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श्रीलंका : मजबूत नेतृत्व, बहुसंख्यकवाद और उग्र राष्ट्रवाद की जीत

श्रीलंका : मजबूत नेतृत्व, बहुसंख्यकवाद और उग्र राष्ट्रवाद की जीत

श्रीलंका में हुए संसदीय चुनाव में श्री लंका पोडुजना पेरामुना यानी श्री लंका पीपल्स फ्रंट (एसएलपीपी) को दो-तिहाई सीटें मिलीं। क्या है इसका मतलब?

श्रीलंका में हाल ही में हुए संसदीय चुनाव के नतीजों ने कई सवाल तो खड़े किए ही हैं, पूरी दुनिया के चुनावी ट्रेंड को एक बार फिर साबित कर दिया है। पाँच साल पहले आश्चर्यजनक चुनावी कामयाबी हासिल कर पूरी दुनिया को चौंकानी वाली युनाइटेड नेशनल पार्टी को सिर्फ़ एक सीट मिली है। दूसरे कई दल बिल्कुल अप्रासंगिक हो गए, और श्री लंका पोडुजना पेरामुना यानी श्रीलंका पीपल्स फ्रंट (एसएलपीपी) को दो-तिहाई सीटें मिलीं। महिंदा राजपक्षे के नेतृत्व वाली इस पार्टी को 225 में से 145 सीटें मिलने से सवाल यह ख़ड़ा हुआ कि मतदाताओं के इस फ़ैसले की व्याख्या कैसे की जाए।

लेकिन यह कोई राजनीतिक चमत्कार नहीं है। इसे समझने के लिए नवंबर, 2019, में हुए राष्ट्रपति चुनाव पर एक नज़र डाल सकते हैं। एसएलपीपी के उम्मीदवार गोटबया राजपक्षे को ज़बरदस्त कामयाबी मिली थी, वह राष्ट्रपति बने थे।

महिंदा राजपक्षे ने श्रीलंका के प्रधानमंत्री पद की शपथ रविवार सुबह ले ली। राजधानी कोलंबो के उपनगर में बने ऐतिहासिक बौद्ध मंदिर राजामहा विहारया केलानिया में छोटे भाई और राष्ट्रपति गोटबया राजपक्षे ने उन्हें पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई। 

गोटबया के नाम पर चुनाव

इस संसदीय चुनाव में एसएलपीपी का चुनावी चेहरा गोटबया के भाई महिंदा राजपक्षे थे, उन्हें प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश किया गया था। पर चुनाव प्रचार राष्ट्रपति और छोटे भाई गोटबया के नाम पर लड़ा गया था, पार्टी के आइकॉन वही थे, उन्होंने ही सबसे ज़्यादा चुनाव प्रचार किया, उन्होंने ही वोट मांगा और उन्होंने ही एक मजबूत और स्वच्छ शासन का भरोसा दिया।

दरअसल, एसएलपीपी की जीत मजबूत नेता और मजबूत प्रशासन को मिला वोट है। श्रीलंका की जनता ने एक ऐसे आदमी को चुना जिसके बारे में उनका मानना है कि वह सख़्त प्रशासक है, वह मजबूत नेता है, वह कठोर फ़ैसले ले सकता है।

गृहयुद्ध के नायक गोटबया

गोटबया राजपक्षे ने कठोर फ़ैसले 2009 में लिए थे जब वह रक्षा सचिव थे। उस समय भयानक गृहयुद्ध हुआ था, जिसमें अलग तमिल राष्ट्र के लिए कई दशकों से चल रहे आन्दोलन को निर्णायक रूप से कुचल दिया गया था। वह एक ऐसा गृहयुद्ध था, जिसमें न तो सरकार ने, न ही विद्रोहियों ने किसी अंतरराष्ट्रीय नियम-क़ानून की परवाह की थी या युद्ध के किसी नियम को माना था।

उस गृहयुद्ध में बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ था, हज़ारों निर्दोष नागरिक मारे गए थे, लाखों लोग बेघर हो गए थे, सैकड़ों बलात्कार के आरोप लगे थे। लेकिन उसमें तमिल विद्रोहियों की ऐसी हार हुई कि संगठन में कोई नहीं बचा, लगभग सारे लोग मारे गए, तमिल ईलम की मांग पूरी तरह ख़त्म हो गई।

इस निर्णायक युद्ध को बहुमत सिंहली गोटबया की निजी जीत मानते हैं, उनकी पार्टी को इसका श्रेय जाता है। यह माना जाता है कि उन्होंने देश को टूटने से बचा लिया। 

एसएलपीपी की यह जीत उस गृहयुद्ध का नतीजा है। यह राष्ट्रवाद की जीत है। लेकिन यह एक ऐसे राष्ट्रवाद की जीत है, जहाँ विरोध की गुंजाइश नहीं होती है। एसएलपीपी और गोटबया पर लगे अल्पसंख्यक तमिल विरोधी होने के आरोप से उन्हें मजबूती मिली है।

हाशिए पर अल्पसंख्यक

इस चुनाव में अलग तमिल अल्पसंख्यक पहचान वाली पार्टियों का तो मानो सफ़ाया हो गया। तमिलों की सबसे सक्रिय पार्टी इल्लनकई तमिल अरसु कदची (आईटीएके) को सिर्फ 10 सीटें मिली, पिछले चुनाव में उसे 16 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। छोटी तमिल पार्टियों ने देश के उत्तरी और पूर्वी प्रांतों में 6 सीटें जीती हैं।

यही हाल एक दूसरे अल्पसंख्यक समूह मुसलमानों से जुड़ी पार्टियों का हुआ। मुसलमानों की बात करने वाले दलों को सिर्फ दो सीटें मिलीं। इसके अलावा मुख्यधारा की पार्टी एसजेबी के एक-दो मुसलमान सांसद चुने गए हैं।

कमज़ोर विरोधी दल

एसएलपीपी की छवि मजबूत पार्टी के रूप में बनने के पीछे रानिल विक्रमसिंघे और मैत्रीपला सिरीसेना और उनके दलों का भी हाथ है। पिछला संसदीय चुनाव जीतने वाले इनके गठजोड़ 'याहा पालनया' (सुशासन) से लोग बेहद नाराज़ थे। आपसी गुटबंदी, एक दूसरे की टांग खिंचाई, राष्ट्रपति से लगातार चल रही लड़ाई और आपसी फूट से आम जनता तंग आ गई थी।

इस चुनाव में विपक्ष में सबसे ज़्यादा 54 सीटें समगी जन बलवेगया (एसजेबी यानी युनाइटेड पीपल्स मूवमेंट) को मिलीं। यूएनपी छोड़ कर बाहर निकले लोगों ने इसकी नींव डाली थी।

मध्यवर्ग का समर्थन

एसएलपीपी की जीत का एक बड़ा कारण मध्यवर्ग में उसकी अपील भी है। हालांकि पार्टी ने कई तरह के सुधार की बात कही, लेकिन कुल मिला कर इसका रवैया लोकलुभावन ही रहा। मध्यवर्ग को यह लोकलुभावन नारा तो पसंद आया ही, इसके साथ सिंहली-बौद्ध पहचान और बहुमत की राष्ट्रीयता ने भी इस वर्ग को बहुत ही आकर्षित किया।

इस मजबूत सरकार की अवधारणा को कोरोना की लड़ाई के दौरान और मजबूत करने में मदद मिली। मोटे तौर पर लोगों को लगता है कि सरकार ने कोरोना संक्रमण को अच्छे ढंग से संभाला और सुशासन का प्रतीक है।

गोटबया राजपक्षे के प्रशासन ने ड्रग माफ़िया से बेहद सख़्ती से सलटने का काम किया, इससे भी इसकी मजबूत होने की छवि को बल मिला।

उग्र राष्ट्रवाद, बहुसंख्यकवाद, अल्पसंख्यकों को तरजीह नहीं देना, सख़्त प्रशासन और मजबूत नेता की छवि, ये चीजें एसएलपीपी के पक्ष में गईं।

दुनिया का ट्रेंड

एक नज़र डालने से लगता है कि पूरी दुनिया में यही हो रहा है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और तुर्की राष्ट्रपति रिचप तैयप अर्दोवान इस नए उभरते राजनीतिक ट्रेंड के महानायक हैं। तुर्की में इसलामी राष्ट्रवाद, बहुसंख्यक का दबदबा और हागिया सोफ़िया जैसी पुरानी  'ग़लतियों' को ठीक करने का प्रतीक अर्दोवान को माना जाता है।

रूसी राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन को मजबूत नेता और सख़्त प्रशासक माना जाता है। वह  नए किस्म के आक्रामक राष्ट्रवाद के प्रतीक हैं, जहां क्रीमिया को कुचलने का स्वागत किया जाता है। विरोधियों को कुचलने और अलग मत रखने वालों का मुँह बंद करने की निंदा रूस में नहीं हो रही है। 

एक ऐसा चुनाव जिसमें मुख्य विरोधी को ही जेल में डाल दिया जाता है, पुतिन बड़े आराम से जीत जाते हैं। कभी राष्ट्रपति तो कभी प्रधानमंत्री का पद संभालने वाले पुतिन अपनी सुविधा से संविधान में बदलाव कर लेते हैं, पर वह रूसियों के हीरो हैं।

इसी तरह, कई तरह के आरोप झेलने, अल्पसंख्यक मुसलिमों की परवाह नहीं करने वाले, खुले आम मंदिर-मसजिद की बात करने वाले नरेंद्र मोदी भारत में नए किस्म के आक्रामक राष्ट्रवाद के प्रतीक हैं।

दरअसल गोटबया राजपक्षे नरेंद्र मोदी, व्लादिमीर पुतिन और और रिचप अर्दोवान का मिलाजुला रूप हैं। वे सख़्त हैं, मजबूत हैं, राष्ट्रवादी है, बहुसंख्यकवादी हैं, अल्पसंख्यकों की चिंता नहीं करने वाले हैं। वह नए किस्म के श्रीलंकाई राष्ट्रवाद के प्रतीक हैं। उनकी पार्टी नहीं जीतेगी तो कौन जीतेगा

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