सिख किसानों को खालिस्तानी कहना आग से खेलना है!
3 अक्टूबर को लखीमपुर खीरी जिले के तिकुनिया गाँव में बर्बरतापूर्वक एक पत्रकार रमन कश्यप सहित चार किसानों को तेज रफ्तार कार से कुचलकर मार दिया गया। इसकी प्रतिक्रिया में हुई हिंसा में तीन बीजेपी कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई। तीनों मृतक अजय मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा के नजदीकी थे।
इस घटना के बाद तराई के इलाके में बहुत तनाव व्याप्त हो गया था। इसलिए राकेश टिकैत ने मौके पर पहुंचकर योगी सरकार के आला अधिकारियों के साथ मिलकर फौरी तौर पर एक समझौता करके हालात को संभाला।
मुआवजा, नौकरी, आशीष मिश्रा की गिरफ्तारी और गृह राज्य मंत्री की बर्खास्तगी की शर्त पर हुए समझौते के बाद मृत किसानों का अंतिम संस्कार कर दिया गया।
धार्मिक रंग देने की कोशिश
दरअसल, तराई के 7 जिलों और इससे सटे उत्तराखंड के उधम सिंह नगर जिले में सिख किसानों की व्यापक बसावट है। सिख किसानों की हत्या से पूरे इलाके में बहुत ग़ुस्सा था। दूसरी तरफ, बीजेपी आईटी सेल और बीजेपी समर्थक इस मुद्दे को धार्मिक रंग देने की कोशिश में थे। सिख किसानों को खालिस्तानी आतंकी और बब्बर खालसा गैंग कहा जा रहा था।
वरूण गांधी ने की आलोचना
सोशल मीडिया पर इस तरह की अफवाहों, नफरत और दुष्प्रचार पर प्रहार करते हुए पीलीभीत से बीजेपी सांसद वरूण गांधी ने इसकी भर्त्सना की। उन्होंने ट्वीट करते हुए लिखा कि राष्ट्रीय एकता के ऊपर तुच्छ राजनीतिक फायदे को तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए।
पिछले 10 माह से किसान आंदोलन अनवरत जारी है। विपरीत परिस्थितियों और मौसम में भी किसान दिल्ली की सरहदों पर डटे हुए हैं। इस दरमियान 600 से अधिक किसान शहीद हो चुके हैं।
सरकार के मनमानेपन और तानाशाही रवैया के कारण एक धर्मगुरु समेत कुछ किसानों ने आत्महत्या की है।
बावजूद इसके सरकार ना तो किसानों की मांगें मानने के लिए तैयार है और ना ही उनसे बातचीत करना चाहती है। जबकि इसके उलट गोदी मीडिया के मार्फत आंदोलन को बदनाम करके खत्म करने की बार बार साजिश रची जा रही है।
26 जनवरी का वाकया
आंदोलनकारियों के बीच मतभेद होने की खबरें चलाई गईं। 26 जनवरी को ट्रैक्टर परेड को देशद्रोही कार्रवाई घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। लाल किले पर निशान साहिब फहराये जाने को खालिस्तानी कृत्य कहा गया। जबकि तिरंगा अपनी जगह शान से लहरा रहा था।
गौर करने वाली बात यह है कि निशान साहिब फहराने वाला बीजेपी सांसद सनी देओल का करीबी निकला। इस दरमियान दिल्ली के कुछ स्थानों पर हिंसा भी हुई। तब प्रशासन द्वारा आंदोलन को कुचलने की पूरी तैयारियां कर ली गईं और उसका लाइव प्रसारण दिख़ाने के लिए गोदी मीडिया के एंकर वहां पहुंच चुके थे। लेकिन गाजीपुर बॉर्डर पर राकेश टिकैत के आंसुओं ने सिमटते आंदोलन को फिर से जिंदा कर दिया।
किसान आंदोलन को शुरुआती दौर से ही बदनाम करने की कोशिश की जाती रही है। सबसे पहले इसे आढ़तियों और बिचौलियों का आंदोलन कहा गया। सिर्फ पिज्जा और हलवा की तसवीरें दिखाकर कहा गया कि कुछ अमीर किसान यहां पिकनिक मनाने के लिए आए हैं।
अलग-थलग करने की कोशिश
जब इस बदनामी से काम नहीं चला तो इसे एक अलग पहचान देने की कोशिश की गई। अब इसे पंजाब के किसानों का आंदोलन कहकर अलग-थलग करने की कोशिश की गई। फिर आंदोलन को खालिस्तान से जोड़ते हुए किसानों को खालिस्तानी कहकर दुष्प्रचारित किया गया।
लेकिन धीरे धीरे यह आंदोलन व्यापक होता गया। तीन काले कानूनों को खत्म करने की मांगों के साथ एमएसपी की गारंटी जैसे अन्य मुद्दे भी जुड़ गए। इसके साथ आज़ादी के दीगर सवालों पर भी चर्चाएं होने लगीं।
हरियाणा और पश्चिमी यूपी के किसानों ने आंदोलन को मजबूती दी। तमाम एक्टिविस्ट, पत्रकार, लेखक, नौजवान, विद्यार्थी, सामाजिक कार्यकर्ता आंदोलन के समर्थन में आये। यह सच है कि आंदोलन में सिखों की बड़ी भागीदारी है।
सिख किसानों ने ही आंदोलन का आगाज़ किया और उसका नेतृत्व संभाला। पंजाब से दिल्ली आये आंदोलन में मुसलिम और जाट किसान भी बड़ी संख्या में शामिल हुए। लेकिन मोदी सरकार की आक्रमणकारी सांप्रदायिक राजनीति और गोदी मीडिया के दुष्प्रचार के जवाब में रणनीतिक रूप से संयुक्त किसान मोर्चा ने राकेश टिकैत को आंदोलन का चेहरा बनाया।
बावजूद इसके सोशल मीडिया पर मोदी समर्थकों और आईटी सेल द्वारा अभी भी यह घिनौना खेल जारी है।
लखीमपुर खीरी की घटना के बाद दुष्प्रचार का तंत्र फिर से सक्रिय हो गया है। इस घटना को हिंदू बनाम सिख और ब्राह्मण बनाम सिख करने की कोशिश की जा रही है।
मोदी सरकार दूसरे आंदोलनों की तरह किसान आंदोलन को भी अपने दुष्प्रचार तंत्र और प्रशासन का दुरुपयोग करके कुचलना चाहती है। लखीमपुर की घटना इसकी बानगी है।
दरअसल, मोदी सरकार के गृहराज्य मंत्री और उनके बेटे ने सबक सिख़ाने के लिए शांतिपूर्वक विरोध करने वाले इन किसानों को अपने अहंकार तले रौंदने की कोशिश की है। लेकिन संयुक्त किसान मोर्चा की रणनीति और उसे मिल रहे जनसमर्थन से मोदी-शाह के मंसूबे पूरे नहीं हो रहे हैं।
दरअसल, 13 फीसदी आबादी वाले मुसलमानों के सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन को जिस बेरहमी और आक्रमणकारी तरीके से कुचला गया, उसके सामने दो फीसदी आबादी वाले 'सिखों' के आंदोलन को कुचलना सरकार के लिए बहुत आसान लग रहा था! इसीलिए मोदी-शाह और उनकी ब्रिगेड आज भी आंदोलन को खालिस्तानी साबित करने की जुगत में है।
सिखों का पैशाचीकरण करना ठीक नहीं है। खालिस्तानी होने के आरोप लगाने से उनमें अलगाववाद पनप सकता है। आजादी का अमृत महोत्सव मनाने वाली सरकार 'विभाजन की विभीषिका' को क्यों भूल रही है? भारत पहले ही एक विभाजन झेल चुका है। मुसलमानों की तरह सिख भी विभाजन की विभीषिका के शिकार हुए थे।
समूचे पंजाब में सिखों से करीब 10 गुना ज्यादा मुसलमान थे। जब पंजाब का एक हिस्सा पाकिस्तान में गया तो वहां के बहुत अमीर और बड़ी-बड़ी जमीनों के मालिक सिखों को अपना घर-बार और दौलत छोड़कर भारत आना पड़ा। सिख बहुत जुझारू और मेहनतकश कौम है। पाकिस्तान से आए सिखों ने व्यापार और छोटी जोत की खेती से अपने को फिर से खड़ा किया।
सरहद और खेत में सिख
जब देश खाद्यान्न संकट से घिरा हुआ था, किसानों ने हरित क्रांति लाकर देश को आत्मनिर्भर बनाया। सीमाओं की रक्षा करने के लिए सेना में भर्ती होकर सिखों ने अनवरत देश सेवा की। कहा जाता है कि सिख कौम अपनी एक औलाद को सीमा पर भेजती है और दूसरी को खेत पर।
विभाजन के तीन दशक बाद पंजाब और सिखों को दूसरी मुसीबत का सामना करना पड़ा। प्रदेश में उभरे खालिस्तानी आतंकवाद के कारण सिखों को दोहरी मार झेलनी पड़ी। एक तरफ वे धार्मिक आतंकवाद और दूसरी तरफ सरकारी प्रशासन की प्रताड़ना का शिकार हुए।
ऑपरेशन ब्लूस्टार (6 जून 1984) द्वारा जरनैल सिंह भिंडरावाले को समाप्त कर दिया गया। लेकिन उसकी प्रतिक्रिया में सिख अंगरक्षकों ने 31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कर दी।
सिख विरोधी दंगे
इंदिरा गांधी की हत्या से समूचे भारत में सिखों के ख़िलाफ़ गुस्सा फूट पड़ा। नेताओं ने ग़ुस्से को हवा दी। नतीजे में 1984 के दंगों में हजारों सिखों का नरसंहार किया गया। लेकिन उसके बाद धीरे-धीरे सिख कौम और पंजाब शांत हो गया। आतंकवाद छोड़कर पंजाब आगे बढ़ गया।
आज पंजाब में शांति और समृद्धि है। लेकिन बेरोजगार नौजवानों को भड़काने के लिए एक चिंगारी भी मुसीबत में डाल सकती है। पाकिस्तान ताक में बैठा है। इसलिए सिख किसानों को खालिस्तानी कहना, आग से खेलने जैसा है।