चंद्रयान की कामयाबी से चमकता विज्ञान और ‘नतमस्तक’ समाज!
भारत के चंद्रयान-3 मिशन की सफलता ऐतिहासिक है। चाँद के दक्षिणी ध्रुव पर छाप छोड़ने वाला भारत दुनिया का पहला देश बन गया है। इसी जगह लैंडिंग की कोशिश में रूस के लूना-25 के क्रैश होने के कुछ ही दिन बाद हासिल हुई इस सफलता ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की क्षमता को नये सिरे से स्थापित किया है। इसने साबित किया है कि ज्ञान-विज्ञान की क्षमताओं से लैस मनुष्य की संभावनाओं के सामने आकाश का विस्तार भी छोटा पड़ सकता है।
लेकिन भारत को यह क़ामयाबी एक ऐसे समय मिली है जब ‘तर्क’ और ‘वैज्ञानिक चेतना’ सर्वाधिक निशाने पर है। राजनीतिक स्तर पर एक ‘नतमस्तक समाज’ बनाने की कोशिशें की जा रही है जहाँ सवाल पूछना गुनाह है जबकि विज्ञान का पहला क़दम ही ‘क्यों’ यानी सवाल पूछने से शुरू होता है। आजकल सवाल पूछने वाले ‘देश-विरोधी’ या ‘विकास-विरोधी’ बताकर जेलों मे डाले जा रहे हैं। धर्म और परंपरा के नाम पर अंधविश्वासों को नये सिरे से प्रतिष्ठित करने का संगठित अभियान चलाया जा रहा है। तर्क करने से भावनाएँ आहत हो रही हैं और तर्कशील लोगों के ख़िलाफ मुक़दमे दर्ज हो रहे हैं। नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और कलबुर्गी जैसे विद्वानों की हत्या की ख़बर अब तक ताज़ा है। खुद भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विज्ञानियों की सभा में गणेशजी के सिर पर हाथी का मस्तक लगाने की पौराणिक कथा को प्राचीन भारत में सर्जरी का प्रमाण बताते हैं या फिर नाले से निकली गैस पर चाय बनाने की सलाह देते हैं।
इसलिए चंद्रयान-3 की सफलता उस भारत की सफलता है जिसने ज्ञान और विज्ञान का झंडा बुलंद करते हुए एक सफ़र शुरू किया था। जिसने माना था कि सवाल पूछने से ज्ञान के बंद कपाट खुलते हैं और तरक्की की राह मिलती है। जिसने माना था कि ‘सितारों के आगे जहाँ और भी हैं’ सिर्फ़ शायरी का मसला नहीं, हक़ीक़त की चुनौती है। जिसने संविधान की धारा 51-ए (एच) में बाक़ायदा लिख दिया था कि ‘वैज्ञानिक प्रवृत्ति, मानवता और सवाल व सुधार की भावना का विकास करना हर नागरिक का दायित्व है।’
चंद्रयान-3 की लैंडिंग दिखाने के लिए तमाम टीवी चैनलों ने जिस तरह से तमाशे किये, ऐंकरों ने जिस तरह चीख़ चिल्लाहट मचायी, उसने विज्ञान की इस अहम घटना को ट्वेंटी-ट्वेंटी क्रिकेट मैच से जुड़े जीत-हार के उन्माद में बदल दिया। जबकि अगर यह मिशन असफल भी हो जाता तो कोई हार नहीं होती। विज्ञान हर असफलता की बारीक़ समीक्षा करके नयी राह खोजने का नाम है। चार साल पहले चंद्रयान-2 की असफलता में वो सबक़ छिपे थे जिसने चंद्रयान-3 को क़ामयाब बनाया। विज्ञान में कोई भी सत्य अंतिम नहीं होता। बल्कि हर स्थापित सत्य को चुनौती देना विज्ञान की निश्चित अदा है। असल विज्ञानी वो है जो अपने ही वैज्ञानिक सिद्धांत में कमी खोजने और उसमें कुछ नया जोड़ने में जीवन होम कर देता है।
इसके बरक्स उन दिनों को याद कीजिए जब सूर्यग्रहण का अर्थ समझाने के लिए प्रो.यशपाल जैसे विज्ञानी दूरदर्शन पर बैठा करते थे। उनकी ठहरी हुई कमेंट्री और वैज्ञानिक गुत्थियों को सुलझाने का अंदाज़ साहित्य के विद्यार्थी मे भी विज्ञान के प्रति रुचि जगा देता था। दूरदर्शन पर विज्ञान से जुड़े कार्यक्रम आते थे और समाचार चैनल भी अंधविश्वास को बढ़ाते नहीं थे, उसकी पोल खोलने को फ़र्ज़ समझते थे। या फिर स्कूलों और कॉलेजों में अनिवार्य रूप से साइंस क्लब होते थे। ‘जन विज्ञान जत्थों’ के युवाओं की टोली दूर-दराज के इलाकों में घूम-घूम कर जादू-टोनों के रहस्यों से पर्दा हटाकर समाज को जागृत करती थी। ऐसे अभियान सरकारी स्तर पर एक मुहिम की तरह चलाये जाते थे। मौजूदा हालात में उन अभियानों का क्या हुआ, कोई नहीं जानता।
दरअसल, भारत के चंद्रमिशन की क़ामयाबी स्वतंत्रता आंदोलन के संकल्पों से जुड़ी है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1939 में ‘नेशनल प्लानिंग कमेटी’ बनाकर तमाम विज्ञानियों को इसमें शामिल होने के लिए आमंत्रित किया था। शांतिस्वरूप भटनागर और मेघनाद साहा से विश्वयुद्ध के बाद भारत में वैज्ञानिक अनुसंधान को लेकर गहन चर्चा हुई। इससे पहले 26 दिसंबर 1937 को भारतीय विज्ञान कांग्रेस के पहले ग़ैर-वैज्ञानिक अध्यक्ष के रूप में पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था- ‘केवल विज्ञान ही है जो भूख और ग़रीबी, अस्वच्छता और निरक्षरता, अंधविश्वास और घातक रीति-रिवाज और परंपरा, बर्बाद हो रहे विशाल संसाधनों, भूखे लोगों से भरे समृद्ध देश की समस्यओं का समाधान कर सकते हैं।’
यह सोच कर भी रोमांच होता है कि आज़ादी और बँटवारे से लगभग ध्वस्त नज़र आ रहे भारत को खड़ा करने की तमाम कोशिशों के बीच नेहरू लगातार विज्ञान प्रगति पर आँख लगाये रहे जबकि संसाधनों का काफ़ी टोटा था। उनके साथ होमी भाभा, मेघनाथ साहा, शांतिस्वरूप भटनागर, विक्रम साराभाई जैसे सिद्ध विज्ञानियों की एक मज़बूत टीम थी जिनके सहयोग से आज़ादी के महज़ दस साल के अंदर भारत में वैज्ञानिक अनुसंधान की दस प्रयोगशालाओं की स्थापना हो सकी।
आज कम खर्च में उपग्रह प्रक्षेपण में महारत के लिए अलग पहचान रखने वाला इसरो भी उसी वैज्ञानिक चिंतन को प्राथमिकता देने का नतीजा है। 1962 में विक्रम साराभाई ने भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति (INCOSPAR) की स्थापना करके भारत के अंतरिक्ष सफ़र को दिशा दी। इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्रित्व काल में 15 अगस्त 1969 को इसे ही इसरो के रूप में पुनर्संयोजित किया गया। सोशल मीडिया पर तैर रहीं साइकिल के करियर और बैलगाड़ी पर उपग्रह ढोने की तस्वीरें बताती हैं कि इस सफ़र ने फ़र्श से अर्श का सफ़र कैसे पूरा किया है।
चंद्रयान-3 की सफलता सिर्फ़ भारत नहीं, पूरी मानव जाति की उपलब्धि है। चाँद के दक्षिण ध्रुव से सिर्फ़ भारत नहीं धरती चमकती दिखती है। लेकिन मानवजाति ने अंतरिक्ष की ओर जो छलाँग लगायी है उसमें चाँद सिर्फ़ एक पड़ाव भर है। सिर्फ़ दस हज़ार साल पहले खेती के आविष्कार के साथ शुरु हुआ सफ़र मनुष्य को कहाँ से कहाँ ले आया है। चाँद को लेकर गढ़ी गयी तमाम रूमानी कहानियाँ उसके यथार्थ के सामने बेमानी हो गयी हैं। तमाम पौराणिक मिथक और क़िस्से हास्यास्पद हो गये हैं। अज्ञान से ज्ञान की ओर इस यात्रा के मूल में है ‘क्यों’ जो ‘आदेशपालक’ और ‘नतमस्तक’ समाज बनने के ख़तरे के बीच एक उम्मीद की तरह चमका है। क्या हम इस रोशनी में नहाने के लिए तैयार हैं? यह आज का सबसे बड़ा सवाल है!