अपनों के दाँव-पेच में कैसे उलझ गए राजनीति के पुरोधा पवार?
महाभारत के युद्ध में हताश और निराश पार्थ (अर्जुन) को युद्ध के लिए प्रेरित करने के लिए श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश दिया था, लेकिन आज के पार्थ ने ‘श्रीकृष्ण’ को ही समर छोड़ने को विवश कर दिया! यह महाभारत का युद्ध नहीं, चुनावी समर है जिसमें उसके हर दाँव-पेच या यूँ कहें कि नब्ज़ समझने वाला पुरोद्धा अपने परिवार के आगे विवश-सा नज़र आया। शरद पवार के लोकसभा चुनाव न लड़ने के एलान ने इस बात को उजागर किया कि उनके परिवार पर उनकी पकड़ शायद कमज़ोर पड़ने लगी है।
पवार ने अपने भतीजे अजित पवार के बेटे पार्थ के लोकसभा चुनाव लड़ने की घोषणा कर सबको चौंका दिया, क्योंकि क़रीब 10 दिन पहले ही पवार ने अपने परिवार चुनाव लड़ने को लेकर एक लक्ष्मण रेखा खींची थी और कहा था कि आने वाले लोकसभा चुनाव में उनके परिवार से अगली पीढ़ी का कोई नया सदस्य चुनाव नहीं लड़ेगा।
शरद पवार ने तर्क दिया था कि एक ही परिवार से अगर तीन-तीन उम्मीदवार चुनाव में उतरेंगे तो पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच ग़लत संदेश जाएगा। लेकिन जब पार्थ की उम्मीदवारी घोषित की तो उन्होंने कहा कि उन पर बहुत दबाव आ रहा है, इसलिए वह चुनाव लड़ने का अपना दावा वापस ले रहे हैं।
दरअसल शरद पवार ने 2014 के चुनावों से पहले भी चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा की थी और राज्यसभा में गए थे। उन्होंने माढा की लोकसभा सीट से पार्टी के विजय सिंह मोहिते पाटिल को मैदान में उतारा था। लेकिन माढा लोकसभा क्षेत्र में पार्टी कार्यकर्ताओं में चल रही गुटबाज़ी बहुत ज़्यादा बढ़ गयी थी और उसे ख़त्म करने के लिए कुछ नेताओं ने शरद पवार का नाम उछाला कि इस बार वह फिर से चुनाव लड़ेंगे। पवार ने उस पर अपनी स्वीकृति भी दे दी, लेकिन उन्हें शायद इस बात का एहसास नहीं रहा होगा कि माढा की गुटबाज़ी का असर उनके परिवार तक पहुँच जाएगा।
क्या पवार परिवार में सबकुछ ठीक है?
राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले पवार इस मामले को अपनी नाम वापसी के साथ दबा देना चाहते थे। लेकिन सोशल मीडिया के इस दौर में अभिव्यक्ति को नए आयाम मिल रहे हैं तो पवार परिवार भी उससे अछूता नहीं रहा। शरद पवार के बड़े भाई अप्पा साहब के पोते रोहित पवार ने एक फ़ेसबुक पोस्ट लिख कर इस पारिवारिक टकराव को नयी हवा दे दी। रोहित पवार ने उस पोस्ट में अपने दादा शरद पवार से अपील की है कि वह अपने विचार पर मंथन करें और कार्यकर्ताओं की भावनाओं का सम्मान करें। रोहित पवार की इस पोस्ट ने नयी चर्चाओं का दौर शुरू कर दिया।
ये सवाल उठने लगे कि जो व्यक्ति अपने जीवन में एक बार भी चुनाव नहीं हारा, क्या वह अपनों से हार गया है? चुनाव के इस मौक़े पर कोई ग़लत सन्देश नहीं जाय, इसके लिए शरद पवार स्वयं प्रेस के सामने आये और इस मसले का पटाक्षेप करने की कोशिश की।
पवार ने कहा कि उन्होंने यह बयान दिया था कि उनके परिवार का कोई नया सदस्य इस बार लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेगा, लेकिन उसके बाद भी अजित पवार और पार्थ पवार के प्रयास थमे नहीं थे। पार्थ पवार तो पिछले एक साल से सक्रिय थे लेकिन उनकी सक्रियता थमने की बजाय और बढ़ती गयी तथा पार्टी के अनेक नेताओं की तरफ़ से सिफ़ारिशें आनी शुरू हो गयीं।
पवार की मजबूरी क्या?
एनसीपी में अब तक पवार जो कहते थे वही होता था। लेकिन जब पवार ने यह भाँप लिया कि उनके भतीजे चुनाव लड़ने को लेकर अडिग हैं तो उन्होंने चुनाव में न उतरने का फ़ैसला किया। अब सवाल यह उठता है कि क्या शरद पवार को इस बात का एहसास हो गया था कि मना करने पर उनका पोता किसी और पार्टी में चला जाएगा? शरद पवार के एक बयान को देखें तो इसका जवाब हाँ ही नज़र आता है। कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष राधाकृष्ण विखे पाटिल के बेटे सुजय पाटिल के बीजेपी में प्रवेश पर पवार ने कहा था कि मैं अपने परिवार के बच्चों की बाल हट्ट (जिद्द) को तो पूरा कर सकता हूँ, राधाकृषण विखे के बच्चे की जिद्द नहीं।
- हालाँकि पवार ने कहा, ‘हमारे परिवार में कोई कलह नहीं है। जो भी ऐसा माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं वे कभी कामयाब नहीं होंगे। एक वक़्त आता है जब आपको राजनीति छोड़ने के बारे में सोचना पड़ता है। इसी वजह से मैंने चुनाव न लड़ने का निर्णय लिया।'
लेकिन एनसीपी के नेताओं का कहना है कि इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में रोहित की राजनीति में एंट्री की चर्चा से परिवार में विवाद गहरा गया है। पार्थ की उम्मीदवारी को अजित पवार द्वारा पार्टी पर अपनी पकड़ बनाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। अगर पार्थ मावल सीट पर चुनाव जीत जाते हैं तो दिल्ली में वह सुप्रिया सुले के समकक्ष हो जाएँगे।
2009 में भी पवार परिवार में थी ऐसी कशमकश
साल 2009 में भी पवार परिवार में कुछ ऐसी ही कशमकश शुरू हुई थी। वह दौर था पवार की बेटी सुप्रिया सुले के चुनावी राजनीति में प्रवेश का। बताया जाता है कि तब पार्टी अजित पवार को दिल्ली की राजनीति में भेजना चाहती थी। शरद पवार ने पार्टी के शीर्ष नेताओं को इस बारे में निर्देश भी दिए थे कि वे अब दिल्ली का रास्ता देखें और महाराष्ट्र की राजधानी आने वाली पीढ़ी के लिए छोड़ दें। पवार ने इसके पीछे तर्क दिया था कि दिल्ली की राजनीति में अनुभवी लोगों की ज़रूरत पड़ती है इसलिए कई सालों से मंत्री पद का अनुभव लेने वाले नेता सांसद का चुनाव लड़ें। पवार के इस निर्णय को इस नज़रिये से देखा जाने लगा -कहीं वह महाराष्ट्र में पार्टी की राजनीति को सुप्रिया सुले के हवाले तो नहीं करना चाहते हैं?
यह वही समय था जब शिवसेना में बाला साहब ठाकरे राजनीति से दूर रहने वाले अपने पुत्र उद्धव ठाकरे को मंचों पर लाने लगे थे और राज ठाकरे से दूरी बनाने लगे थे। लेकिन एनसीपी में वैसा नहीं हुआ और सुप्रिया सुले ही बारामती से चुनाव लड़कर दिल्ली पहुँची तथा अजित पवार महाराष्ट्र में बने रहे। सिंचाई घोटालों के आरोप लगने के बाद अजित पवार बैकफ़ुट पर ज़रूर आ गए थे लेकिन अब जब उन्हें क्लीनचिट मिल गयी है और चुनाव अभियान शुरू हो गया तो पार्टी में अपनी पकड़ दिखानी शुरू कर दी है और इसकी शुरुआत इस बार घर से ही हुई।