ऑटो कल-पुर्जे सेक्टर की क़रीब 10 लाख नौकरियाँ गईं
बेरोज़गारी बढ़ने के मामले में मोदी सरकार को एक और तगड़ा झटका लगा है। वाहनों के कल-पुर्जे बनाने वाली कंपनियों में क़रीब 10 लाख लोगों की नौकरियाँ चली गई हैं। यानी एक झटके में ही वे बेरोज़गार हो गए। पिछले एक साल से कारों, माल ढोने वाले वाहनों और दोपहिया वाहनों की बिक्री में जो गिरावट देखी जा रही थी उसका बुरा असर अब साफ़ दिख गया है। इससे पहले भी जितनी रिपोर्टें आती रही हैं उसमें बेरोज़गारी के रिकॉर्ड स्तर पर पहुँचने के संकेत मिलते रहे हैं। हालाँकि सरकार ज़्यादा लोगों को रोज़गार देने के दावे करती रही है, लेकिन नेशनल सैंपल सर्वे यानी एनएसएसओ की रिपोर्ट ही कहती है कि 2017-18 में बेरोज़गारी दर 6.1 फ़ीसदी रही थी और यह 45 साल में सबसे ज़्यादा थी। स्टेट ऑफ़ इंडियाज़ इन्वाइरन्मन्ट की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले दो वर्षों (मई 2017-अप्रैल 2019) में बेरोज़गारी दर चार प्रतिशत से बढ़कर 7.6 हो गई है।
ऑटो इंडस्ट्री में इतनी बड़ी संख्या में लोगों की नौकरियाँ जाना क्या संकेत देती हैं क्या अर्थव्यवस्था की हालत ठीक नहीं है ऑटो इंडस्ट्री में गिरावट क्या मंदी के संकेत हैं
ऑटो इंडस्ट्री एसोसिएशन के अधिकारी कहते हैं कि लोगों की छँटनी कारों, माल ढोने वाले वाहनों और दोपहिया वाहनों में पिछले एक साल में ऐतिहासिक गिरावट के बाद आई है। कल-पुर्जे बनाने वाली कंपनियाँ घरेलू ऑटोमोबाइल उद्योग की रीढ़ की हड्डी हैं और देश के सकल घरेलू उत्पाद में क़रीब 2.3% योगदान देती हैं।
ऑटोमोटिव कंपोनेंट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन (एसीएमए) के महानिदेशक विन्नी मेहता ने ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ से बताया है, ‘यह संकट है और हम पिछले एक साल से अधिक दबाव में हैं, जिसके परिणामस्वरूप कारख़ानों में उत्पादन में बड़ी कटौती हुई है। हमारा अनुमान है कि नौकरी का नुक़सान 8 लाख से 10 लाख के बीच है। ये नौकरियाँ हरियाणा, पुणे, चेन्नई, नासिक, उत्तराखंड और जमशेदपुर जैसे प्रमुख ऑटोमोबाइल विनिर्माण स्थानों से गई हैं।’ मेहता ने कहा कि इसका असर ‘अभूतपूर्व’ रहा है और इसे ऑटो कंपोनेंट उद्योग जगत में महसूस किया जा रहा है। उन्होंने कहा, ‘मैंने कभी ऐसे हालात नहीं देखे हैं जब बॉश जैसी कंपनी पूरी तरह से लगातार पाँच दिनों के लिए अपने कारख़ानों को बंद कर देती है। यह डरावना और ख़तरनाक है।’
पिछले 2 साल में 2000 करोड़ का नुक़सान
इसी साल मई महीने में ही ख़बर आई थी कि मोटरगाड़ी उद्योग की हालत इतनी बुरी है कि पिछले दो साल में गाड़ी बेचने वाले सेक्टर को 2,000 करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ। इस दौरान 300 से ज़्यादा डीलरों को अपना कामकाज बंद कर देना पड़ा था।
'इकोनॉमिक टाइम्स' की ख़बर के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2017-18 के दौरान निसान मोटर ने 38 तो हुंदे ने 23 डीलर हटा दिए। होंडा, मारुति, महिंद्रा एंड महिंद्रा और टाटा मोटर्स के डीलर भी कामकाज समेटने पर मजबूर हुए। मोटरगाड़ी बिक्री में गिरावट से यह स्पष्ट होता है कि पूरे कार उद्योग पर संकट है। गाड़ी कम बिकने का मतलब है कि कम गाड़ियाँ बनाई गई हैं, यानी कम उत्पादन हुआ है। कम उत्पादन का मतलब है कि ऑटो सेक्टर में मंदी है।
मोटरगाड़ी बिक्री में कमी से यह संकेत मिलता है कि लोगों के पास गाड़ी खरीदने लायक पैसे नहीं है, यानी उनकी क्रय शक्ति घटी है। क्रय शक्ति में गिरावट से यह साफ़ होता है अर्थव्यवस्था में मंदी है।
इस उद्योग से जुड़े लोग कहते हैं कि यह क्षेत्र इस तरह के संकट में है जैसा पहले कभी नहीं रहा। हालाँकि दूसरे सेक्टर की भी स्थिति ख़राब है। उत्पादन गिरता जा रहा है और नौकरियाँ कम होती जा रही हैं।
औद्योगिक उत्पादन वृद्धि दर निचले स्तर पर
बता दें कि औद्योगिक उत्पादन में पिछले एक साल में काफ़ी गिरावट आई है। देश की औद्योगिक उत्पादन दर जनवरी 2019 में पिछले वर्ष की समान अवधि के 7.5 फ़ीसदी से घटकर 1.7 फ़ीसदी हो गई है। यह बड़ी गिरावट है। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) के आधिकारिक आंकड़े में कहा गया है कि माह-दर-माह आधार पर भी औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) की वृद्धि दर में गिरावट आयी है।
एनएसएसओ: बेरोजग़ारी 45 साल में सबसे ज़्यादा
हाल ही में सरकार ने 2017-18 के लिए बेरोज़गारी पर एनएसएसओ की रिपोर्ट जारी की है जिसमें कहा गया है कि बेरोज़गारी दर 6.1 फ़ीसदी रही थी। बेरोज़गारी का यह आँकड़ा 45 साल में सबसे ज़्यादा है। यह 1972-73 के बाद सबसे ज़्यादा है। इससे पहले के वित्तीय वर्ष 2011-12 में बेरोज़गारी दर सिर्फ़ 2.2 फ़ीसदी रही थी। एनएसएसओ के आँकड़े हर पाँच साल में एक बार आते हैं। एनएसएसओ देश भर में सर्वेक्षण कर रोज़गार, शिक्षा, ग़रीबी, स्वास्थ्य और कृषि की स्थिति पर रिपोर्ट देता है। यह रिपोर्ट सरकार ने जारी नहीं की थी, लेकिन अंग्रेज़ी दैनिक अख़बार ‘बिज़नेस स्टैंडर्ड’ ने एनएसएसओ के आँकड़े छाप दिये थे। हालाँकि बाद में सरकार ने इसी रिपोर्ट को जारी किया।
विडंबना यह है कि 2014 में अपनी चुनावी रैलियों में नरेंद्र मोदी हर साल दो करोड़ नये रोज़गार देने का वादा कर रहे थे। लेकिन हुआ बिलकुल उलटा। उनके शासन के पिछले पाँच सालों में नये रोज़गार तो पैदा हुए नहीं, बेरोज़गारी ज़रूर तीन गुना बढ़ गई।
ये सारे संकेत अर्थव्यवस्था के धीमी होने या विकास की रफ़्तार के कम होने की ओर इशारा करते हैं। इसका साफ़ अर्थ यह हुआ कि सामान ख़रीदने की लोगों की क्षमता कम हुई है। इससे यह भी पता चलता है कि लोगों की आय में गिरावट आयी है। ऐसे में सवाल उठता है कि सरकार किस आधार पर अर्थव्यवस्था की हालत ठीक होने का दावा कर रही है।