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क्षमा करना, मैं आपकी हत्या का मूक-दर्शक बना रहा! 

क्षमा करना, मैं आपकी हत्या का मूक-दर्शक बना रहा! 

डॉ. रमेश उपाध्याय, महानतम जनवादी लेखकों में से एक, विचारक, हरदिल-अज़ीज उस्ताद, बुद्धिजीवी, का 23-24 अप्रैल को रात लगभग 1. 30 बजे देहांत हो गया। लेखक शमसुल इसलाम की श्रद्धांजलि।  देश की साहित्य अकादमी और दिल्ली की हिंदी अकादमी के अफ़सर अब शायद शोक सभाएं करेंगे। मानो वे रमेश जी के मरने का इंतज़ार कर रहे थे। ऐसी साहित्यिक और सांस्कृतिक तंज़ीमों पर ताला लगा देना चाहिये जो अपने जीवित मनीषियों को मौत से बचा सकें लेकिन इस बात का ढंढोरा पीटें कि वे साहित्य और सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखने के काम में लगे है। 

डॉ. रमेश उपाध्याय, महानतम जनवादी लेखकों में से एक, विचारक, हरदिल-अज़ीज उस्ताद, बुद्धिजीवी, का 23-24 अप्रैल को रात लगभग 1. 30 बजे देहांत हो गया। 

सब मरते हैं, बुद्ध ने चुनौती दी थी कि कोई ऐसा घर दिखाओ जहाँ मौत न हुयी हो, इस चुनौती को किसी ने आज तक स्वीकार नहीं किया है। लेकिन रमेश उपाध्याय अपनी मौत नहीं मरे हैं। उनकी हत्या हुई है, यह में बहुत ज़िम्मेदारी के साथ कह रहा हूँ।  

मृत्यु नहीं, हत्या

उनके पूरे परिवार ने 3 अप्रैल से 5 अप्रैल के बीच टीके लगवाये थे। लगभग 10 दिनों बाद जब कोरोना होने के लक्षण ज़ाहिर हुए तो कोविड टेस्ट कराने का संघर्ष शुरू हुआ, 4 दिन बाद यह हो सके, 3 दिन बाद पॉज़िटिव रिपोर्ट आईं और फिर एक और लम्बी जद्दोजहद लड़ाई किसी अस्पताल में बिस्तर की तलाश की शरू हुयी। दिल्ली एनसीआर छान मारा, ज़िम्मेदार लोगों के सामने गिड़गिड़ाए।

मजबूर हो सब ने घर में ही खुद को अलग-थलग कर लिया। जैसे-तैसे कर के चारों के लिए तीसरी मंज़िल पर ऑक्सीजन के सिलिंडरों का इंतज़ाम राकेश और प्रज्ञा ने किया। कौन किस की तीमारदार करेगा कोई नहीं जानता था, उनकी बड़ी बिटिया प्रज्ञा और उनके पति राकेश ने बाहर रहकर वह सब कुछ किया जो इंसान कर सकता थे। जब हालात बिगड़ने लगे तो कम-से-कम 2 बिस्तर, किसी अस्पताल में रमेश भाई और सुधाजी के लिए तो तत्काल चाहिए थे।

इस बीच दोनों बच्चों की हालत भी बिगड़ने लगी थी। ज़मीन आसमान छानने के बाद राकेश की एक हमदर्द परिचित ने 21 अप्रैल  को चारों का ईएसआई अस्पताल ओखला के कोविड वार्ड में दाखलों का इंतज़ाम करा दिया। 

अस्पताल में बिस्तर पाने में दिक्क़त

जब चारों सरकारी एम्बुलेंस में वहाँ पहुँचे तो बताय गया कि सिर्फ़ रमेश भाई और सुधाजी को ही बुज़ूर्ग होने की वजह से बिस्तर मिलेंगे। और यह भी बताया गया की अंदर किसी भी तरह की नर्सिंग सुविधा उपलब्ध नहीं होगी। 

एक हमदर्द डॉक्टर ने इस बात की इजाज़त दे दी कि सुधा की जगह कोविड की शिकार बिटिया को दाखिल कर दीजिये जो रमेश जी की तीमारदारी भी कर लेंगी। रमेश जी शारीरिक तौर खस्ता हालत में कोविड के साथ ही, 20  तारीख को घर में फिसल जाने की वजह से भी थे।

इसी बीच जब अंकित सुधाजी के साथ वापसी के लिए अस्पताल में ही एम्बुलेंस का इंतज़ार कर रहे थे तो पुलिस की मार का शिकार हुए।

हालत नाज़ुक

22-23 की रात को रमेश जी की हालत बहुत-नाज़ुक हो गयी तो उनके दामाद राकेश ने एक एसओेएस अपील जारी की जिसे पढ़कर मैत्रेयी पुष्पा जी ने कहीं बात करके सूचना दी कि रमेश जी के लिए आईसीयू में एक बिस्तर का प्रबंध कर दिया गया है। यह इत्तेला कुमार विश्वास जी ने भी साझा की। ड्यूटी पर मौजूद डॉक्टर ने भी  23 तारीख़ को बताया कि जल्द ही मरीज़ को आईसीयू में 'शिफ़्ट' किया जा रहा है।

रमेश जी तड़पते रहे, बिटिया गुहार लगाती रही, राकेश डाक्टर से बात करके चिंता जताते रहे कि रमेश जी को आसीयू में क्यों नहीं ले जाया जा रहा।

आईसीयू में बिस्तर नहीं

मेरे हम-ज़ुल्फ़ की की मौत से डेढ़ घंटा पहले भी राकेश ने सीनियर डॉक्टर से गुहार लगाई कि उन्हें आईसीयू में शिफ्ट कर दिया जाए जिस का फ़ैसला दिन में ही किया जा चुका था, जवाब मिला वे देखेंगे।  

वे देखते रह गए और जो नतीजा निकला वह हमारे सामने है। रमेश जी संज्ञा बिटिया से लगातार यह कहते हुए ‘मुझे घर ले चलो, यहाँ अच्छा नहीं लग रहा'। 

यहाँ मैं यह भी बताना चाहूंगा कि हिंदी के एक मशहूर पत्रकार ने देश के स्वास्थ्य मंत्री से बीसियों बार संपर्क करने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहे। इस पर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और 23 तारीख़ की शाम तक नोयडा के एक निजी अस्पताल में आईसीयू बिस्तर का इंतज़ाम करा दिया।

सब कुछ ख़तम होने से पहले एक बात ज़रूर साझा करना चाहूँगा। देश की सब से बड़ी भाषा के साहित्यकारों और सैकड़ों संगठनों ने जो बेहिसी और बेमुरव्वती दिखाई है, उस से ज़रूर कलेजा मुँह में आता है।

अब शोक सभा का मतलब?

हिंदी साहित्य के दिन लोगों ने और संगठनों ने रमेश जी और उनके परिवार के मौजूदा दुःख के दिनों में संवेदना ज़ाहिर की या किसी काम के लिए पूछा उनकी तादाद दोनों हाथों की उँगलियों से भी कम थी।

देश की साहित्य अकादमी और दिल्ली की हिंदी अकादमी के अफ़सर अब शायद शोक सभाएं करेंगे। मानो वे रमेश जी के मरने का इंतज़ार कर रहे थे। ऐसी साहित्यिक और सांस्कृतिक तंज़ीमों पर ताला लगा देना चाहिये जो अपने जीवित मनीषियों को मौत से बचा सकें लेकिन इस बात का ढंढोरा पीटें कि वे साहित्य और सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखने के काम में लगे है। 

रमेश जी से मेरी आख़री बार बात 20 अप्रैल को हुयी थी, मैं ने फ़राज़ की यह दो पंक्तियाँ उन्हें गाकर सुनायी थी: 

ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो,

नशा बढ़ता है, शराबैं जो शराबों में मिलें।  

शोषणमुक्त समाज का सपना

मेरे हमज़ुल्फ़ ने शोषण से मुक्त एक समानता और न्यायवाला समाज बनाने के लिए ज़िंदगी भर अपने निजी दुखों को बड़ी लड़ाई; समाज बदलने के संघर्ष का हिस्सा माना। मैं फ़राज़ की पंक्तियाँ सुनाकर उनके ही जीवन के मन्त्र की याद उन्हें दिलाकर उनकी हिम्मत बढ़ाने की कोशिश कर रहा था।

वे बहुत दिलेर और बहादुर थे, लेकिन क्या पता था कि उनकी ज़िंदा रहने की तमाम ख्वाहिशों और कोशिशों के बावजूद उन्हें आईसीयू बिस्तर से महरूम कर दिया जाएगा।

जब सेवा का दम भरने वाली राजकीय संस्थाएं अमानुषिकता की तमाम न्यूनतम सीमाएं भी लाँघ रही थीं तो सुधाजी और रमेश जी के बच्चों ने जिस तरह सेवा की उस पर रमेश जी होते तो गर्व करते। 

संज्ञा ख़ुद कोविड की ज़बरदस्त मार झेल रही थीं, लेकिन पिता की तीमारदारी के लिए मर्दों के वार्ड में ही रहीं, अंतिम सांसों तक साथ खड़ी रहीं और अपनी तक़लीफ़ों का डैडी को ज़रा भी अहसास न होने दिया। मैं ही नहीं कोई भी मनुष्य उस मंज़र को जानकर लरज़ उठेगा जब डैडी ने दम तोड़ने से पहले संज्ञा से बिनती की थी की उन्हें घर ले चलो और उनकी लाडली बिटिया कुछ नहीं कर सकी थी । 

सब से हैरतअंगेज़ और दिल को राहत देने वाला वाक़ेया उस वक़्त हुआ जब  माज़िन ख़ान जी ने रमेश जी और संज्ञा के लिए बहुत ज़रूरी एक ऑक्सीमीटर के लिए मुहम्मद ख़ावर ख़ान नाम के एक दवाई दुकान के मालिक से किसी भी क़ीमत पर लाने के लिए कहा। वह 500-800 रुपए के बजाय 3,000 रुपए में बिक रहा था। उन्हों ने साफ़ मना कर दिया और बताया की वे कोई भी कालाबाज़ारी वाला सामान नहीं बेचते हैं, क्योंकि वे मरीज़ों की बद्दुआ नहीं लेना चाहते।

बहरहाल एक और दुकान से यह आला 2000 में ख़रीदा गया। 

शहीद नदीम की दो पंक्तियाँ बहुत याद आ रही हैं जो मेरे हमज़ुल्फ़ (साढ़ू) को भी बहुत पसंद थीं: 

इंसान अभी तक ज़िंदा है,

ज़िंदा होने पर शर्मिंदा है।

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