प्रदूषण कोरोना से भी ज़्यादा घातक! सरकार के भरोसे रहे तो...?
ज़्यादा घातक क्या- प्रदूषण यानी ख़राब हवा या फिर कोरोना संक्रमण? यदि आप भी भारत सहित दुनिया भर को झकझोर देने वाले कोरोना को ज़्यादा घातक मानते हैं तो प्रदूषण के आँकड़े आपको विचार बदलने को मजबूर कर सकते हैं।
सामान्य तौर पर प्रदूषण और कोरोना की तुलना नहीं की जा सकती है, लेकिन यदि इनकी वजहों से मौत को घातक होने का पैमाना माना जाए तो तुलना आसान हो जाएगी। आधिकारिक आँकड़ों पर भरोसा करें तो कोरोना संक्रमण से पिछले एक साल में क़रीब 3 लाख 30 हज़ार लोगों की मौत हुई और यदि कोरोना संक्रमण शुरू होने से अब तक को जोड़ें तो 4 लाख 63 हज़ार लोगों की मौत हुई। अब प्रदूषण से मरने वालों का आँकड़ा देखिए। पिछले साल विज्ञान की प्रसिद्ध पत्रिका लांसेट में एक रिपोर्ट आई थी कि 2019 में 16 लाख 70 हज़ार लोगों की मौत ख़राब हवा से हो गई। उससे पहले वह रिपोर्ट 2017 में आई थी और तब प्रदूषण के कारण 12 लाख 40 हज़ार लोगों की मौत बताई गई थी।
उस रिपोर्ट में विश्लेषण में पाया गया था कि ख़राब हवा के कारण क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज, श्वसन संक्रमण, फेफड़े का कैंसर, हृदय रोग, स्ट्रोक, मधुमेह, नवजात विकार और मोतियाबिंद की समस्याएँ आ रही थीं।
वैसे, ख़राब हवा यानी जहरीली हवा को लेकर विश्लेषण आजकल सरकारी बैठकों में भी किया जा रहा है। पहले सालाना रस्म की तरह होती रही ऐसी बैठक इस बार भी केंद्र सरकार और दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार के बीच हो रही है। वह भी सुप्रीम कोर्ट का डंडा चलने के बाद। आशंका तो यह है कि इसका नतीजा भी कहीं पिछले साल की तरह ही तो नहीं निकलेगा।
पिछले साल भी जब दिवाली के बाद जहरीली हवा से आँखों व गले में जलन और सांस लेने में तकलीफ होने लगी थी तो इसी तरह की गहमागहमी थी। तब लगा था कि अगले साल से प्रदूषण नहीं होगा! लेकिन क़रीब पखवाड़े भर की बैठकों, ताबड़तोड़ घोषणाओं और ऐसी ही दूसरी हलचलों के बाद सबकुछ शांत हो गया।
आँखों में जलन भले नहीं हो रही थी, लेकिन जहरीली हवा आहिस्ता-आहिस्ता लोगों की ज़िदगियाँ निगलती रही। तभी तो रिपोर्ट आती है कि ख़राब हवा के कारण देश मे हर रोज़ क़रीब 4500 लोगों की मौत हो जाती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ के अनुसार ख़राब हवा के कारण ही दुनिया भर में क़रीब 70 लाख लोगों की मौत समय से पहले हो जाती है। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट कहती है कि वायु प्रदूषण से कई गंभीर इंफ़ेक्शन हो सकते हैं। लेकिन इससे सबसे ज़्यादा ख़तरा इन बीमारियों को लेकर होता है-
- अस्थमा
- कैंसर
- फेफड़े का इन्फ़ेक्शन
- साँस से जुड़ी बीमारियाँ
- हृदय रोग
- स्ट्रोक
- न्यूमोनिया
कोई ज़रूरी नहीं है कि फॉग दिखे तभी ही प्रदूषण हो। हो सकता है कि आँखों से तो सबकुछ साफ़ दिख रहा हो लेकिन हवा में छोटे-छोटे कण तैर रहे हों। ये छोटे-छोटे कण पार्टिकुलेट मैटर यानी पीएम होते हैं। माइक्रोन में मापे जाने वाले ये कण पीएम 2.5 और पीएम 10 होते हैं। इसमें सबसे ज़्यादा घातक है पीएम 2.5। ये कण इतने छोटे होते हैं कि फेफड़े में अंदर तक जा सकते हैं। पीएम 2.5 के 60 कण को मिलाया जाए तो एक बाल जितनी मोटाई दिख सकती है।
इतने छोटे-छोटे कण हैं लेकिन इससे होने वाली मौतें कोरोना संक्रमण से होने वाली मौतों से भी भयावह तसवीर पेश करती है। कोरोना संक्रमण के बाद देश में कैसे हालात रहे, यह किसी से छुपा हुआ नहीं। पूरा देश थम सा गया था। लोगों में खौफ था। लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था ही नहीं पूरा जन-जीवन ही थम सा गया था। पूरा तंत्र कोरोना को नियंत्रित करने के प्रयास में लगा था।
लेकिन जब बात प्रदूषण यानी जहरीली हवा की आती है तो पूरे साल तक इस पर गंभीर चर्चा भी नहीं। इस बार भी दिवाली के बाद जब आँखों में जलन शुरू हुई तो सरकारों की भी आँखें खुलीं। इसके लिए भी सुप्रीम कोर्ट को डंडा चलाना पड़ा। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि राजधानी में सांस लेना दूभर हो रहा है। उन्होंने यहां तक कहा कि घर के अंदर भी मास्क पहनना पड़ रहा है। इस बीच प्रदूषण के मामले में सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि वह दिल्ली में हवा की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए इमरजेंसी प्लान लेकर आए।
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश के बाद केंद्र और दिल्ली सरकार सक्रिय हुईं। लेकिन सवाल है कि यह सक्रियता कितने दिनों तक बनी रहेगी? कहीं यह प्रदूषण के कम होने के साथ ही यह मुद्दा फिर से दफ़्न तो नहीं हो जाएगा? क्या इस बार लंबी अवधि के लिए कोई योजना बनेगी?
केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार के बीच ताज़ा हालात को देखकर तो नहीं लगता। ऐसा इसलिए क्योंकि केंद्र सरकार ने एक दिन पहले जो सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दिया है उसमें एक वैज्ञानिक अध्ययन का हवाला देते हुए कहा गया है कि दिल्ली में पीएम 2.5 में हिस्सा पराली जलने के कारण सर्दियों में केवल 4 प्रतिशत और गर्मियों में 7 प्रतिशत है। इसने कहा कि प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार प्रमुख रूप से उद्योग, परिवहन और सड़क की धूल है और कुछ हिस्सा ही पराली जलाने का है। इसको लेकर केजरीवाल सरकार ने आपत्ति की है।
दिल्ली की आम आदमी पार्टी ने केंद्र सरकार पर सुप्रीम कोर्ट को गुमराह करने का आरोप लगाया है। आप ने ट्वीट कर आरोप लगाया है कि केंद्र के खुद के हलफनामे में कहा गया है कि पराली जलाने से कुल प्रदूषण में 40 प्रतिशत का योगदान होता है, इसने अब यू-टर्न लिया और कहा कि पराली की भूमिका केवल 4 प्रतिशत है।
कुल मिलाकर इससे साफ़ तौर पर लगता है कि प्रदूषण फैलने के लिए ज़िम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं है। जब प्रदूषण फैलने के कारणों को ही सही से नहीं समझा जाएगा, उसकी ज़िम्मेदारी नहीं ली जाएगी तो उसका समाधान कैसे निकलेगा? ऐसे में क्या उम्मीद की जा सकती है कि बैठक में दोनों सरकारें आरोप-प्रत्यारोप भूलाकर साफ़ हवा का रास्ता तलाशेंगी?