डराओ और राज करो
अभी-अभी क्विंट मीडिया और ऑनलाइन पोर्टल के संचालक राघव बहल के ठिकानों पर जिस तरह आयकर विभाग ने छापा डाला, उसमें मीडिया जगत में सिहरन पैदा कर दी। ये वही राघव बहल हैं जो कभी टीवी18 और कई मीडिया कर्मचारियों के प्रमोटर और मालिक हुआ करते थे। उनका टीवी 18 और वायेकाम ग्रुप बिक गया। इसमे राघव बहल को अच्छी खासी रकम मिली। राघव बहल के पास पैसे है तो इनकम टैक्स विभाग यह छानबीन तो कर ही सकता है कि कहीं टैक्स की चोरी तो नहीं हो रही है। इसमें कुछ बुरा भी नहीं है। लेकिन छापों के लिए जो समय चुना गया वो डर पैदा करने वाला है। उसके भी कारण हैं। कारण राजनैतिक हैं ।
जनवरी 18 से लेकर अबतक हुए 10 लोकसभा व 21 विधानसभा चुनावों के परिणामों का विश्लेषण करके बहल ने कोई एक महीना एक वीडियो रिपोर्ट जारी की थी। जिसमें बताया कि उपचुनावों के आंकड़े बताते है कि बीजेपी का ग्राफ तेेजी से नीचे गिर रहा है। इस साल ज्यादातर उप-चुनाव बीजेपी हार गयी। उसका वोटर कम हो गया। उसके आधार पर बहल ने अपना निष्कर्ष दिया कि बीजेपी की हालत पतली है। इस रिपोर्ट को लेकर सोशल मीडिया में उन पर लगातार जोरदार आक्रमण हुए और फिर इनकम टैक्स का छापा।
बहल की रिपोर्ट और इनकम टैक्स के छापे को कई लोग जोडक़र देखते हैं। अपने आप में यह कोई अकेली घटना नहीं है।
निशाने पर नकीरन भी
तमिलनाडु की साप्ताहिक पत्रिका नकीरन के संपादक आर. गोपाल और 14 पत्रकारों समेत 35 कर्मचारियों पर राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित ने आईपीसी की धारा 124 के तहत संवैधानिक काम में बाधा डालने का मुकद्मा दर्ज कराया।नकीरन ने एक रिपोर्ट छापी थी जिसमें बताया गया था कि राज्यपाल ने निर्मला देवी नाम की एक महिला से कई बार मुलाकात की। निर्मला देवी को इस साल अप्रैल में पुलिस ने एक मामले में गिरफ्तार किया था, जिसमें आरोप है कि निर्मला देवी अपनी चार छात्राओं को पैसे और आधे नम्बरों के लिए कुछ रसूखदार लोगों के पास भेजने की कोशिश कर रही थी। नकीरन को महामहिम और निर्मला देवी की मुलाकात संदिग्ध लगी। और हो गया उन पर मामला दर्ज। मामला जब अदालत में पहुंचा तो मजिस्ट्रेट ने अभियुक्तों को मेल भेजने से इंकार कर दिया। अदालत को पहली नजर में अभियुक्तों के खिलाफ कोई ठोस आधार नहीं मिला। इसके पहले दिल्ली के एक न्यूज चैनल के 3 वरिष्ठ पत्रकारों को नौकरी छोडऩे पर मजबूर कर दिया गया।
न्यूज़ चैनलों में अघोषित डर
समाचारों का एक बड़ा चैनल करीब दो सालों से सीबीआई और इनकम टैक्स के छापों का दबाव झेल रहा है। यह चैनल सरकार विरोधी माना जाता है। इस चैनल पर जिस तरह के आरोप हैं , उनपर सही - गलत का फैसला अभी नहीं हो सकता, लेकिन जो समय चुना गया , उस पर सवाल उठाए गए। ऐसी बहुत सी घटनाएं एक के बाद एक घटती जा रही हैं जाहिर है कि मीडिया खास कर न्यूज चैनलों में एक अघोषित भय का भूत घूम रहा है।क्या होता है अर्बन नक्सल?
भय-प्रेत-बाधा का साया सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों की भी अपने आगोश में लेने की कोशिश में है। महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में हिंसा भडक़ाने के आरोप से हिन्दी के कवि गौतम नवलखा, तेलुगू कवि बर्बर राव, वकील और सामाजिक कार्यकर्ता राधा भारद्वाज, अरूण फेरारिया और वर्णन गोंसालविश, सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के कारण बच गए, लेकिन बुद्धिजीवियों और सामाजिक सरोकार रखने वालों की चिंता अब भी खत्म नहीं हुई है।सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा जस्टिस ए. एम खानविलकर और डी वाई चन्द्रचूड़ का इस मुद्दे पर फैसला एेतिहासिक है। कोर्ट ने इस बात पर नाराजगी जताई कि मजिस्ट्रेट ने इन लोगों को रिमांड पर महाराष्ट्र पुलिस को सौंपने से पहले प्राथमिक रिपेार्ट की जांच तक नहीं की। इस मामले में पांचों लोग दिग्गज सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनकी रिहाई के लिए नामी गिरामी वकील की फौज सुप्रीम कोर्ट पहुंच गयी लेकिन देश के दूर-दराज के जिलों में सामाजिक कार्यकर्ताओं की दुर्दशा बेरोक टोक जारी है। कांग्रेस नेता, पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों के धुर विरोधी अपने बेटे कीर्ती की कंपनियोंं पर इनकम टैक्स छापों से परेशान है। कुछ मामले चिदबंरम पर भी है। चिदंबरम वकील है और सुप्रीम कोर्ट में खुद अपना बचाव कर सकते हैं । चिदम्बरम ने क्या - कैसे किया होगा, इस पर भी कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती लेकिन उनपर और उनके बेटे पर की जा रही कार्रवाई भी चुनाव के नजरिए से देखी जा रही है और उसे इस नजरिये से न देखने का कोई कारण नहीं समझ में आता।
सीबीआई का ख़ौफ़
सीबीआई की डपली का स्वर पहले भी डर था । आज भी है। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री सिंह यादव सीबीआई और उसके राजनीतिक आकाओं से अपना डर खुलेआम बयां कर चुके हैं। उनके भाई शिवपालयादव जिस तरह से अपने आठ बेडरूम वाले बंगले की योगी राजनीति कर रहे हैं , सब चटकारे ले पढ़ रहे हैं।
बिहार में पूर्व लालू यादव के बेटों और बेटियों के खिलाफ सीबीआई की कार्रवाई पर शायद कोई सवाल नही उठता। अगर सीबीआई मध्य प्रदेश के व्यापम के घोटाले की जांच में ऐसी ही सख्ती दिखा रही होती। सीबीआई तो वही है लेकिन राजनीतिक आका बदल गए हैं तो बीजेपी के नेता धड़ाधड़ मुकदमों से बरी हो रहे हे और बीजेपी विरोधी नेता फंसते जा रहे हैं।
कभी सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को पिंजरे का तोता कहा था। इस पर हंगामा तो खूब हुआ लेकिन कांग्रेस की पिछली सरकारों के दौरान सीबीआई पर सरकार यानी मंत्रियों के इसारे पर चलने को जो आरोप लगा था वो आज भी कायम है। राज्यों की पुलिस पर रसूखदारों को निर्मम और दलित पीडि़तों को भय के चक्रव्यूह में बांधे रखने का जो आरोप लंबे समय से है उसका सिर्फ रंग बदला है। सत्ता के रंग के साथ/ उत्तर प्रदेश को ही लें तो एंटी रोमियो बिग्रेड के नाम पर युवा लडक़े-लड़कियों पर बेहरहम वालेे ऐसे घूम रहे हैं, जैसे उन सबकी छाती छप्पन इंच हो गयी है। अल्पसंख्यक अब अपनी खेती के बैल और गाय को लेकर निकलने से डर रहे हैं। कोशिश हर तरफ भय पैदा करने की है।
दरअसल संविधान में सब कुछ है। छापा भी है , इमरजेंसी भी । इंदिरा गांधी ने भी नियम कानून का आवरण पहनाया था इमरजेंसी को । आज भी सत्ता यह कह सकने में स्वतंत्र है कि गलती की है तो भुगेतेंगे। कहना और करना , दोनों ही अलग - अलग बातें हैं । पर जनता को सब पता रहता है। कहां से , कुछ पता नहीं होता । उसका तो निर्णय आता है । सीबीआई एेसी संस्थाओं का सरकारें अपनी तरह से इस्तेमाल करती रही हैं। सरकारें अपनी कार्रवाई से संदेश देने की कोशिश करती रही हैं । अब यह सवाल उठना शुरू हो ही गए हैं कि क्या मीडिया को भी इस तरह के संदेश दिए जा रहे हैं । लेकिन यह भी सच है कि जो मीडिया चाहता है , वो करने में सक्षम है और दिखा भी रहा है। सरकार का समर्थन भी और विरोध भी। लेकिन असलियत यह है कि जनता सब तौलती रहती है और जब भी एक तरफ पलड़ा भारी होता है , अपना काम कर देती है। हमारे इतिहास भी एेसे हैं । दमन से भय पैदा हो सकता है। भय से खामोशी छा सकती है। लेकिन भय कभी लोकतांत्रिक जज्बा खत्म नहीं कर सकता। इतिहास गवाह है भय पर बैलेट भारी पड़ता है।