6 को 60 बनाने का शरद पवार का हुनर ही एनसीपी की वापसी का राज?
शरद पवार को 6 को 60 बनाने का हुनर आता है! इस बार जब विधानसभा चुनाव से पहले एक-एक कर सभी पुराने साथी पार्टी छोड़कर जाने लगे तो शरद पवार यह बात सभाओं में दोहराने लगे थे। उनकी ढलती उम्र और क़रीबी रिश्तेदार भी जब किनारा करने लगे तो यह कहा जाने लगा था कि शायद पवार वह नहीं कर पाएँगे? लेकिन उन्होंने कर दिखाया। हर दिन बैठकें और 4 से 5 चुनावी सभा, लेकिन मंच पर जब वह भाषण देने खड़े होते तो उनका जोश देखने को ही बनता था। वह कहते थे मैं 80 साल का बूढ़ा नहीं, जवान हूँ और अभी भी राजनीति के इस दंगल में कई लोगों को निपटाने का मादा रखता हूँ।
अपनी स्थापना के 20 साल में राष्ट्रवादी कांग्रेस ने जो मुकाम हासिल नहीं किया वह इस चुनाव में उसे मिल गया। सीटों में बीजेपी और शिवसेना के बाद उसका नंबर तीसरा रहा लेकिन वोट उसे शिवसेना से ज़्यादा मिले। कांग्रेस गठबंधन में पहली बार वह बड़े भाई की भूमिका में उभर कर आयी है।
6 को 60 बनाने का खेल शरद पवार के राजनीतिक जीवन के उस दौर से है जब वह प्रदेश के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बने थे। 1977 में इंदिरा गाँधी और कांग्रेस की हार के बाद महाराष्ट्र में कांग्रेस विभाजित हुई थी और शरद पवार अपने राजनीतिक गुरु यशवंत राव चव्हाण के साथ कांग्रेस (यू) में शामिल हो गए थे। 1978 में महाराष्ट्र में विधानसभा के चुनाव हुए। दोनों कांग्रेस पार्टियाँ अलग-अलग चुनाव लड़ी। सर्वाधिक 99 विधानसभा सीटें जीतकर जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी लेकिन सत्ता के लिए दोनों कांग्रेस ने गठबंधन कर लिया और कांग्रेस के वसंतदादा पाटिल मुख्यमंत्री बने। लेकिन कुछ ही महीनों बाद शरद पवार ने अपने राजनीतिक गुरु यशवंत राव चव्हाण की कांग्रेस (यू) को दो टुकड़े कर दिया और जनता पार्टी की मदद से सबसे कम उम्र के महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने। लेकिन 1980 में जब इंदिरा गाँधी वापस सत्ता में आयीं तो महाराष्ट्र में शरद पवार की सरकार गिर गयी। पवार उस समय अमेरिका के दौरे पर थे। जब वह लौटे तो उनकी पार्टी के 60 में से 6 विधायकों को छोड़ सब कांग्रेस में चले गए थे। साल 1980 में फिर से विधानसभा चुनाव हुए। कांग्रेस पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आयी। लेकिन शरद पवार की कांग्रेस (एस) के भी 47 विधायक जीतकर आये।
इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में पहली बार पवार बारामती से सांसद बनकर लोकसभा पहुँचे। लेकिन 1985 में हुए विधानसभा चुनाव में फिर से उन्होंने विधानसभा का चुनाव लड़ा और उनकी पार्टी के 54 विधायक जीतकर आये। लेकिन महाराष्ट्र में शिवसेना के राजनीतिक उदय के बाद जब पवार ने प्रदेश में कांग्रेस संस्कृति के ख़तरे की बात की तो राजीव गाँधी ने उन्हें तथा उनकी पार्टी को कांग्रेस में शामिल कर प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया। सोनिया गाँधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर उन्होंने नयी पार्टी बनायी थी लेकिन फिर से कांग्रेस से गठबंधन कर 15 साल महाराष्ट्र व केंद्र की सत्ता में हिस्सेदारी निभाई।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने जब लोकसभा चुनाव के दौरान यह कहा था कि शरद पवार को बारामती में हराएँगे उस समय राजनीति के बहुत से जानकारों ने इसे हलके में लिया था।
चुनाव से पहले जिस तरह से राष्ट्रवादी कांग्रेस का हर बड़ा मोहरा बिना लड़े धराशाही हो रहा था उससे यह सवाल उठने लगा था कि क्या यह चुनाव पवार की राजनीति के लिए शह और मात का दाँव तो नहीं सिद्ध होने वाला है? यह चुनाव एनसीपी के अस्तित्व का सवाल बन गया था।
ठाणे, सोलापुर, सातारा, कोल्हापुर, सांगली ज़िले जो राष्ट्रवादी कांग्रेस के गढ़ के रूप में जाने जाते थे वहाँ चुनाव से पूर्व ही भारी भगदड़ मच गयी थी। ऐसे में सवाल यह उठ रहा था कि इतने बड़े नुक़सान की भरपाई शरद पवार कैसे कर पाएँगे? क्या शरद पवार इस बाज़ी को लड़ने के लिए कांग्रेस में विलय जैसा क़दम उठाएँगे जिसकी संभावनाएँ लोकसभा परिणामों के बाद राहुल गाँधी और शरद पवार की बैठकों के बाद ज़्यादा दिखने लगी थी। उनकी पार्टी के मुंबई प्रदेश अध्यक्ष सचिन अहीर के शिवसेना में जाने के बाद पार्टी की महिला शाखा की प्रदेश अध्यक्ष चित्रा वाघ बीजेपी में चली गयीं। पार्टी के संस्थापक सदस्य मधुकर पिचड़ और अकोला से उनके विधायक पुत्र वैभव पिचड़ भी बीजेपी में चले गए। मुंबई से लगा ठाणे ज़िला जो राष्ट्रवादी कांग्रेस का साल 2014 तक गढ़ माना जाता था उसके सबसे बड़े नेता और 10 साल तक मंत्री और गार्डियन मिनिस्टर रहे गणेश नाईक उनके विधायक पुत्र संदीप नाईक, ज्येष्ठ पुत्र व पूर्व सांसद संजीव नाईक अपने साथ नवी मुंबई महानगरपालिका के 57 नगरसेवकों के साथ बीजेपी में चले गए।
ठाणे ज़िले के पूर्व विधान परिषद के सभापति के विधायक पुत्र निरंजन डावखरे, विधायक किशन कथोरे, विधायक पांडुरंग बरोरा, विधायक पुंडलिक म्हात्रे, सांसद कपिल पाटिल आदि भी पार्टी छोड़ गए। सातारा ज़िले से छत्रपति शिवाजी के वंशज व विधायक शिवेंद्रराजे भी बीजेपी में चले गए, और हाल ही में सांसद चुने गए उदयन भौसले भी बीजेपी में चले गए। उस्मानाबाद ज़िले से पवार के रिश्तेदार पद्मसिंह पाटिल व उनके पुत्र विधायक जगतजीत सिंह भी बीजेपी में चले गए। सोलापुर ज़िले से पूर्व मुख्यमंत्री रहे विजय सिंह मोहिते पाटिल व उनके पुत्र रणजीत सिंह मोहिते पाटिल पहले ही बीजेपी में शामिल हो गए थे। विधायक दिलीप सोलप और बबन शिंदे भी बीजेपी में प्रवेश कर गए।
क्यों ख़राब हुई थी एनसीपी की हालत?
दरअसल, शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी कुछ घरानों के बीच ही सिमटी रही थी। पवार, मोहिते, भोसले, क्षीरसागर, पाटिल, देशमुख, भुजबल, सोलंके, टोपे, नाईक, निंबालकर और तटकरे राजनीतिक घरानों के बीच ही उनकी पार्टी का शक्ति केंद्र सिमट कर रह गया यह किसी से छुपा नहीं है। लोकसभा, राज्यसभा, विधान सभा, ज़िला परिषद, पंचायत समिति, कृषि उत्पन्न बाजार समितियाँ, शक्कर कारख़ाना, दुग्ध उत्पादक संघ सत्ता के अधिकाँश पदों पर इन्हीं परिवारों को मौक़ा मिला। एनसीपी की राजनीति शुगर लॉबी, दूध लॉबी जो कि उनकी पार्टी के नेताओं के आधिपत्य में थी, के इर्द गिर्द ही केंद्रित होने लगी थी। इसका असर राष्ट्रवादी कांग्रेस पर भी पड़ने लगा। पार्टी में दरी और कुर्सी, झंडा, बैनर लगाने वाला कार्यकर्ताओं पर भी इसका असर पड़ा और वे अपना भविष्य भारतीय जनता पार्टी-शिवसेना और दूसरे छोटे दलों में तलाशने लगे। इन कार्यकर्ताओं ने जब दरी खींची तो स्थापित बड़े नेताओं की चूलें हिल गयीं?
एक और बड़ा कारण रहा सत्ता के साथ रहने का। शुगर लॉबी, दूध और सहकारी बैंकों के संचालकों की जिस लॉबी पर पवार की पकड़ थी उसे अपना हित सत्ता के साथ में रहने में लगा।
वे परिवार जिनकी राजनीति को शरद पवार ने परवान चढ़ाया था वे भी उनका साथ छोड़कर चले गए। लेकिन शरद पवार ने चुनाव से दो माह पहले यह घोषणा करते हुए घर छोड़ दिया था कि अब चुनाव बाद ही घर जाऊँगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह, मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष चंद्रकांत पाटिल और शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने हर सभा में पवार को निशाना बनाया लेकिन 80 साल का यह ‘युवा’ जब सातारा में तेज़ बारिश में बिना डिगे हुए भाषण दे रहा था तो सभी ने उनकी हिम्मत की दाद दी। सातारा लोकसभा सीट फिर से जीतने का उन्हें श्रेय मिला। इस चुनावी दंगल को पवार जीत तो नहीं सके लेकिन उन्होंने इस लड़ाई को इतना रंगदार बना दिया कि 'मैन ऑफ़ द मैच' का खिताब उन्हें ही दिया जाएगा। जिस तरह से चुनाव प्रचार में सत्ता और पैसे के दम तथा मीडिया ट्रायल के माध्यम से विपक्ष का मखौल उड़ाया जा रहा था, इन चुनाव परिणामों के माध्यम से पवार ने सबको खामोश कर दिया है।