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सुप्रीम कोर्ट का फैसला-ए-आज़म, राउत की रिहाई और ‘कमल’ की प्रतिष्ठा

सुप्रीम कोर्ट का फैसला-ए-आज़म, राउत की रिहाई और ‘कमल’ की प्रतिष्ठा

संजय राउत की जमानत के मामले में पीएमएलए कोर्ट की जांच एजेंसी ईडी को लेकर सख्त टिप्पणी और इसी तरह आजम खान के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद रामपुर सीट पर चुनाव कार्यक्रम रद्द होना, ये दोनों ही मामले बेहद अहम तो हैं ही लेकिन इस सवाल को भी मजबूती से खड़ा करते हैं कि क्या आज़म और संजय राउत को राजनीतिक बदले का शिकार बनाया गया। 

9 नवंबर की तारीख ऐतिहासिक तारीख बन गयी। तीन ऐसी घटनाएं हुईं जिन्हें हमेशा याद रखा जाएगा। पहली घटना है सुप्रीम कोर्ट से निर्देश के बाद निर्वाचन आयोग को रामपुर में उपचुनाव का कार्यक्रम रद्द करना पड़ा है। दूसरी घटना में पीएमएलए कोर्ट ने संजय राउत पर ज्यादती की बात स्वीकार की और उन्हें जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया, जिसे मुंबई हाईकोर्ट ने बरकरार रखा और राउत जेल से रिहा हो गये।

तीसरी घटना है जी-20 के आधिकारिक लोगो में बीजेपी के चुनाव चिन्ह कमल का दर्शाया जाना, जिसे प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र की अस्मिता, विरासत और सांस्कृतिक-आध्यात्मिक प्रतीक के रूप में पेश किया।

आजम खां और संजय राउत से जुड़े दो अदालती आदेशों में विपक्ष पर सेलेक्टिव तरीके से सत्ताधारी दल के हमलावर रहने की पुष्टि हुई है। जबकि, तीसरी घटना ऐसी है जिसमें प्रधानमंत्री ने निर्वाचन आयोग के समक्ष ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि बीजेपी के लिए बतौर चुनाव चिन्ह ‘कमल’ को जारी रखने पर पुनर्विचार करना चाहिए।

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‘आस्था का प्रतीक’ बनकर ‘कमल’ रह पाएगा चुनाव चिन्ह?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जी-20 के लोगो में कमल फूल की अहमियत बताते हुए इसे भारत की पौराणिक धरोहर, बौद्धिकता, संस्कृति और आस्था का प्रतीक बताया है। अगर इसे मान लिया जाए तो ‘कमल’ का चुनाव में इस्तेमाल चुनाव आयोग को रोक देना चाहिए। आखिर चुनाव आयोग आस्था से जुड़े रहने के कारण ही ‘त्रिशूल’ या ‘डमरू’ का आबंटन चुनाव चिन्ह के तौर पर नहीं करता।

‘कमल’ से आस्था को जोड़ दिए जाने के बाद यह भी ‘त्रिशूल’ वाली श्रेणी में आ खड़ा हुआ है। चूकि यह काम खुद बीजेपी सरकार के प्रमुख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया है इसलिए निर्वाचन आयोग इस पर संदेह भी नहीं कर सकता। देखना यह है कि चुनाव आयोग इस बात का स्वत: संज्ञान लेता है या फिर वह उसी प्रवृत्ति पर चलना जारी रखता है जो रामपुर का उपचुनाव रद्द करने की मजबूर कर दी गयी परिस्थिति में दिखता है।

चुनाव आयोग के पैर उल्टे क्यों बढ़े?

पीएमएलए कोर्ट ने आज़म खां को नफरती भाषण का दोषी पाया और उन्हें 27 अक्टूबर को सज़ा सुनायी। अगले ही दिन विधानसभा ने आजम खां की सीट रामपुर विधानसभा को ‘रिक्त’ घोषित कर दिया। फैसले की अपील करने तक का हक देना यूपी विधानसभा के स्पीकर ने जरूरी नहीं समझा। हद तो तब हो गयी जब चुनाव आयोग ने हफ्ते भर के भीतर ही 5 नवंबर को उपचुनाव का कार्यक्रम घोषित कर दिया। 

न्याय की गुहार लेकर पहुंचे आजम खां की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बहुत वाजिब और परिस्थिति के अनुकूल टिप्पणी की कि “आजम खां को सांस तो लेने दें।”

सुप्रीम कोर्ट ने खतौली में बीजेपी विधायक को अयोग्य ठहराए जाने के बाद ऐसी सक्रियता नहीं देखे जाने पर भी टिप्पणी की थी। 7 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद निर्वाचन आयोग खतौली में भी उपचुनाव का कार्यक्रम लेकर सामने जरूर आया, मगर रामपुर का कार्यक्रम रद्द करने को लेकर निश्चित रूप से उसकी प्रतिष्ठा धूल में मिल गयी। ऐसा लगा मानो आजम खां के साथ हो रहे सौतेला व्यवहार में बीजेपी और उसकी सरकार के साथ निर्वाचन आयोग भी शामिल है।

‘बेवजह’ जेल में रहे संजय राउत?

शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत को पात्रा चॉल मामले में पीएमएलए कोर्ट ने जमानत देते हुए उन्हें बेकसूर बताया और ‘बेवजह फंसाने’ जैसी टिप्पणी की। मुंबई हाईकोर्ट ने भी जमानत के खिलाफ याचिका खारिज करते हुए पीएमएलए कोर्ट की भावना पर अपनी मुहर लगायी। संजय राउत को बेवजह फंसाने वाली अदालती टिप्पणी नजरअंदाज करने योग्य नहीं है। 

सत्ता की बेरुखी और बदले की भावना के कारण संजय राउत को सौ से ज्यादा दिनों तक जेल में रहना पड़ा। जाहिर है इसकी वजह राजनीतिक है और यह भी स्पष्ट होता है कि इसमें अवश्य राजनीतिक शक्ति का दबाव काम कर रहा होगा। महाराष्ट्र की ऐसी सरकार जिसकी वैधानिकता का फैसला होना अभी बाकी है उसकी अगर कोई भूमिका विपक्ष के प्रवक्ता को जेल में डालने में रही है या हो सकती है तो यह बेहद खतरनाक बात है। इसकी उच्च स्तरीय जांच की मांग भी यह घटना स्वत: करती है।

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बदले की कार्रवाई का सबूत बन गये आज़म-राउत

विडंबना है कि राजनीतिक लड़ाई कानूनी दावपेंच और हथकंडों के जरिए बदले की कार्रवाई में बदलती जा रही है। आजम खां और संजय राउत सबूत बनकर सामने हैं। संजय राउत लगातार महाराष्ट्र में शिवसेना सरकार को गिराने और एकनाथ सरकार को बनाने के खिलाफ मुखर थे। इसमें भी संदेह नहीं कि संजय राउत के जेल जाने के बाद से एकनाथ सरकार राहत महसूस कर रही थी। मगर, इसका खामियाजा उन्हें बगैर गुनाह किए जेल जाकर भुगतना होगा- ऐसा किसी ने नहीं सोचा होगा। पीएमएलए कोर्ट की टिप्पणी इस अविश्वसनीय सोच को सच साबित करती है।   

आजम खां पहले भी सबूत बन चुके हैं जब उनके जेल से बाहर नहीं निकलने को सुनिश्चित करने के लिए एक के बाद एक 89 मुकदमे लाद दिए जाते रहे। सुप्रीम कोर्ट को जमानत देने के लिए हस्तक्षेप करना पड़ा। आज़म खां के लिए दोबारा सुप्रीम कोर्ट को सामने आना पड़ा। इसके क्या मायने हैं? कई सवाल खड़े होते हैं-

  • क्या आज़म खां से जुड़े मुकदमे की सुनवाई उत्तर प्रदेश में निष्पक्ष ढंग से नहीं हो सकती?
  • क्या आज़म खां के खिलाफ सरकारी तंत्र हाथ धो कर पीछे पड़ा है?
  • क्या आज़म खां को यूपी में विपक्ष की सियासत करने का खामियाजा भुगतना पड़ा है?
  • क्या आज़म खां को उनकी ही मानें तो मुसलमान होने की सज़ा दी जा रही है?

चाहे आजम खां और संजय राउत पर हो रही ज्यादती की अदालती पुष्टि की घटनाएं हों या फिर चुनाव के समय ‘कमल’ के राजनीतिक दुरुपयोग के मकसद से अंतरराष्ट्रीय मंच का इस्तेमाल- ये घटनाएं बीजेपी की सियासत के राजनीति के कीचड़ में सने रहने की पुष्टि करते हैं। चुनाव आयोग सत्ता की ओर से हांका जाने वाला आयोग बनकर रह गया है। लोकतंत्र के लिए ये स्थितियां ख़तरनाक हैं।

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