अनायास नहीं है सिंधिया का कांग्रेस छोड़ना, राहुल-प्रियंका भी रोकने में क्यों रहे नाकाम?
कांग्रेस के नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने होली के दिन कांग्रेस की मध्य प्रदेश की सरकार के रंग में भंग डाल दिया, वहीं बीजेपी का रंग जमा दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से मुलाक़ात के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को अपना इस्तीफ़ा भेज दिया। सिंधिया ने अपने इस्तीफ़े में साफ़ कर दिया है कि जिस ड्रामे का पर्दा आज गिरा है वह ड्रामा पिछले साल भर से चल रहा था।
बीजेपी ख़ेमे से कई दिन से इस तरह की ख़बरें आ रहींं थी कि ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन थाम सकते हैं। बीजेपी उन्हें मध्य प्रदेश से राज्यसभा भेज सकती है। प्रधानमंत्री उन्हें केंद्रीय मंत्री परिषद में शामिल कर सकते हैंं।
इन चर्चाओं को उस वक्त मज़बूती मिली जब सिंधिया के नज़दीकी 18 विधायक कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में जाकर छुप गए। इसी के साथ बीजेपी में मध्य प्रदेश में नई सरकार बनाने की हलचल तेज़ हो गई।
मध्य प्रदेश के विधायकों की बैठक बुला कर बीजेपी ने शिवराज सिंह चौहान को विधायक दल का नेता चुन लिया है। सिंधिया के समर्थक विधायक किसी भी वक्त विधानसभा के स्पीकर को इस्तीफ़ा भेेज सकते हैं।
आलाकमान की नाकामी
मध्यप्रदेश में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार का होलिका दहन के साथ ही अंत हो गया है। बस इसका ऐलान भर बाकी है। दरअसल यह कमलनाथ की ही नाकामी नहीं, बल्कि पूरे कांग्रेस आलाकमान की नाकामी है। कमलनाथ को मध्य प्रदेश की कमान यही कहते हुए सौंपी गई थी कि वहाँ जिस तरह का बहुमत पार्टी को मिला है, एक तजुर्बेकार मुख्यमंत्री की जरूरत है। इस लिहाज से ज्योतिरादित्य सिंधिया के मुकाबले कमलनाथ को ज्यादा भरोसेमंद और मंझा हुआ खिलाड़ी माना गया।सत्ता की कमान उन्हीं को सौंपी गई। बतौर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पार्टी की कमान भी उन्हीं के पास रही। मध्यप्रदेश में जिस दिन से कमलनाथ सरकार बनी थी, बीजेपी उसी दिन से उसे गिराने की फिराक़ में थी। क़रीब डेढ़ साल बाद बीजेपी को इसमें कामयाबी भी मिल गई।
सॉफ़्ट टारगेट
मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद से ही ज्योतिरादित्य सिंधिया के तेवर तीखे थे और सुर बग़ावती। बीजेपी के लिए वह शुरू से ही सॉफ्ट टारगेट रहे हैंं।उनकी दादी विजया राजे सिंधिया बीजेपी के क़द्दावर नेता थीं। उनकी एक बुआ दो बार राजस्थान की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। एक और बुआ विधायक हैंं। उनके पिता माधवराव सिंधिया और उन्हें छोड़कर उनका पूरा ख़ानदान शुरू से ही बीजेपी में रहा है।
लोकसभा का चुनाव हारने के बाद से ही सिंधिया के बीजेपी में जाने के संकेत मिलने लगे थे। वह एक-एक कदम बीजेपी की तरफ बढ़ा रहे थे। कांग्रेस आलाकमान को भनक थी, लेकिन वक्त रहते उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए जरूरी कदम नहीं उठाए गए।
नराज़गी दूर करने की कोशिश
मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद से ही ज्योतिरादित्य सिंधिया लगातार नाराज़ चल रहे थे। उनकी नाराज़गी को दूर करने के लिए ही राहुल गाँधी ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले उन्हें पार्टी का महासचिव बनाकर पश्चिम उत्तर प्रदेश की ज़िम्मेदारी दी थी। उनके साथ ही राहुल गाँधी ने अपनी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को महासचिव बनाकर पूरी उत्तर प्रदेश की ज़िम्मेदारी दी थी।इन दोनों महासचिवों को कांग्रेस दफ्तर में वही कमरा दिया गया था, जिसमें उपाध्यक्ष रहते राहुल गाँधी बैठते थे। यह इस बात का सबूत है कि गाँधी परिवार ज्योतिरादित्य सिंधिया को अपने परिवार के सदस्य की तरह ही मानता था और उतना ही भरोसा करता था। सिंधिया ने मध्य प्रदेश में पार्टी तोड़ने के साथ-साथ सोनिया, राहुल और प्रियंका का यह भरोसा और भ्रम भी तोड़ दिया।
कांग्रेस की ओर बढ़ते कदम
ज्योतिरादित्य सिंधिया की बीजेपी की तरफ बढ़ते झुकाव का पहली बार खुलासा तब हुआ, जब पिछले साल अगस्त में उन्होंने कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के मोदी सरकार के फ़ैसले का खुला समर्थन किया थ्।ऐसा उन्होंने तब किया जब एक दिन पहले ही कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में मोदी सरकार के इस फैसले के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित किया गया था। उस बैठक में ज्योतिरादित्य सिंधिया भी शामिल थे।
इसके एक दिन बाद ही ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ट्विटर पर बाकायदा मोदी सरकार को जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 ख़त्म करने के लिए बधाई दी और इस फैसले पर अपनी तरफ से समर्थन जताया।
पार्टी की ओर से सफाई मांगे जाने पर उन्होंने कहा कि वक्त बदल रहा है और कांग्रेस को अनुच्छेद 370 जैसे तमाम मुद्दों पर दोबारा अपनी राय बनानी चाहिए। जो देश सोच रहा है, उससे अलग पार्टी नहीं सोच सकती।
यह पहला संकेत था कि ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस से बीजेपी की तरफ जाने का मन बना चुके हैं, क़दम बढ़ा चुके हैं। उसके बाद से ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस में कहीं भी सक्रिय नज़र नहीं आए।
कांग्रेस से दूर होते गए
लोकसभा चुनाव के नतीजे वाले दिन जब राहुल गाँधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दिया था, उसके कुछ दिन बाद ही ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी महासचिव पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। हालांकि उनका इस्तीफ़ा स्वीकार नहीं किया गया था।उसके बावजूद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने महासचिव कार्यभार दोबारा नहीं संभाला था। इसके बाद पार्टी ने पूरे उत्तर प्रदेश की ज़िम्मेदारी प्रियंका गांधी को सौंप दी थी।
पिछले साल नवंबर में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने टि्वटर हैंडल से कांग्रेस की पहचान वाला परिचय हटा दिया था और एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में खुद की पहचान बताई थी।
वक़्त का इंतजार
इस पर जब उनसे सफाई माँगी गई तो उन्होंने गोलमोल जवाब देकर मामले को रफा-दफा कर दिया था। लेकिन तभी से क़यास लगाए जा रहे थे कि देर-सवेर सिंधिया कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में जा सकते हैं। उन्हें सिर्फ सही वक्त का इंतजार है।तभी यह भी कयास था कि अगले साल मार्च में होने वाले राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव के वक्त वह पाला बदल सकते हैं। इसके बाद से ही ज्योतिरादित्य सिंधिया लगातार कमलनाथ के ख़िलाफ़ मोर्चा खोले हुए थे। एक बार तो उन्होंने यहाँ तक धमकी दी थी कि वह सरकार के कुछ फ़ैसलों के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर सकते हैं।
कांग्रेस आलाकमान आंखें मूंदे रहा। जानबूझकर अनजान बना रहा। ज्योतिरादित्य सिंधिया को बीजेपी की तरफ जाने से रोकने के लिए कांग्रेस की तरफ से कोई गंभीर कोशिश हुई हो, ऐसा याद नहीं पड़ता।
पार्टी ने संतुलन नहीं बनाया
पार्टी में आज कुछ नेता यह सवाल भी उठा रहे हैं कि कमलनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्हें ही पार्टी अध्यक्ष क्यों बने रहे दिया गया, लोकसभा का चुनाव हारने के बाद यह ज़िम्मेदारी ज्योतिरादित्य सिंधिया को दी जा सकती थी। इससे राज्य में पार्टी के भीतर संतुलन भी बना रह सकता था।
कांग्रेस में काफी दिनों से यह चर्चा आम है कि कमलनाथ पूरी तरह निरंकुश हो चुके हैं और पार्टी में वरिष्ठ नेताओं की भी नहीं सुनते हैं, ऐसे में ज्योतिरादित्य सिंधिया की बात सुनना तो दूर की बात है।
कमलनाथ के इसी रवैये और आलाकमान की बेबसी के चलते ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पाला बदला है। कांग्रेसी हलकों में चर्चा है कि कांग्रेस आलाकमान कमलनाथ और अशोक गहलोत जैसे नेताओं को खुला हाथ देकर पछता रहा है।
लेकिन यह पछतावा उसी तरह का है कि 'सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया।' इस पछतावे पर यह पुरानी कहावत भी एकदम सटीक बैठती है 'अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत।'