ में परिवर्तित किया जा चुका है। इसकी भरपाई कैसे होगी, कोई नहीं जानता। क्या दोनों शिक्षित व संस्कारी पूंजीपतियों ने अपने वर्गीय मित्रों को सलाह दी है कि वे बैंकों का पैसा लौटाएं? क्या वे भगोड़े पूंजीपतियों को स्वदेश लौटने का प्रस्ताव नहीं रख सकते थे? कर्नाटक के नारायण मूर्ति अपने राज्य के ही भगोड़े विजय माल्या से कह सकते हैं कि दिल्ली लौट कर बैंकों का पैसा चुकाएं। क्या कर चोर और भगोड़े पूंजीपतियों से भारत पहले स्थान पर पहुंच सकता है?
श्रमिक, किसान, कर्मचारी और प्रोफेशनल किसके लिए 90 – 90 घंटे काम करे? यदि, पूंजीपति टैक्स न चुकाएँ, बैंकों का पैसा लेकर भाग जाएं, तब ’श्रमपति’ की मेहनत बेकार जाएगी। यदि समाजवादी व्यवस्था रहती तब बात दूसरी थी। आज देश नितांत मुक्त अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ रहा है। ऐसे काल में श्रमपुत्रों को 70–90 घंटे काम करने की सलाह दी जा रही है, यह स्वयं में कितनी भयावह है!
दिवंगत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ’कैपिटलिज़्म विद ह्यूमन फेस’ की बात किया करते थे। लेकिन क्या पूंजीवाद का मानवीयकरण किया जा सकता है? इतिहास में इसके उदाहरण नहीं मिलते हैं। व्यक्तिगत रूप से परोपकारी होते हैं, लेकिन वर्ग या संस्था के रूप में पूंजीवाद का मानवीयकरण एंटी थीसिस या असंभव है। गांधीजी ने पूंजीपतियों के सामने ट्रस्टीशिप की अवधारणा को सामने रखा था। क्या इस अवधारणा को अमल में लाया गया। गांधी जी के जीवन काल में ही यह मरणासन्न हो चली थी। बमुश्किल दो-तीन सेठों ने ही इसमें दिलचस्पी ली, जिसमें जमनालाल बजाज प्रमुख हैं। पूंजीवाद की बुनियाद ही शोषण व विषमता है। इसलिए इसका मानवीयकरण एक प्रकार का लोक छलावा है। इस छलावे से पूंजीवाद के असंवेदनात्मक व निर्दय– चेहरे को ढका जाता है। वास्तव में, मनमोहन सिंह के काल (2004 -14) में त्वरित पूंजीवाद की शुरुआत हुई थी। राव -काल (1991 -96) में भूमंडलीकरण का युग आरम्भ हुआ था; उदारीकरण, विनिवेशीकरण और निजीकरण ने राज्य की नई राजनीतिक आर्थिकी को जन्म दिया था। राज्य का चरित्र ‘जन कल्याणकारी’ सिकुड़ता चला गया। इसके स्थान पर वह ‘सुविधा उपलब्धकर्ता (फैसिलिटेटर)’ में तब्दील हो गया। इसके मूल सूत्रधार थे तत्कालीन अर्थशास्त्री वित्तमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह। उन्हीं के राज में धड़ल्ले से क्रोनी कैपिटलिज्म का विस्तार हुआ और पूंजीपतियों का चरित्र यांत्रिक बनता चला गया।
पिछले 20 सालों में श्रमिक कानूनों में भारी परिवर्तन किया गया है; हॉयर एंड फायर की संस्कृति निजी क्षेत्र के उद्यमों में फैलती जा रही है।
ऐसे में 70 से 90 घंटे काम करने के बाद भी असुरक्षा की तलवार लटकी रहेगी। सच्चाई यह है कि श्रमिक संगठन कमज़ोर होते चले गए हैं, लेकिन प्रबंधन -सत्ता और अधिक मज़बूत हो गई। मालिक लोग दो प्रकार से फायदा उठाने लगे-
- उद्योग के स्वामी के रूप में अलग से मुनाफ़ा लेना
- सीईओ के रूप में अधिक से अधिक वेतन पाना
भारत में सीईओ की औसत पगार वार्षिक 13 करोड़+ है। गौतम अडानी का वार्षिक वेतन राशि 9 करोड़ 26 लाख है। इसके विपरीत मुकेश अम्बानी की 15 करोड़ + है। इसके अलावा कई प्रकार की सुविधाएँ अपने संस्थान से लेते हैं। मनमोहन सिंह के शासन में बहस चली थी कि उद्योगपति अपनी और गैर -स्वामी सीईओ की पगारों को कम करें क्योंकि विषमता बढ़ती जा रही है। पूर्व प्रधानमंत्री की सदिच्छा का कितना पालन किया गया, यह अज्ञात है। संभव है, ट्रस्टीशिप की अवधारणा के समान इसका भी दुखद अंत हो गया हो!
वर्तमान वातावरण में नारायण मूर्ति +सुब्रह्मण्यन उवाच मोदी + शाह राज के चरित्र के अनुकूल ही है और केसरिया सत्ताधारियों को बेहद रास आएगा। जहां तक श्रमिक तथा अन्य कर्मियों का सवाल है, वे अपने प्रतिरोध की ज़मीर और ज़मीन की रक्षा करने के लिए स्वतंत्र हैं।