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शीला दीक्षित को हमेशा याद किया जाता रहेगा

शीला दीक्षित को हमेशा याद किया जाता रहेगा

अगर इंदिरा गाँधी के बाद देश में सबसे मज़बूत इरादों वाली महिला राजनीतिज्ञ का नाम ढूंढा जाए तो एक ही नाम ज़हन में आएगा और वह है शीला दीक्षित का। दिल्ली के विकास में भी उनका योगदान काफ़ी अहम था।

अगर इंदिरा गाँधी के बाद देश में सबसे मज़बूत इरादों वाली महिला राजनीतिज्ञ का नाम ढूंढा जाए तो एक ही नाम ज़हन में आएगा और वह है शीला दीक्षित का। दिल्ली को दुनिया के आधुनिक शहरों की श्रेणी में लाने का श्रेय रखने वाली शीला दीक्षित अपने मज़बूत इरादों के साथ ही लगातार तीन बार मुख्यमंत्री बनीं। देश की कोई भी महिला राजनीतिज्ञ अभी तक उनके रिकॉर्ड की बराबरी कर पाने की स्थिति में नहीं आ पायी। उन्होंने अपने कुशल नेतृत्व, दूर-दृष्टि और पक्के इरादों से सभी को पीछे छोड़ते हुए अपने लिए एक अलग मुकाम बनाया।

शीला दीक्षित ने दिल्ली की राजनीति में प्रवेश करने से पहले ही बहुत सारी उपलब्धियाँ हासिल कर ली थीं। उनका जन्म 31 मार्च 1938 को कपूरथला (पंजाब) में हुआ लेकिन उनका परिवार दिल्ली आकर रहने लगा। एक मुलाक़ात में उन्होंने मुझे बताया था कि उन दिनों दिल्ली की आबादी बहुत कम थी और नई दिल्ली की चौड़ी सड़कों पर घूमने का अपना एक आनंद था। वह जीसेस एंड मैरी स्कूल में पढ़ी और बाद में डीयू कैम्पस के मिरांडा हाउस में हिस्ट्री में ग्रेजुएशन किया। शीला जी का तब तक राजनीति से कोई वास्ता नहीं था लेकिन शादी हुई केंद्रीय मंत्री उमा शंकर दीक्षित के बेटे विनोद दीक्षित से। विनोद आईएएस ऑफ़िसर थे। ट्रेन में जाते हुए अचानक उनकी मौत हो गई थी।

विनोद दीक्षित की मौत बड़ी ही दुखद परिस्थितियों में हुई लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। बच्चों को सहारा दिया और साथ ही अपने बुजुर्गों का मार्गदर्शन हासिल किया। यहीं से राजनीति में उनका प्रवेश हुआ और वह अपने ससुर श्री उमाशंकर दीक्षित के उत्तराधिकारी के रूप में देखी जाने लगी। 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनावों में शीला दीक्षित को कन्नौज (उत्तर प्रदेश) से टिकट दिया गया और वह बड़ी आसानी से चुनाव जीत गईं। राजीव गाँधी ने उन्हें अपने साथ ही रखा और प्रधानमंत्री कार्यालय की ज़िम्मेदारी राज्यमंत्री बनाकर दे दी।

शीला दीक्षित को सबसे ज़्यादा लोकप्रियता दिल्ली की मुख्यमंत्री के रूप में मिली लेकिन उनके इस सफर की शुरुआत हुई एक हार से। 1998 के लोकसभा चुनावों में शीला दीक्षित को पूर्वी दिल्ली से कांग्रेस का उम्मीदवार बना दिया गया।

चुनावों में शीला दीक्षित बीजेपी के लाल बिहारी तिवारी के हाथों हार गईं जो उस समय पूर्वी दिल्ली के प्रभावशाली नेताओं में से एक थे।

दरअसल, यह वह दौर था जब दिल्ली में कांग्रेस को नए चेहरे की तलाश थी। एच.के.एल. भगत का दौर समाप्त हो चुका था और कांग्रेस की बागडोर दीपचंद बंधु के पास थी। उस समय कांग्रेस के सक्रिय चेहरों में जगदीश टाइटलर, सज्जन कुमार सबसे ऊपर थे लेकिन सिख दंगों के आरोपी होने के कारण पार्टी उन पर दाँव लगाने के लिए तैयार नहीं थी। बाक़ी सारे नेता दूसरी श्रेणी के थे जिनमें बंधु के अलावा जयप्रकाश अग्रवाल, रामबाबू शर्मा, ताजदार बाबर और चौ. प्रेमसिंह आदि थे। ये सभी किसी एक नाम पर सहमत नहीं थे और गुटबंदी ज़ोरों पर थी। ऐसे में लोकसभा चुनावों में हार के बावजूद कांग्रेस हाईक़मान को शीला दीक्षित ऐसी नेता के रूप में दिखाई दीं जो न केवल इस गुटबाज़ी पर काबू पा सकती थीं बल्कि भगत के विकल्प के रूप में सामने आ सकती थीं। उन्हें दिल्ली प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया। उनके नेतृत्व में ही कांग्रेस ने 1998 का विधानसभा चुनाव लड़ा और सभी को हैरान करते हुए कांग्रेस ने बीजेपी को चारों खाने चित्त कर दिया। जहाँ 1993 की विधानसभा में कांग्रेस की 14 सीटें थीं, वहाँ 1998 में बीजेपी इस आँकड़े पर आ गई। कांग्रेस ने 53 सीटें जीतकर एक मज़बूत सरकार बनाई। उस समय किसी को भी शीला जी के मुख्यमंत्री बनने पर शक नहीं था और वही मुख्यमंत्री बनीं भी।

दिल्ली के विकास में योगदान

शीला दीक्षित ने बीजेपी को हराकर एक बड़े मोर्चे पर तो जीत हासिल कर ली थी लेकिन अभी अपनी पार्टी में अपनी प्रभुत्ता साबित करनी थी क्योंकि दिल्ली के बड़े नेता ‘बाहरी’ को स्वीकार करने के लिए अब तैयार नहीं थे। इन नेताओं ने कई योजनाएँ भी बनाईं और षड्यंत्र भी रचे। शीला दीक्षित को हाईक़मान का पूरा विश्वास हासिल था। यही वजह है कि उन्होंने इन नेताओं को कोई महत्व नहीं दिया और सारा ध्यान प्रशासन पर लगा दिया। यही उनकी जीत और उन्नति का मूलमंत्र भी बन गया।

शीला दीक्षित ने अपने प्रशासन में ‘भागीदारी’ को आधार बनाया। उन्होंने दिल्ली की आरडब्ल्यूए को सत्ता में भागीदार बनाकर स्थानीय स्तर पर उनकी समस्याओं को हल करने की शुरुआत की। उन्होंने सबसे ज़्यादा ध्यान इंफ्रास्ट्रक्चर पर दिया क्योंकि तेज़ी से बढ़ती दिल्ली की यह सबसे बड़ी ज़रूरत थी। इसी कारण मेट्रो, सीएनजी के साथ-साथ दिल्ली में फ्लाई ओवरों का जाल बिछ गया। वाहनों की बढ़ती तादाद के बावजूद दिल्ली में हरियाली बढ़ी और पर्यावरण सुरक्षित हुआ। बिजली के निजीकरण की प्रक्रिया बड़ी ही सरलता से पूरी हो गई। हालाँकि इससे दिल्ली में बिजली की दर बढ़ी लेकिन दिल्लीवालों को 24 घंटे बिजली उपलब्ध कराने का ज़िम्मा उन्होंने बख़ूबी निभाया। पानी की समस्या से जूझती दिल्ली के लिए भी उन्होंने जल बोर्ड का आधुनिकीकरण किया। सरकारी स्कूलों का सुधरा हुआ रिजल्ट उन्हीं की सरकार की देन है।

महिला सशक्तीकरण 

शीला दीक्षित महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए हमेशा ही अग्रणी रही हैं। ‘स्त्री शक्ति’ नाम से उनका कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय हुआ। कन्या के जन्म से लेकर उसकी 12वीं क्लास तक पढ़ाई सरकार ने मुफ़्त कर दी और उसके लिए पूरी आर्थिक मदद भी जुटाई। इसे लाडली योजना का नाम दिया गया। महिलाओं की तरक्की पर विशेष ध्यान दिया गया। ख़ासतौर पर वृद्ध महिलाओं की पेंशन कभी भी रोकी नहीं गई। उनके इस काम को देखते हुए ही 2003 के विधानसभा चुनावों में दिल्ली की जनता ने एकमत से उन्हें अपना नेता माना और कांग्रेस को दोबारा सत्ता सौंपी। दिल्ली की जनता दिल्ली को वर्ल्ड क्लास राजधानी बनाने के उनके सपने को साकार करना चाहती थी। 2008 में फिर से विधानसभा चुनाव आए तो इस बार कांग्रेसी नेता स्वयं आशंकित थे लेकिन शीला दीक्षित को कोई शक-शुबह नहीं था। हालाँकि कुछ लोग उनके नेतृत्व पर उँगली उठा रहे थे लेकिन हाईक़मान ने उन्हें ही नेतृत्व सौंपा और फिर कांग्रेस को दिल्ली में लगातार तीसरी बार ऐतिहासिक जीत मिली। श्रीमती दीक्षित का राजनीतिक क़द दूसरों के लिए ईर्ष्या का विषय बन गया।

यह सच है कि 2013 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को दिल्ली में बड़ी पराजय का सामना करना पड़ा लेकिन राजनीतिक पंडित जानते हैं कि इसका बड़ा कारण केंद्र की यूपीए सरकार के ख़िलाफ़ पैदा हुआ आक्रोश था जिसे अन्ना और उनके समर्थकों ने बख़ूबी निभाया। इसके बावजूद शीला दीक्षित का नाम दिल्ली की राजनीति में बड़े ही आदर से लिया जाता रहेगा और उनके समय में दिल्ली वाइब्रेंट सिटी बनी, वर्ल्ड क्लास सिटी बनी।

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