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पीएमएलए में भी जमानत का नियम है और जेल अपवाद: सुप्रीम कोर्ट

पीएमएलए में भी जमानत का नियम है और जेल अपवाद: सुप्रीम कोर्ट

क्या ईडी पीएमएलए से जुड़े मामले में किसी आरोपी को लंबे समय तक जमानत देने का विरोध कर सकती है? जानिए, आख़िर क्यों सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जमानत दिया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने अब पीएमएलए मामले में भी कहा है कि जमानत का नियम है और जेल अपवाद। ईडी अब तक पीएमएलए मामले में आरोपियों को पूछताछ के नाम पर काफी लंबे समय तक हिरासत में रखती रही है। 

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के कथित सहयोगी प्रेम प्रकाश को पीएमएलए मामले में जमानत देते हुए यह फ़ैसला दिया। जस्टिस बी आर गवई और के वी विश्वनाथन की पीठ ने कहा कि जमानत के लिए दोहरी शर्तें निर्धारित करने वाली अधिनियम की धारा 45 इस मूल कानूनी सिद्धांत को नहीं पलटती है कि जमानत देने का नियम है। 

लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस विश्वनाथन ने फ़ैसला सुनाते हुए कहा, 'हमने माना है कि पीएमएलए में भी जमानत नियम है और जेल अपवाद है।' उन्होंने कहा, 'पीएमएलए की धारा 45 में केवल इतना ज़िक्र है कि कुछ शर्तों को पूरा किया जाना है। यह सिद्धांत कि जमानत नियम है और जेल अपवाद है, भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 का केवल एक संक्षिप्त विवरण है, जिसमें कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा। व्यक्ति की स्वतंत्रता हमेशा नियम है और इससे वंचित करना अपवाद है।'

उन्होंने कहा, 'स्वतंत्रता से वंचित केवल कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया द्वारा ही किया जा सकता है, जो वैध और उचित होनी चाहिए। पीएमएलए की धारा 45 दोहरी शर्तें लगाकर इस सिद्धांत को फिर से नहीं लिखती है कि वंचित करना आदर्श है और स्वतंत्रता अपवाद है। केवल इतना ही ज़रूरी है कि ऐसे मामलों में जहाँ जमानत दोहरी शर्तों के आधार पर दिया जाना है, उन शर्तों को पूरा किया जाना चाहिए।' 

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने याचिकाकर्ता की लंबी अवधि तक कैद और बड़ी संख्या में गवाहों के कारण मुकदमे में देरी पर विचार किया और इसी वजह से जमानत मिल गई। शीर्ष अदालत ने झारखंड उच्च न्यायालय के उस फ़ैसले को खारिज कर दिया, जिसमें याचिकाकर्ता को जमानत देने से इनकार किया गया था। 

अदालत ने यह भी कहा कि अधिनियम के तहत एक आरोपी द्वारा जाँच अधिकारी के समक्ष किए गए इकबालिया बयान आमतौर पर सबूत के रूप में स्वीकार्य नहीं होंगे। इसने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 द्वारा उनकी स्वीकार्यता पर प्रतिबंध लगाया गया है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह विचार व्यक्त किया कि ऐसे बयानों को साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य बनाना अनुचित होगा और न्याय के सभी सिद्धांतों के विरुद्ध होगा। कोर्ट ने साफ़ किया कि यह केस-दर-केस आधार पर देखा जाएगा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 लागू होगी या नहीं।

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