शाहरुख़ ख़ान की ‘पठान’ देश में पांच सौ करोड़ और विदेश में हज़ार करोड़ का कारोबार करने वाली फिल्म हो गई है। हालाँकि जो लोग ‘पठान’ के बहिष्कार के विरुद्ध शाहरुख़ ख़ान का समर्थन करने के लिए यह फिल्म देखने गए थे, वे ‘पठान’ देखकर ख़ासे मायूस हुए। उनकी नज़र में यह एक वाहियात फिल्म है जिसमें न कोई कहानी है न संवेदना, बस बहुत सतही क़िस्म के राष्ट्रवाद का बहुत जाना-पहचाना और पिटा हुआ घोल है।
लेकिन यह फिल्म फिर इतनी कामयाब क्यों हुई? क्या बस इसलिए कि शाहरुख़ समर्थकों ने इसके बहिष्कार को बेमानी बनाने के लिए कमर कस ली थी? अगर यह सच होता तो भारतीय राजनीति की सूरत बदली हुई होती। क्योंकि तब सांप्रदायिक या हिंदूवादी आधारों पर राजनीति या बहिष्कार का एजेंडा उसी तरह खारिज कर दिया जाता, जिस तरह वह इस फ़िल्म के संदर्भ में ख़ारिज कर दिया गया।
दरअसल ‘पठान’ की कामयाबी को समझने की कोशिश करें तो उसके पहले अपने समाज को समझना होगा- उन फिल्मों को देखना होगा जो इन वर्षों में बेतरह कमाई कर रही हैं। दक्षिण की जो फ़िल्में इन दिनों कामयाबी के झंडे गाड़ रही हैं, वे भी ‘पठान’ जितनी ही सतही हैं और कुछ मामलों में ‘पठान’ से ज़्यादा अविश्वसनीय है। ‘आरआरआर’ ऑस्कर तक से अवार्ड जीत लाई, लेकिन कोई गंभीर सिने-दर्शक फिल्म को देखकर सिर ही पीट सकता है। यही हाल दूसरी कई फ़िल्मों का है।
मगर ये फिल्में चल क्यों रही हैं? क्योंकि हमारे समाज में सतहीपन बढ़ा है। हमारे भीतर कृत्रिमता को लेकर आकर्षण भी बढ़ा है। असंभव लगने वाली कल्पनाएं हमेशा से हमारे मनोविज्ञान का हिस्सा रहीं, हिंदी सिनेमा में भी हम अपने नायकों से अपरिमित पराक्रम की उम्मीद करते रहे हैं, लेकिन इन दिनों इस कल्पना को भी तमाशे में बदल दिया गया है।
जाहिर है, दर्शक सिनेमा में यथार्थ देखने नहीं जा रहे, समृद्ध कल्पनाशीलता भी नहीं देखना चाहते, वे बस शोर-शराबा, उछल-कूद, चमत्कृत करने वाले ग्राफ़िक्स की मार्फ़त पैदा किए जाने वाले विशेष प्रभाव देखकर खुश हैं। उन्हें बहुत गहरा प्रेम भी नहीं चाहिए, उन्हें बस दैहिक चुलबुलेपन से लेकर उत्तेजना तक पैदा करने वाला बुलबुला चाहिए।
दर्शकों के लिए राष्ट्रवाद का मतलब एक सतही जासूसी कथा है जिसमें पाकिस्तान के मंसूबों को पीटना है, अपनी सुरक्षा को लेकर भावुक क़िस्म का दिलासा चाहिए- यह तसल्ली कि वे चाहे जितने भी संकट से घिरे हों, बिल्कुल आख़िरी लम्हे में कोई नायक आकर उन्हें बचा लेगा।
‘पठान’ इसी खांचे में फिट होती है। शाहरुख़ ख़ान ने यह सारा मसाला जुटा दिया है। हालांकि देशभक्त फौजी की भूमिका वे पहली बार नहीं कर रहे हैं। इसके पहले भी ‘मैं हूं ना’ या ‘वीर जारा’ जैसी फिल्मों में वे ऐसी ही भूमिका कर चुके हैं। लेकिन ‘पठान’ को वे इससे भी आगे ले जाते हैं। ‘मैं हूं ना’ अपने तमाम मसालों के बीच अपने उत्तरार्ध में प्रतिशोध के तर्क को ध्वस्त करती है। वह बताती है कि नफ़रत करते-करते हम एक दिन उस जैसे ही हो जाते हैं जिससे हम नफ़रत करते हैं। ‘वीर जारा’ में भारत-पाकिस्तान का मानवीय साझा चला आता है। जारा की मां पूछती है- ‘क्या भारत में सारे बेटे तुम्हारे जैसे होते हैं?’ शाहरुख़ ख़ान का जवाब है- ‘यह तो नहीं पता, लेकिन सारे मांएं आप जैसी होती हैं।‘
ये फिल्में क़रीब दो दशक पुरानी हैं। ‘पठान’ के पास ऐसी दुविधाओं में पड़ने का समय नहीं है। उसके पास पाकिस्तान को पराया और अफ़गानिस्तान को अपना बताने जैसे बड़े राजनीतिक मुद्दे भी हैं। उसे पता नहीं है, वह कहां पैदा हुआ है। वह अनाथालय में पला-बढ़ा है। अफ़ग़ानिस्तान में जान पर खेल कर एक गांव को बचाने के पुरस्कार के तौर पर उसे ‘पठान’ का नाम मिला है। पूरी फ़िल्म में उसका अलग से नाम नहीं आता। तो यह बहुत सयानी सूझ है। आज बहुसंख्यकवादी राजनीति की मुख्यधारा की समझ के मुताबिक़ मुस्लिम पहचान वाला यह नायक वही बात कहता है जो राष्ट्रवादी राजनीति कहती है, वह पाकिस्तान के विरुद्ध है- अंत में यह भी बताते हुए कि सारे पाकिस्तानी बदमाश नहीं होते, वह आतंकवाद के विरुद्ध है, इससे लड़ने के लिए जान पर खेल सकता है- और यह सब देखते हुए सिनेमा हॉल में पॉपकॉर्न खाता दर्शक राहत की सांस लेता हुआ उठ सकता है। भले ही वह फिल्म को गालियां दे, भले ही वह कहे कि इसमें गहराई नहीं है, लेकिन उसे भी पता है कि इस गहराई से पाला न पड़ना उसकी बड़ी राहत है- किसी असुविधाजनक सवाल से सामना न होना एक बड़ी बात है।
‘पठान’ की कामयाबी इसी ‘मिक्स’ को एक साथ साधने की कामयाबी है। जो लोग इसे शाहरुख़ की लोकप्रियता का नतीजा मानते हैं, वे भूल जाते हैं कि उनकी बीती चार फिल्में पिट चुकी हैं। अगर यह शाहरुख़-प्रेम भर होता तो ये फ़िल्में पिटतीं नहीं। ‘पठान’ या ऐसी तमाम फ़िल्मों की कामयाबी हमारे नए बनते समाज के उस नए मनोविज्ञान का भी नतीजा है जिसमें लोगों को कोई तनाव नहीं झेलना है, किसी बात को गहराई से सुनना या समझना नहीं है, बस कुछ चमत्कारिक सा घटित होते देखना है और यह आश्वस्ति हासिल करनी है कि कोई न कोई चमत्कार उसे सुरक्षित, स्वस्थ और समृद्ध बनाए रखेगा। क्या ऐसे ही चमत्कार के भरोसे हमारी राजनीति भी नहीं चल रही है जिसमें जटिल मुद्दों के वास्तविक हल नहीं, बल्कि यह दिलासा शामिल है कि एक नायक हमारे बीच है जिसके होने भर से सारी समस्याएँ छूमंतर हो जा रही हैं?